छायांकनः प्रकाश और छाया का खेल, सुनहरी यादों में यह डुबकी किसी नास्टैलजिया से कम नहीं

फिल्म में निहलानी और बीर छवियों की भावनात्मक भूमिका और नाटकीय यथार्थवाद पर विस्तार से बात करते हैं। इसकी कल्पना को वास्तविकता में बदलने की उड़ान से लेकर उस बदलाव की भी जब समानांतर सिनेमा आंदोलन ने सिनेमैटोग्राफी की दुनिया बदल डाली।

फोटोः सोशल मीडिया
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नम्रता जोशी

सिनेमैटोग्राफर हेमंत चतुर्वेदी की नई डॉक्यूमेंट्री ‘छायांकन: द मैनेजमेंट ऑफ शैडोज’ में छायाकार-फिल्म निर्माता गोविंद निहलानी और छायाकार वीके मूर्ति के बीच संवाद का एक दृश्य है। बातचीत महान फिल्म निर्माता गुरुदत्त के निधन पर हो रही है। मूर्ति कहते हैं- ‘उस दिन मैं उनसे ज्यादा अपने लिए रोया। यह सिर्फ एक इंसान का जाना नहीं था। एक दोस्ती, एक असाधारण रचनात्मक सहमेल का खत्म हो जाना भी था।’ ठीक बाद वहीदा रहमान गुरुदत्त को याद करते दिखती हैं कि किस तरह ‘कागज के फूल’ में अपना हुनर दिखाने के लिए गुरुदत्त ने मूर्ति को पूरा समय दिया जो अद्भुत तालमेल का उदाहरण है।

भरोसे (ट्रस्ट) पर आधारित एक ऐसा दुर्लभ टीमवर्क जैसा नदीम खान आज डेविड लीन, फ्रेडी यंग और स्टीवन स्पीलबर्ग या जानुज कमिंसकी के मामले में महसूस करते हैं। और भरोसे का ऐसा मामला भी जिसकी बात करते बाबा आजमी को ‘अर्जुन’ की शूटिंग के दौरान वाले राहुल रवैल याद आ जाते हैं। फिल्म के इस अंश का समापन निहलानी के उन शब्दों से होता है जहां वह जोर देते हैं कि सिनेमा में रचनात्मकता का मतलब निर्देशकीय दृष्टि से है जहां वह कैमरापर्सन की नजर से अपने सोच, अपने नजरिये को जीवंत होते देखता है।

सिनेमा के तमाम पक्षों में से सिनेमैटोग्राफर-निर्देशक संबंध पर चतुर्वेदी (कंपनी, मकबूल और मकड़ी फेम) अपनी फिल्म में बड़ी बारीकी से बात करते हैं। इसमें हर उस संभावना पर नजर डाली गई है जिसका जरा भी रिश्ता सिनेमैटोग्राफी से है, यानी काम करने वाले, उनका जीवन, उनके तरीके, उपकरण, उनका शिल्प और उनकी कला- सबकुछ। सुनहरी यादों में यह डुबकी किसी नास्टैलजिया से कम नहीं। यहां इतिहास का महत्वपूर्ण दौर है, और है एक खूबसूरत आर्काइव में तब्दील होता उस दौर के लोगों और समय का ऑडियो-विजुअल लेकिन जीवंत डक्यूमेंटेशन। इनमें निहलानी, खान और आजमी के अलावा पीटर परेरा, जहांगीर चौधरी, प्रवीण भट्ट, एके बीर, बरुन मुखर्जी, दिवंगत ईश्वर बिदरी, दिलीप दत्ता, कमलाकर राव, सुनील शर्मा और आर एम राव शामिल हैं।

एक कमी भी है और वह है महिला छायाकारों की उपस्थिति। शायद इसलिए कि चतुर्वेदी जिस दौर की बात कर रहे हैं, तब बमुश्किल ही हिंदी फिल्म उद्योग में कोई था। बीआर विजयलक्ष्मी भारत की पहली महिला छायाकार हैं जिन्होंने 80 और 90 के दशक की तमिल फिल्मों में काम किया। जमीन तोड़कर सुर्खियां बटोरने वाली फौजिया फातिमा, सविता सिंह, अंजलि शुक्ला, दीप्ति गुप्ता, प्रिया सेठ, अर्चना बोरहाडे तो हाल के नाम हैं। हां, महान फिल्म अभिनेत्री वहीदा रहमान को इसमें रखना होगा जो स्वयं फोटोग्राफी में खासी रुचि रखती हैं और यही कारण है कि कैमरे के सामने उनका एक अलग नजरिया दिखता है।


फिल्म में 40 घंटे के फुटेज का बहुत सधा हुआ इस्तेमाल दिखता है जब एक लंबी, खूबसूरत, पूरे रौ और रफ़्तार में चलने वाली बातचीत में वह हर इंसान के हर पहलू को खोलते दिखते हैं। हालांकि इनमें से हर एक के साथ हुई चर्चा को संपादन के बाद यूट्यूब पर स्टैंडअलोन बातचीत के तौर पर अपलोड किया जाएगा।

कई दिलचस्प किस्से हैं। मसलन, किसी की जिंदगी में सिनेमैटोग्राफी की अचानक और अनायास एंट्री कैसे हुई। खान परमाणु भौतिकी पढ़ रहे थे जब इस ‘असल’ इलाके में प्रवेश लिया। वह याद करते हैं कि कैसे मुजफ़्फर अली की ‘गमन’ अचानक उनकी राह में आ गई। वह तो जैक्स रेनॉयर (प्रसिद्ध सिनेमैटोग्राफर) को सहयोग करने वाले थे लेकिन जब रेनॉयर पीछे हटे तो खान ने इसे सम्भाला और सिलसिला चल पड़ा। एसएम अनवर पुणे की कंपनी में सॉकेट और केबल की सफाई करते थे। सिनेमैटोग्राफी का ‘स’ भी नहीं सुना था जब द्वारका द्विवेचा (सिनेमैटोग्राफर) की नजर उन पर पड़ी और वह अचानक रमेश सिप्पी की ‘शोले’ में कैमरे के पीछे खड़े नजर आए। बाद में तो अनवर ने सिप्पी की शान, शक्ति और सागर में बतौर छायाकार काम किया।

पीटर परेरा 50 और 60 के दशक में होमी वाडिया के लिए 50 रुपये दैनिक के आकर्षक वेतन पर काम करते थे और रोज वसई से स्टूडियो तक का सफर तय करते थे। कमालकर राव की शोहरत कुछ ऐसी थी कि जिस भी लड़की की फोटो खींचते, जल्दी ही उसकी शादी हो जाती। जहांगीर चौधरी के लिए तो यह मौसम विज्ञान, रसायन विज्ञान, वास्तुकला और इंटीरियर डिजाइन के साथ रहते हुए इस दुनिया में आना था, हालांकि उनके परिवार के कुछ लोग (कैमरामैन जल और फली मिस्त्री और अभिनेत्री श्यामा) पहले से फिल्म उद्योग में थे और पिता इंदौर में थिएटर चलाते थे। यहां फिल्म के सेट पर सिनेमैटोग्राफर की भूमिका और उसकी मौजूदगी पर बारीकी से बातचीत है कि इस खामोश मौजूदगी का फिल्म में क्या मतलब होता है।

निहलानी और बीर छवियों की भावनात्मक भूमिका और नाटकीय यथार्थवाद पर विस्तार से बात करते हैं। इसकी कल्पना को वास्तविकता में बदलने की उड़ान से लेकर उस बदलाव की भी जब समानांतर सिनेमा आंदोलन ने सिनेमैटोग्राफी की दुनिया बदल डाली। निहलानी याद दिलाते हैं कि 20वीं सदी में कलाकार तकनीक को चुनौती दे रहे थे, आज तकनीक कलाकार को चुनौती दे रही है।


कुछ मधुर पक्ष भी हैं। मीना कुमारी के प्रति फरेरा का लगाव और यह भी कि मीना किस तरह उन्हें वसई की आखिरी ट्रेन पकड़ने वास्ते दादर स्टेशन छोड़ने जाती थीं। स्टार सिस्टम पर सवाल भी हैं कि इसके दुरुपयोग ने किस तरह सिनेमा के शिल्प पर प्रतिकूल असर डाला। दिलचस्प यह है कि जामिया मिलिया इस्लामिया के मास कॉम स्नातक चतुर्वेदी फिल्मों की बेहद सफल पारी के बाद 2015 से डॉक्यूमेंट्री और स्टिल फोटोग्राफी पर मुड़ चुके हैं। इस वक्त देश के सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों को फोटो-डॉक्यूमेंट कर रहे हैं और 12 राज्यों में लगभग 800 पुराने ऐसे सिनेमाघरों को शूट कर चुके हैं।

‘राम कांथी, मंगलूरू, 1946’ और ‘शक्ति, बगलकोट, 1948’ जैसी थिएटर की जो दो तस्वीरें उन्होंने हमसे साझा की हैं, उन्हें अगर पैमाना माना जाए तो उनके काम की तारीफ करनी होगी। यह हमारी आंखों को सुकून दे रही हैं। लेकिन चतुर्वेदी अलग ही अंदाज और मूड में उनका बयान करते हैं- ‘एक ऐसा असाधारण स्थान और इतना अनिश्चित-अस्थिर भविष्य’। दरअसल कोविड-19 ने सबकुछ बर्बाद कर दिया। क्या संभव है कि इन्हें सिर्फ संरक्षित कर दिया जाए युगों-युगों के लिए, ठीक उसी तरह जैसे चतुर्वेदी ने अपने कैमरे से सिनेमैटोग्राफर्स को पीढ़ियों के लिए संरक्षित कर दिया है।

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