निजामुद्दीन की सुर्खियों में छिप गईं मजदूरों की मजबूरियां, सरकारों की बदइंतजामी, अस्पतालों की खामियां

तबलीगी जमात का जलसा 13 से 15 मार्च के बीच हुआ। इसमें शामिल होने के लिए आए लोग या तो इन तारीखों में या इन तारीखों से पहले आए। इस जलसे की जानकारी स्थानीय प्रशासन और पुलिस को थी, इसमें शामिल होने वाले लोगों की संख्या भी पता थी।

फोटो: सोशल मीडिया
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तसलीम खान

कोरोना वायरस के संबंध में रोजमर्रा के अपडेट देने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय की मंगलवार को हुई प्रेस कांफ्रेंस में मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल ने कहा कि, “यह समय गलतियां बताने का नहीं, बल्कि सरहाना करने का है और जिन जगहों पर कोई मामला सामने आता है तो उसकी तय प्रक्रिया के तहत कार्रवाई होनी चाहिए।”

लव अग्रवाल का यह जवाब दिल्ली के निजामुद्दीन स्थित तबलीगी जमात के मरकज मामले में था। यह जवाब सुनने में अच्छा लगता है कि यह समय गलतियां तलाशने का नहीं बल्कि सराहना करने का है। लेकिन निजामुद्दीन मामले ने जिस तरह का माहौल कल शाम से पैदा किया है, वह बेहद दुखद और खतरनाक है। सोशल मीडिया से लेकर न्यूज चैनलों तक सिर्फ यही चर्चा है कि निजामुद्दीन में एक साथ हजारों लोग (1000 से अधिक) छिपे बैठे थे। कोई इसे कोरोना बम का नाम दे रहा है, तो कोई इसे कोरोना जिहाद कह रहा है।

स्थिति विस्फोटक हो सकती है, इसमें कोई शक नहीं, एक साथ इतने लोगों का एक साथ किसी एक जगह इकट्ठा रहना खतरनाक है, क्योंकि इस जानलेवा वायरस से बचने और इसे फैलने से रोकने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग ही फिलहाल एक मात्र तरीका है। तबलीगी जमात ने एक साथ इतनी बड़ी संख्या में लोगों को एक ही जगह जमा करके रखा, यह अपराध है और कोरोना से लड़ाई के लिए बनाए गए कानून के तहत तबलीगी जमात और धार्मिक जलसा करने वालों के खिलाफ मामला दर्ज होना चाहिए।

लेकिन क्या यह इतना ही सीधा मामला है? निजामुद्दीन में तबलीगी जमात के जलसे की जानकारी क्या सोमवार को ही सामने आई? क्या देश में कोरोना संबंधित सलाहें और ताली-थाली, जनता कर्फ्यू ,धारा 144 और लॉकडाउन आदि होने के बाद यह लोग जमा हुए? क्या इस जलसे में शामिल हुए विदेशी कोरोना की खबरें आने से पहले ही भारत आ चुके थे? क्या मरकज़ से चंद कदम की दूरी पर मौजूद दिल्ली पुलिस के थाने को कोई भनक नहीं थी कि इतनी बड़ी तादाद में लोग जमा हैं?


अब जरा क्रोनोलॉजी समझिए...

तबलीगी जमात का जलसा 13 से 15 मार्च के बीच हुआ। इसमें शामिल होने के लिए आए लोग या तो इन तारीखों में या इन तारीखों से पहले आए। इस जलसे की जानकारी स्थानीय प्रशासन और पुलिस को थी, इसमें शामिल होने वाले लोगों की संख्या भी पता थी। यह सब मरकज और तबीलीगी जमात की तरफ से आई सफाई में कहा गया है, जिसका न तो दिल्ली पुलिस और न ही दिल्ली प्रशासन ने खंडन किया है।

अब सवाल उठता है कि क्या तबलीगी जमात का जलसा अकेला ऐसा कार्यक्रम था जिसमें भारी संख्या में लोग हिस्सा ले रहे थे? इन तारीखों में तो कर्नाटक में एक आलीशान शादी में तमाम नेता-मंत्री शामिल हुए थे, इन तारीखों में उत्तर प्रदेश में पार्टियां चल रही थीं, दिल्ली में संसद चल रही थी, राष्ट्रपति 50-50 सांसदों के समूह के साथ नाश्ता कर रहे थे, संसदीय समितियों की बैठकें हो रही थी, मध्य प्रदेश में विधानसभा चल रही थी, नई सरकार का जश्न मनाया जा रहा था, दिल्ली की विधानसभा चल रही थी। और ध्यान रखिए, इन तारीखों तक मोदी जी ने रात 8 बजे टीवी पर अवतरित होकर भाइयों-बहनों नहीं किया था।

तो फिर निजामुद्दीन को लेकर इतना हो-हल्ला क्यों?

हां, जवाब हो सकता है कि यहां के लोग कोरोना पॉजिटिव पाए गए, कुछ लोगों की मौत हो गई, बहुत से लोगों का पता नहीं है। लेकिन क्या यही कारण है कि कोरोना वायरस जैसे महाकाल की अकल्पनीय विपदा से जुड़ी जानकारियों के बजाए सिर्फ और सिर्फ निजामुद्दीन ही फोकस में हो?

थोड़ा पीछे जाएंगे तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि जब-जब मौजूदा सरकार किसी भी राष्ट्रीय संकट पर फंसती है, उसकी बदइंतजामी सामने आती है, उसकी काबिलियत पर सवाल उठते हैं, तो वह कुछ न कुछ ऐसा जरूर करती है कि देश का ध्यान किसी और मामले में उलझ जाता है। पिछले साल लोकसभा चुनाव से पहले का वक्त याद कीजिए। उस समय देश की अर्थव्यवस्था की पतली हालत सुर्खियों में थी, बेरोजगारी सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी थी, नोटबंदी और आधी-अधुरी तैयारियों के साथ लागू जीएसटी के चलते उद्योघ धंधों की हालत खराब हो चुकी थी। इस पर तड़का यह कि पुलवामा में हमारे 40 से ज्यादा जवानों की जान आतंकी हमले में चली गई थी। तभी बालाकोट हुआ और देश सबकुछ भूलकर भाइयों-बहनों को सुनने लगा।


ऐसा ही कोरोना संकट में हुआ है। एक एडहॉक सोच के साथ सिर्फ 4 घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन का ऐलान करने के बाद सरकार निश्चिंत हो गई थी कि अब कोरोना से निपट लेंगे। लेकिन अगली सुबह-सुबह होते-होते देश भर के प्रवासी मजदूरों की भगदड़ शुरु हो गई। हजारों लाखों लोग सड़कों पर निकल पड़े, अपने घरों के जाने के लिए। सबसे बुरा हाल दिल्ली का था, जहां दो-दो सरकारें थीं और इन प्रवासी मजदूरों को यह समझाने में नाकाम साबित हो चुकी थीं कि उनका ध्यान रखा जाएगा, उनको रोटी मिलती रहेगी।

केजरीवाल प्रेस कांफ्रेंस पर प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे, एलजी अनिल बैजल के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नजर आ रहे थे। केंद्र की मोदी सरकार की तरफ से शाही सलाहें जारी हो रही थीं। लेकिन मजदूरों की बेबसी निरंतर जारी थी। धीरे-धीरे देश और दुनिया के अखबारों के पहले पन्ने इन मजदूरों की मजबूरियों को सुर्खियां बनाने लगे थे। बिना किसी तैयारी के सिर्फ चार-घंटे के नोटिस पर देश भर के लाखों मजदूरों का भाइयों-बहनों हो चुका था और सरकार के पास कोई प्लान, कोई रोडमैप नहीं था इस संकट से निपटने का। केंद्र से लेकर राज्य सरकारें सिर्फ मुंह बाए देख रही थीं।

इससे ध्यान बंटाने के लिए पहले ठीकरा दिल्ली की केजरीवाल सरकार पर फोड़ने की कोशिश हुई, लेकिन जब केजरीवाल भी मोदी जी के सुर में सुर मिलाने लगे, तो सुर्खियां बदलने के लिए नई रणनीति पर काम शुरु हुआ। इस दौरान देश में कोरोना के नए-नए केस सामने आ रहे थे, मौतों का आंकड़ा भी बढ़ रहा था, राशन की कमी की खबरें सुर्खियां बनने लगी थीं। ऐसे में कुछ ऐसा चाहिए था, जो पूरा का पूरा नैरेटिव ही बदल दे। और तबलीगी जमात के निजामुद्दीन जलसे ने यह मौका थाली में सजाकर रख दिया।

यह हर मायने में सूट करता था। इसमें पाकिस्तान भी था और मुसलमान भी। इसने उन सारे दावों और ऐलानों को छिपा लिया जो लगातार किए जा रहे थे।

मसलन जब 22 मार्च को ताली-थाली हुई तो भी निजामुद्दीन में लोग थे। जमात लगातार पुलिस और अफसरों से गुहार लगा रही थी कि इन्हें कहीं और भेज दो। लेकिन इसे टाला जाता रहा। उस दावे की भी पोल खुल गई कि जनवरी से ही एयरपोर्ट पर सक्रीनिंग हो रही है। अगर ऐसा था तो फिर करीब ढाई सौ विदेशी (जिन पर शक है कि उनसे से कुछ पॉजिटिव थे और उन्हीं से यह वायरस बाकी लोगों में फैला है) कैसे मरकज तक पहुंच गए।

बहरहाल, सुर्खियां बदल चुकी हैं। टीवी चैनलों के डिबेट के इश्यू बदल चुके हैं। व्हाट्सऐप ग्रुप और सोशल मीडिया के तमाम माध्यमों पर निजामुद्दीन छाया हुआ है। सिर पर गठरी उठाए मजदूरों की टोली को लोग भूल चुके हैं, तीन दिन बाद हाथ में रोटी आने पर फूट-फूट कर रोते युवक की तस्वीर लोग भूल चुके हैं, मजलूम मजदूरों पर पुलिस के लाठी-डंडे और उठक-बैठक भूल चुके हैं। सब्जी-तरकारी से भरे ठेलों को पलटती पुलिसिया कार्रवाई को लोग भूल चुके हैं। याद है तो बस निजामुद्दीन...

लेकिन यह भी सब याद रखा जाएगा...

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