मीडिया ने महामारी संकट में असली मुद्दों को किया गायब, आपदा में ध्रुवीकरण कर किसे खुश करना चाहता है चौथा खंंभा

जिम्मेदार पत्रकारिता करने वाले कुछ टीवी और प्रिंट-डिजिटल अपवादों को छोड़कर अधिकतर सत्ता समर्थक मीडिया इस मानवीय संकट से निपटने में सरकार की कमियों को उजागर करने की बजाय इस जुगत में लगा है कि कैसे सत्ता में बैठे लोगों की नाकामियों के दागों पर पर्दा डाला जाए।

फोटोः सोशल मीडिया
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उमाकांत लखेड़ा

देश में मीडिया का एक एक बड़ा हिस्सा इस वैश्विक महामारी के तात्कालिक, दूरगामी दुष्प्रभावों के प्रति जनता में अधिकाधिक जागरूकता बढ़ाने और सरकार से सवाल पूछने के अपने बुनियादी दायित्वों से भटक गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि इस महामारी का भी धार्मिक ध्रुवीकरण करने की गलाकाट प्रतियोगिता में सत्ता समर्थक टीवी मीडिया बेशर्मी से जुटा है। कुछ जिम्मेदार पत्रकारिता करने वाले टीवी और प्रिंट-डिजिटल अपवादों को छोड़कर सत्तालोलुप मीडिया इस महामारी में भी सरकार को उसकी कमियां गिनाने के बजाय इस जुगत में लगा है कि कैसे सत्ता में बैठे लोगों की नाकामियों के दागों पर पर्दा डाला जाए।

प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 24 मार्च की रात को लॉकडाउन की घोषणा के बाद बड़ी तादाद में भूख और भय के कारण प्रवासी मजदूरों के अपने घर और गांवों के लिए उमड़ने की खबरें मात्र 24 घंटों के लिए ही मीडिया की सुर्खियां बनी रहीं। मोटे आंकड़ों के मुताबिक पैदल और दूसरे साधनों से अपने घरों तक पहुंचने के पहले ही दो दर्जन से ज्यादा लोगों की दुर्घटना, भूख और अचानक तबीयत बिगड़ने से मौत हो गई। खास बात यह है कि तब तक भारत में कोरोना वायरस से हुई मौतें लॉकडाउन के बाद दुर्घटनावश हुई मौतों से भी कम थीं।

लेकिन ऐसे लोगों की मौतें भी, उन्हीं लोगों की मौत की तरह मीडिया की सुर्खियां नहीं बनीं, जिनकी मौत भारत में 8 नवंबर 2016 को पीएम मोदी द्वारा नोटबंदी की अचानक घोषणा बाद के दिनों में लाइनों और नोट के लिए जद्दोजहद में हो गई। उस दौरान करीब करीब 127 लोग बैंकों की लाईनों में खड़े-खड़े या बैंकों में जमा रकम डूबने के डर से हार्ट अटैक से मौत के मुंह में चले गए।

अचानक लॉकडाउन से पैदा हालात में लाखों अप्रवासी मजदूरों और उनके परिजनों का दिल्ली से भागकर बदहवासी में अपने घरों की और कूच करने का सिलसिला थमता, उसके पहले ही मीडिया खास तौर पर मोदी सरकार की मिजाजपुर्सी में जुटे हिंदी अखबार और कुछ टीवी चैनलों ने मोर्चा संभाल लिया। सबने मिलकर ऐसा हौव्वा खड़ा किया कि भारत में कोरोना वायरस 13 से 15 मार्च के बीच दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में स्थित तबलिगी जमात के केंद्र मरकज में सालाना जलसे के लिए एकत्र मुस्लिमों के कारण फैला। पूरे तीन दिन तक भारतीय मीडिया के पास लगा कि कोई काम ही नहीं बचा है।

जाने-माने पत्रकार, एडिटर्स गिल्ड के पूर्व अध्यक्ष और सांसद रह चुके एच के दुआ कहते हैं, “यह आश्चर्यजनक है कि कोरोना वायरस के बजाय भारतीय मीडिया का एक हिस्सा इस नए तरह के सांप्रदायिक वायरस की गिरफ्त में जकड़ गया। इतने बड़े मुल्क में 21 दिन के लंबे लॉकडाउन में लोगों खास तौर पर निम्न आय वर्ग और दिहाड़ी श्रमिकों के लिए जीवन-मरण का सवाल खड़ा हो गया है।”

दुआ आगे कहते हैं कि “इसकी जगह मीडिया को चाहिए था कि सर्वोच्च स्तर पर सरकार के योजनाकारों की संवेदनाओं पर सवाल उठाते। पूछते कि भूखे-प्यासे लोगों को बिना सोचे-समझे इतने दिनों तक घरों में कैद रखने के पहले वह क्यों नहीं सोचा गया, जिसकी वजह से बाद में पीएम मोदी को जल्दबाजी के कड़े कदम उठाने के लिए देशवासियों से क्षमा मांगनी पड़ी।"

दिल्ली में तबलिगी जमात के मरकज में शामिल देसी-विदेशी लोगों को भारत में संक्रमण फैलाने का दोषी करार देने के भारतीय मेनस्ट्रीम मीडिया के नजरिये के बाबत वरिष्ठ मीडिया विश्लेषक और भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) से तीन दशक तक जुड़े रहे प्रोफेसर सुभाष धूलिया कहते हैं, “विडंबना यह है कि भारत में एक-दो दशक पहले की तरह मेनस्ट्रीम मीडिया जैसी अब कोई बात रह नहीं गई। अब तो मीडिया बिखरी हालत में कई टूकड़ों में बंट चुका है। मौजूदा दौर में जब भारत पूरी तरह एक महामारी से जूझ रहा है, ऐसे में फेक या भ्रामक खबरों के बीच विश्वनीयता की कसौटी तय करने का काम लोगों पर ही छोड़ना होगा कि वह प्रिंट, टीवी, डिजिटल पोर्टल और सोशल मीडिया में आ रही सूचनाओं की बाढ़ में क्या स्वीकार और अस्वीकार करें।”

तमाम मीडिया विशेषज्ञ हैरत में हैं कि भारतीय मीडिया के एक हिस्से में कोरोना से जुड़ी कानाफूसी, अफवाहों और यहां तक कि सफेद झूठ को भी खबरों के तौर पर फैलाकर अपने मुल्क पर आई इस आपदा की गंभीरता को हल्का करने में कोई कसर नहीं छोड़ा गया। चीन में दो ढाई दशक से रह रहे भारतीय पत्रकार विनोद चंदोला कहतें हैं, “साफ लगता है कि भारत में अधिकांश निजी टीवी मीडिया बेलगाम हैं। यह अजीब है कि कुछ भारतीय चैनल सरकार की तैयारियों की कैफियत और अधिकाधिक डॉक्टरों की सलाह जनता तक पहुंचाने में अहम कड़ी बनने की बजाय इस खतरनाक महमारी को सांप्रदायिक और हिंदू-मुसलमान का रंग देने में जुटे नजर आ रहे हैं।”

अमेरिका की फोर्ब्स पत्रिका भी भारत और इटली में मीडिया की इस मनोदशा पर आश्चर्यचकित है। एक ताजा लेख में पत्रिका में चिंता प्रकट की गई है कि गैर जिम्मेदारना मीडिया के इस व्यवहार से ऐसा पहले कभी देखने को नहीं मिला कि लोगों में भय फैलाया जा रहा हो। नतीजतन आम लोगों को गहरे मानसिक दबाव से होकर गुजरना पड़ा है।

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