मोदी-योगी-शाह, विधानसभा चुनावों में सब हो गए फेल: अब नहीं चलने वाला बीजेपी का सांप्रदायिकता कार्ड

विधानसभा चुनावों के एक्जिट पोल के नतीजे अगर बीजेपी की शिकस्त का इशारा कर रहे हैं तो यह तो तय हो गया कि अब सांप्रदायिकता कार्ड नहीं चलने वाला, वह मोदी हों. योगी हों या अमित शाह, या फिर असदुद्दीन ओवैसी ही क्यों न हो।

फोटो : सोशल मीडिया
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सुरुर अहमद

जिन तीन बीजेपी शासित राज्यों में हाल में विधानसभा चुनाव हुए हैं, उनमें से राजस्थान ऐसा राज्य है जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या सबसे ज्यादा है। इसी राज्य में सांप्रदायिक हिंसा और गौरक्षकों द्वारा मॉब लिंचिंग की घटनाएं भी सामने आई हैं। इसी राज्य में पद्मावत फिल्म को लेकर सबसे ज्यादा बवाल और हिंसा हुई थी। और, इसी राज्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने एकता का प्रदर्शन किया।

फिर भी देश के इस बड़े राज्य के एक्जिट पोल के नतीजे एकसुर में बीजेपी की करारी शिकस्त का ऐलान कर रहे हैं। जबकि इसके उलट मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी की हार या जीत को लेकर एक्जिट पोल मिश्रित संकेत दे रहे हैं।

राजस्थान में बीजेपी की हार के संकेत इस बात के भी संकेत हैं कि बीजेपी को अब सांप्रदायिकता के आधार पर जीत नहीं मिलने वाली। और मतदाता अब वोट देगा तो सिर्फ राज्य और केंद्र सरकार के काम पर, और कोई मुद्दा नहीं चलने वाला।

दूसरा राज्य जहां मुसलमानों की ठीकाठाक आबादी है, वह तेलंगाना। तेलंगाना की कुल आबादी में करीब 12 फीसदी मुसलमान हैं। और इसका इतिहास सांप्रदायिक हिंसा से भरा पड़ा है। चूंकि तेलंगाना का ज्यादातर हिस्सा पूर्व में निज़ाम की रियासत का हिस्सा रहा है, ऐसे में यहां के हालात को सांप्रदायिक करने की आशंका बनी रहती है। इसके अलावा इसी राज्य में एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी भी हैं, जिनकी पार्टी का इस बार तेलंगाना की सत्तारूढ़ पार्टी टीआरएस के साथ उनका गठबंधन है। बीजेपी की तरह एआईएमआईएम भी सांप्रदायिकता के मुद्दे पर ही फलने फूलने वाली पार्टी है।

चुनाव के दौरान बीजेपी ने इन हालात को सांप्रदायिक रंग देने की पूरी कोशिश की। इसके लिए उत्तर प्रदेश के हिंदूवादी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को मैदान में उतारा गया। उन्होंने अपने भाषणों में कहा कि जिस तरह निज़ाम को यहां से भागना पड़ा, ओवैसी को भी भागना पड़ेगा। लेकिन वे सत्य भूल गए कि, निज़ाम अपनी पूरी जिंदगी हैदराबाद में ही रहे।

चुनाव प्रचार में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और दूसरे नेताओं ने बड़े-बड़े दावे किए कि तेंलगाना में बीजेपी अपने दम पर सरकार बनाने वाली है। लेकिन, सभी एक्जिट पोल के नतीजे बताते हैं कि बीजेपी तो कहीं रेस तक में नहीं थी।

असली नतीजे 11 दिसंबर को आएंगे, लेकिन आसार ऐसे हैं कि बीजेपी के लिए बुरी खबरें ही सामने आएंगी। क्योंकि, इन चुनावों में मतदाता ने बीजेपी की मर्जी से नहीं, अपने विवेक से वोट किया है।

हिंदी पट्टी के तीन राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के चुनाव ऐन लोकसभा चुनाव से पहले हुए हैं, इसलिए कई राजनीतिक विश्लेषक इसे सत्ता का सेमीफाइनल भी कह रहे हैं। इन चुनावों को कैसे भी परिभाषित किया जाए, लेकिन एक बात तय है कि बीजेपी के अच्छे दिन नहीं आने वाले।

यह सच्चाई है कि इन तीनों राज्यों में 2013 में बीजेपी ने जीत दर्ज की थी, लेकिन तब नारे कुछ और थे। नरेंद्र मोदी की अगुवाई में 2014 के लिए नए बदलावों के और विकास के नारे थे। सांप्रदायिक भावनाओं को दबाकर रखा गया था। मतदाताओं को आभास हुआ कि सत्ता में आने के बाद बीजेपी एक जिम्मेदार पार्टी की तरह काम करेगी, लेकिन 7 दिसंबर को आए एक्जिट पोल के नतीजे दिखाते हैं कि मतदाताओं ने बड़े पैमाने पर बीजेपी को खारिज कर दिया है।

इन राज्यों के संदर्भ में एक बात और अहम है। वह यह कि इन सभी जगह 2003 के चुनाव दिसंबर 2002 में गुजरात चुनाव में बीजेपी की जीत के बाद हुए थे। उन चुनावों में बीजेपी ने 2002 की शुरुआत में गुजरात में हुई सांप्रदायिक हिंसा को भुनाया था। इन तीन राज्यों में जीत का ही नतीजा था कि बीजेपी ने 2004 के लोकसभा चुनाव समय से 6 महीने पहले कराने का ऐलान कर दिया था।

लेकिन, 2004 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा और सत्ता उसके हाथ से फिसल गई। हालांकि उसने सुशासन और शाइनिंग इंडिया यानी भारत उदय के नारे दिए थे। उस समय भी बीजेपी के कुछ लोगों ने देश के कुछ हिस्सों में सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने की कोशिश की थी, लेकिन ये कोशिशें भी नाकाम ही साबित हुई थीं। यहां तक कि नरेंद्र मोदी के गुजरात में कांग्रेस ने 26 में से 12 सीटें जीतकर मोदी को बड़ा झटका दिया था।

ऐसे में इन राज्यों में जिन नतीजों के संकेत हैं उससे एक बार फिर यह तर्क मज़बूत हुआ है कि सांप्रदायिकता की राजनीति का दायरा बहुत सीमित और क्षणिक है। असली मुद्दा तो सरकारों का काम ही है।

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