ताजमहल गिरा दिया जाए, सरकार की मंशा तो कुछ ऐसी ही लगती है...

ताजमहल को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की गंभीरता ऐसी है कि 31 जुलाई से इस मामले की रोज सुनवाई होगी। पर, सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि क्या सरकार कभी इसे बचाने के लिए गंभीर होगी, या फिर इसे गिराने की ओर बढ़ेगी?

फोटो : महेंद्र पांडे
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महेन्द्र पांडे

कुछ वर्ष पहले ‘द गार्डियन’ में ल्युक हार्डिंग ने लिखा था, “प्रदूषण और उपेक्षा के कारण ताजमहल का खस्ता हाल केवल एक इमारत के समाप्त होने की कहानी नहीं है, यह भारत के गौरवपूर्ण अतीत को नष्ट करने का सबूत हैं।” केंद्र और राज्य की अति राष्ट्रवादी सरकारें समय-समय पर बिना सबूतों के और बिना किसी तर्क के अतीत पर अपनी राय जाहिर करती रही हैं, पुरानी इमारतों की नयी कहानियां गढ़ती रही हैं और इन कहानियों को स्कूल के बच्चों पर थोपती रही हैं। प्रदूषण की बात करें तो देश भर में भरपूर प्रदूषण फैला है, हरेक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट समय-समय पर यही बताती है, पर सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। ताजमहल पर की गयी सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी तो प्रमुख समाचार बन गयी, पर पर्यावरण का हरेक अवयव वर्तमान में ऐसा ही उपेक्षित है।

‘द गार्डियन’ की दूसरी रिपोर्ट में बताया गया है कि यह भारत के ऐतिहासिक धरोहरों के लिए बहुत बुरा समय है। अधिकतर ऐतिहासिक इमारतें मुग़लों, अंग्रेजों और पुर्तगाल के शासकों ने बनवाई हैं। वर्ष 2014 तक ऐतिहासिक धरोहरों का सम्मान किया जाता था और इन्हें देश की विरासत के तौर पर देखा जाता था। इसके बाद तो इन इमारतों के प्रति राष्ट्रवादी और हिंदूवादी ताकतें समाज में नफरत ही फैला रहीं हैं। ताजमहल भले ही दुनिया के लिए वास्तुशिल्प का एक नायाब नमूना हो, पर सत्ताधारी बीजेपी के अनेक विधायक और नेता इसे मंदिर का दर्जा दिलवाने को आतुर हैं। सितम्बर 2017 में संगीत सोम ने ताजमहल को देश के लिए ऐसा धब्बा बताया था, जिसे गद्दार लोगों ने बनवाया।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी ताजमहल के विरुद्ध अनेक वक्तव्य दे चुके हैं, पर दिखावे के लिए अक्टूबर 2017 में एक दिन ताजमहल के आसपास झाडू लगाने का नाटक भी कर चुके हैं। उस समय उन्होंने कहा था, ताजमहल एक अनोखा रत्न है और वे इसकी सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। पर, सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी प्रतिबद्धता को आइना दिखा दिया। जून 2017 में आदित्यनाथ ने कहा था, उन्हें खुशी है कि अब विदेशी मेहमानों को ताजमहल का मॉडल भेंट स्वरुप नहीं दिया जाता, ताजमहल भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं है।

नरेंद्र मोदी समेत बीजेपी और हिंदूवादी संगठनों के अनुसार मुस्लिम शासकों ने देश को केवल लूटा है और यहां के लोगों से गुलामों जैसा व्यवहार किया है। इसी सोच के कारण इन्हें मुस्लिम शासकों की बनायी इमारतों से भी एक अजीब सी घृणा है, जबकि इतिहास बताता है कि अधिकतर मुग़ल बादशाह भारत में ही शादी कर यहां की संस्कृति में ही रचबस गए थे। यहाँ तक कि उनकी वास्तुकला में भी भारतीय वास्तुकला का समागम साफ़ दिखाई देता है। उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन पुस्तिका 2017 में ताजमहल का जिक्र तक नहीं था।

कट्टर हिंदूवादी और तथाकथित इतिहासकार पी एन ओक ने तो ताजमहल को शंकर का मंदिर, तेजो महालया, बताया है। वैसे पी एन ओक के अनुसार पुराने जमाने में पूरे विश्व में हिन्दुओं का साम्राज्य था और अंग्रेजी भाषा भी संस्कृत से पैदा हुई है। विश्व में जितने भी पूजास्थल हैं, चाहे किसी भी धर्म के हों, सभी जगह शिव मंदिर हैं। पी एन ओक की बातों से सहमत होने वाले बीजेपी के बड़े-बड़े नेता हैं। देश-विदेश का कोई भी इतिहासकार पी एन ओक की बात से सहमत नहीं है।

बिल क्लिंटन जब भारत के दौरे पर आये थे, तब उन्होंने ताजमहल के बारे में कहा था, प्रदूषण ने वह कर दिखाया जो 350 वर्षों में युद्ध, आक्रमण और प्राकृतिक आपदा भी नहीं कर सके। आगरा देश का आठवां सबसे प्रदूषित शहर है, पर प्रदूषण नियंत्रण का सरकारी रवैया बताने के लिए इतना काफी है कि दिल्ली सबसे प्रदूषित शहर है और इसके लिए भी आज तक कोई ठोस योजना नहीं बनी है।

मई 2018 में भी ताजमहल को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को लताड़ा था, पर कोई फर्क नहीं पड़ा। ताजमहल को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की गंभीरता ऐसी है कि 31 जुलाई से इस मामले की रोज सुनवाई होगी। पर, सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि क्या सरकार कभी इसे बचाने के लिए गंभीर होगी, या फिर इसे गिराने की ओर बढ़ेगी?

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