आकार पटेल का लेख: लॉकडाउन से काबू कर भी लिया संक्रमण, तो भी कोरोना के इलाज की क्षमता नहीं है हमारे पास

सवाल यह है कि भारत में आखिर लॉकडाउन क्यों है? इसका यह उत्तर तो नहीं ही है कि 21 दिन के बाद हम इस रोग को हरा चुके होंगे। इसका उत्तर यह भी नहीं हो सकता कि लॉकडाउन वायरस के प्रसार को रोकने के लिए है, क्योंकि इसका प्रसार तो हर हालत में होगा, भले धीमा हो जाए।

फोटोः सोशल मीडिया
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आकार पटेल

केंद्रीय गृह सचिव ने कहा है कि मौजूदा लॉकडाउन को आगे बढ़ाने की कोई योजना नहीं है। साफ है कि यह इस बात का आश्वासन नहीं हो सकता कि लॉकडाउन वास्तव में नहीं बढ़ेगा। गृह सचिव की बात को सिर्फ इस बात की स्वीकारोक्ति भर माना जा सकता है कि अभी इसकी कोई योजना नहीं है। बेशक अमेरिका ने जो भी ऐहियाती कदम उठाए हैं, वे अपेक्षानुसार सख्त नहीं, फिर भी उसे इनकी अवधि बढ़ानी पड़ी, क्योंकि वायरस का संक्रमण नियंत्रण से बाहर हो गया है।

लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर भारत में लॉकडाउन क्यों है? हमारी अर्थव्यवस्था एकदम ठहर गई है और ऐसा अनुमान है कि उत्पादन बंद हो जाने के कारण हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 5 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। स्पष्ट है, हम सभी के घरों में बंद रहने की बड़ी वजह है। लेकिन आखिरल यह वजह है क्या?

दि सेंटर फॉर डिसीज डायनैमिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी ने एक अध्ययन जारी किया है, जिसमें यह अनुमान व्यक्त किया गया है कि भारत में कोरोना वायरस फैलने की तीन संभावित स्थितियां हो सकती हैं:

  1. उच्च- मौजूदा लॉकडाउन के साथ ही परस्पर दूरी बनाए रखने के दिशानिर्देशों का पालन नहीं हो पाए।
  2. मध्यम- दिशानिर्देशों का आंशिक से लेकर पूर्ण अनुपालन, लेकिन तापमान/आद्रता संवेदनशीलता या संक्रमण की तीव्रता में कोई बदलाव नहीं। सबसे अधिक संभावना इसी परिदृश्य के सच होने की है।
  3. निम्न- संक्रमण की तीव्रता और तापमान/आद्रता संवेदनशीलता, दोनों में कमी। यह एक आशावादी परिदृश्य है।

दि सेंटर फॉर डिसीज डायनैमिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी का आकलन है कि अगर तीसरा यानी सबसे आशावादी परिदृश्य सच हुआ, तो उस स्थिति में भी जून तक 12 करोड़ भारतीय इससे संक्रमित हो जाएंगे, जिनमें से 11 लाख अस्पताल में भर्ती कराए जाएंगे। गौर करने वाली बात है कि भारत में केवल 70,000 आईसीयू बेड और 40,000 वेंटिलेटर हैं। यानी उस स्थिति में भी इन संक्रमित लोगों में से ज्यादातर को इलाज नहीं मिल सकेगा।

दूसरी, यानी सबसे ज्यादा संभावित स्थिति में 18 करोड़ लोग संक्रमित होंगे और 18 लाख लोगों को अस्पताल में भर्ती करना होगा। पहली स्थिति में तो 25 करोड़ लोग संक्रमित होंगे और 25 लाख को अस्पताल में भर्ती करने की नौबत आएगी। इन संख्याओं के सामने हमारी व्यवस्था बौनी है। हमारी तो यह भी हालत नहीं कि सबसे अच्छी स्थिति में भी जितने लोग बीमार पड़ेंगे, उनका इलाज कर सकें। क्या सरकार इन संभावित स्थितियों से सहमत है? अगर नहीं तो क्या उसके पास कोई वैकल्पिक अनुमान है?

इस अध्ययन को तवज्जो नहीं दी जा रही है लेकिन इसके आंकड़ों को चुनौती भी नहीं दी जा रही है। सच्चाई तो यह है कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद हम क्या उम्मीद करें, इसका हमारे पास आधिकारिक रूप से कोई आंकड़ा नहीं। सरकार ने यह भी नहीं कहा है कि 14 अप्रैल तक संक्रमितों की संख्या कितनी रह सकती है। इसलिए सवाल यह उठता है कि भारत में आखिर लॉकडाउन क्यों है?


इसका यह उत्तर तो नहीं ही है कि 21 दिन के बाद हम इस रोग को हरा चुके होंगे। यहां तक कि चीन में भी यह संक्रमण पूरी तरह खत्म नहीं हुआ हैः यह रह-रहकर लौट आ रहा है और विशेष तौर पर बाहर से आने वाले लोग अपने साथ इसके संक्रमण को ले आ रहे हैं। और इसका उत्तर यह भी नहीं हो सकता कि लॉकडाउन वायरस के प्रसार को रोकने के लिए है, क्योंकि इसका प्रसार तो हर हालत में होगा।

हां, इसका एक ही संभावित उत्तर हो सकता है कि लॉकडाउन से संक्रमण का प्रसार धीमा हो जाएगा। सवाल यह उठता है कि प्रसार धीमा हो जाने से क्या हो जाएगा? इसका उत्तर होगा- हमें पता नहीं क्योंकि हमसे लॉकडाउन के अलावा और किसी बात की तो चर्चा नहीं की गई। भ्रम और भी बढ़ जाता है, क्योंकि वायरस के प्रसार के खिलाफ कुछ देश और रणनीति अपना रहे हैं तो कुछ देश और। न्यूयॉर्क इससे तबाह होता जा रहा है और यहां तक कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भी संक्रमित हो चुके हैं। ऐसे में भारत में क्या हो रहा है?

इसे समझने के लिए सबसे पहले हमें यह मानना होगा कि हमें वाकई नहीं पता कि देश में कितने लोग संक्रमित हैं। 29 मार्च तक अमेरिका में 5.5 लाख, जर्मनी में 4.5 लाख, कोरिया और इटली में 3.5-3.5 लाख टेस्ट हुए, जबकि भारत में 27 हजार। हमने हॉलैंड जितना ही टेस्ट किया है, जिसकी आबादी दिल्ली से भी कम है। हॉलैंड में 8,000 पॉजिटिव केस हैं, जो भारत से 10 गुना अधिक हैं।आंध्र प्रदेश ने अब तक केवल 384 लोगों का टेस्ट किया है। जबकि स्पेन, जिसकी आबादी आंध्र प्रदेश से भी कम है, ने 3.5 लाख लोगों का टेस्ट किया है।

यह वास्तवाकिता है कि भारत में पॉजिटिव लोगों की संख्या का अंदाजा ही नहीं है। देखें तो पूरे दक्षिण एशिया में कोरोना वायरस पॉजिटिव मरीजों की संख्या कम है। इनमें भी पाकिस्तान में सबसे ज्यादा है, लेकिन वह भी काफी कम है। भारत में इतने कम टेस्ट हो रहे हैं लेकिन उसमें भी कुछ राज्य दूसरों की तुलना में ज्यादा टेस्ट कर रहे हैं।

भारत में पॉजिटिव केसों में काफी ज्यादा केरल से आ रहे हैं, लेकिन केरल के साथ एक तथ्य यह भी है कि वह अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा टेस्ट कर रहा है। तो क्या इसका मतलब यह है कि केरल में संक्रमित लोगों की संख्या ज्यादा है; नहीं। इसका मतलब केवल यह है कि केरल ने दूसरे राज्यों से ज्यादा पॉजिटिव लोगों की पहचान की है।

अब सवाल यह उठता है कि आखिर हम ज्यादा टेस्ट क्यों नहीं कर रहे हैं? वेबसाइट स्क्रॉल ने विभिन्न राज्यों के अधिकारियों से इस बारे में बातचीत की जिसका निष्कर्ष यह निकलता है कि इसका कारण किट्स की कमी नहीं, बल्कि लैब की कमी है। कई राज्यों में तो टेस्ट के लिए एक लैब भी नहीं है। उदाहरण के लिए नगालैंड को नमूने असम भेजने पड़ते हैं।


ज्यादा टेस्ट नहीं हो पाने की दूसरी वजह यह है कि जैसे ही लोगों को पता चला कि उनके घर से सैंपल ले जाने के लिए नर्स पूरी एहतियाती पोशाक (प्रोटेक्टिव गियर) पहनकर आएंगी, तो उन्होंने प्राइवेट लैब से जांच कैंसिल करा दी। दरअसल, लोग नहीं चाहते कि पड़ोसी उन्हें अछूत की तरह देखें। बहुत लोगों के जांच से पीछे हटने की एक वजह यह भी है कि जैसे ही उन्हें पता चला कि यह टेस्ट मुफ्त नहीं है और पॉजिटिव टेस्ट के स्तर तक जांच हुई तो उन्हें 4,500 रुपये खर्चने पड़ेंगे, तो वे चुप बैठ गए।

दूसरी ओर तमाम लैब वालों की सोच यह है कि इतने कम पैसे के लिए इतने तामझाम में क्यों पड़ा जाए। इसके अलावा बहुतों के पास प्रोटेक्टिव गियर भी नहीं हैं और वे अपने कर्मचारियों की जान जोखिम में नहीं डालना चाहते। लॉक डाउन के कारण भी निजी लैब के लिए कामकाज में दिक्कत आ रही है। इन सबके कारण हमारे यहां पॉजिटिव मामलों की संख्या काफी कम है। फिर भी, जैसे-जैसे दिन बीतेंगे, हम पाएंगे कि लॉकडाउन के बाद भी संक्रमित लोगों की संख्या में बेतहाशा इजाफा हो रहा है।

तब क्या होगा? इसका जवाब तभी दिया जा सकता है, जब हमें पता हो कि लॉकडाउन क्यों है। लॉक डाउन के शुरुआती चंद दिनों में ही पता चल गया कि हमारे पास इसकी कोई योजना नहीं, क्योंकि लाखों लोग पैदल ही सड़क नापने को मजबूर हो गए, जिनके पास खाना,पानी, पैसा कुछ भी नहीं था। 30 मार्च को यह खबर आई कि केंद्र सरकार ने राज्यों के अस्पतालों को कहा है कि एहतियाती लिबास के लिए उन्हें 25 दिन इंतजार करना पड़ेगा। अजीब निराशाजनक स्थिति है।

पिछले दिनों के घटनाक्रम पर गौर करने वाले हर व्यक्ति को समझ लेना चाहिए कि जो कुछ भी हो रहा है, उस पर केंद्र सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। कोई भी आदेश दे देना आसान है, लेकिन इससे भला क्या फर्क पड़ जाएगा, जब उन आदेशों पर अमल की क्षमता ही न हो। जाहिर है, केंद्र सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच रही है। आखिर क्या होगा जब राज्य सरकारों को अपनी क्षमताओं से बाहर जाकर लाखों-करोड़ों संक्रमित लोगों की जरूरतों को पूरा करना पड़े? यह कोई काल्पनिक सवाल तो है नहीं, यह स्थिति तो साफ आती दिख रही है।

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