पाकिस्तान: लोकतंत्र के साथ लुका-छिपी और कट्टरपंथ की चाशनी में डूबी सैन्य व्यवस्था

पूरी दुनिया में इस्लामी कट्टरपंथ के उभार का फायदा पाकिस्तानी सेना ने खूब उठाया, लेकिन पाकिस्तान को इससे जबरदस्त नुकसान हुआ।

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आकार पटेल

पाकिस्तानी तानाशाह परवेज मुशर्रफ को सत्ता छोड़े 14 साल बीत चुके हैं। इसके बाद वहां अभी तक कोई फौजी जनरल सत्ता पर काबिज नहीं हुआ है। अगले साल पाकिस्तान में चुनाव होने हैं और इस दौरान एक बार फिर पाकिस्तानी सेना को लेकर ई खबरें आ रही हैं (हालांकि इसके कई कारण हैं जिनके बारे में हमें अधिक जानने की जरूरत नहीं है)। और, ऐसा लगता है कि पाकिसतान में सैन्य शासन का दौर खत्म हो चुका है।

लेकिन ऐसा कैसे हुआ, इसके लिए पाकिस्तान के इतिहास को थोड़ा गौर से देखना होगा। दशक-दर-दशक पाकिस्तानी इतिहास को देखना थोड़ा सही रहेगा। पाकिस्तान का पहला दशक काफी असमंजस वाला रहा। जिन्ना ने पाकिस्तान बनवाया और महात्मा गांधी की मृत्यु के कुछ समय बाद ही उनकी भी मृत्यु हो गई। जिन्ना की मौत के बाद पाकिस्तान के उस दौर के नेताओं के लिए देश का संविधान बनाना बहुत मुश्किल साबित हुआ।

मुस्लिम लीग ने इस दौरान विभिन्न समुदायों से प्रधानमंत्री बनाए और आपसी मतभेदों को दूर किया। इनमें दो बंगाली (सुहरावर्दी और बोगरा), एक गुजराती (चुंदरीगर) और दो पंजाबी (दोपहर और मुहम्मद अली) शामिल थे। लेकिन इस पूरे दौरान असली सत्ता शक्ति एक पश्तून, मलिक गुलाम मुहम्मद के पास थी। वह एक नौकरशाह थे जिन्होंने देश की सेवा के नाम पर सरकारी नौकरी छोड़ी थी जीप कारें इम्पोर्ट करने का कारोबार शुरु किया था। उन्होंने मुहम्मद और महिंद्रा (जिसे बाद में महिंद्रा एंड महिंद्रा नाम दिया गया) नामक कंपनी की स्थापना की।

जनरल अय्यूब ने अपनी आत्मकथा ‘फ्रेंड्स नॉट मास्टर्स’ में लिखा है कि मलिक गुलाम मुहम्मद ने ही उन्हें शीर्ष पद पर बैठाया था। अय्यूब खान रक्षा मंत्री और सेना प्रमुख थे। वे 48 साल की उम्र में रिटायर होने वाले थे तभी गुलाम मोहम्मद को लकवा मार गया और उनकी मृत्यु हो गई। उन्होंने मृत्यु से पहले जनरल अय्यूब से कहा था कि पाकिस्तान को नेताओं से बचाकर रखना। इस बात को जनरल अय्यूब ने बखूबी निभाया।

पाकिस्तान का दूसरा दशक विकास का दशक कहलाता है। जनरल अय्यूब खान की इस संदर्भ में खूब तारीफ भी हुई और कुछ पश्चिमी लेखकों ने उनके लिए प्रशंसा के शब्द लिखे। यह वह दौर था जब पाकिस्तान की विकास दर भारत से आगे पहुंच गई थी और इसका एक कारण यह भी था कि जवाहर लाल नेहरू और अय्यूब खान ने एक समझौता कर दोनों देशों के बीच शांति बनाए रखने का संकल्प लिया था। पाकिस्तान को एक तरह से एक मॉडल मिल गया था जिसमें विकास उन्मुखी लोकतंत्र का राज था।


निस्संदेह सभी तानाशाहों की तरह अय्यूब खान से भी गलतियां हुईं। पागलपन के एक क्षण में उन्होंने अपने 35 वर्षीय विदेश मंत्री, जुल्फिकार अली भुट्टो द्वारा कश्मीर को 'मुक्त' करने के लिए नियंत्रण रेखा के पार नागरिक पोशाक में सैनिकों को भेजने की योजना को स्वीकार कर लिया। इसके जवाब में लाल बहादुर शास्त्री ने लाहौर के पास अंतरराष्ट्रीय सीमा पर सेना रवाना कर दी। स्थितियां बिगड़ रही थीं तभी सोवियत संघ ने युद्धविराम के लिए दोनों देशों के बीच हस्तक्षेप किया। राजनीतिक रूप से चतुर भुट्टो ने इस्तीफा दे दिया और विश्वासघात का दावा किया। 1965 के युद्ध ने अयूब को बुरी तरह कमजोर कर दिया और उन्हें उनके साथी जनरलों ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। उनके बाद याहिया खान ने सत्ता पर कब्जा कर लिया और इस तरह विकास के एक दशक का अंत हो गया।

तीसरे दशक की शुरुआत भुट्टो के राजनीतिक उभार और उत्थान के साथ हुई और इसका अंत उनकी फांसी के साथ हुआ। यह पहला चुनाव था लेकिन इससे पाकिस्तान के पंजाबी नाराज हो गए। मुजीबुर्रहमान की अगुवाई में बंगालियों ने न सिर्फ पूर्व में बहुमत हासिल किया बल्कि संसद में भी अच्छी संख्या में प्रतिनिधित्व हासिल किया। पश्चिमी पाकिस्तान के लोगों को बंगालियों की सत्ता मंजूर नहीं थी। मतभेद बढ़ने लगे और इसकी परिणति पाकिस्तान के विभाजन के साथ हुई और अपनी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को मामूली अंतर से जीत हासिल होने के बाद भुट्टों सत्ता पर काबिज हुए।

उपमहाद्वीप के अन्य करिश्माई और दयालु शासकों की तरह भुट्टों भी पाकिस्तान के लिए एक विपत्ति ही साबित हुए। उन्होंने सैन्य विमानों का उपयोग किया और दुनिया भर के नेताओँ के साथ मेल-मुलाकातें कीं। उन्होंने एक ऐसे समाजवाद को आगे बढ़ाया जिसने आटा मिलों जैसे छोटे व्यवसायों का भी राष्ट्रीयकरण कर दिया और गुजराती प्रतिभाओं को कराची से बाहर निकाल दिया, जिससे पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचा।

भुट्टो को लगने लगा था कि उन्होंने पाक सेना के पर कतर दिए हैं और वह उनके वश में है। इसी दौरान उन्होंने बांग्लादेश में पश्चिमी पाकिस्तान के 90,000 कैदियों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। इन कैदियों ने कुछ साल भारतीय नजरबंदी शिविरों में गुजारे और फिर पाकिस्तान लौट आए। भुट्टो ने उस दौर के अधिकतर सेना प्रमुखों को या तो दरकिनार कर दिया या बरखास्त कर दिया। इतना ही नहीं उन्होंने किसानों की गैर-सैन्य अराइन जाति के एक जालंधरी को सेना प्रमुख के रूप में नियुक्त किया। उन्होंने जिया उल हक का मजाक उड़ाते  हुए उन्हें अपने इशारों पर नाचने वाला बंदर तक कहा।

लेकिन जिया बहुत चालाक थे। उन्होंने भुट्टों को मुसीबतों में फंसने दिया। भुट्टो ने सत्ता में बने रहने के लिए अगले चुनाव में छेड़छाड़ की और पाकिस्तान में विपक्ष की तरफ भड़काई गई हिंसा बढ़ने लगी, जिसे काबू में करने के लिए पाकिस्तान में एक बार फिर सेना को मैदान में उतरना पड़ा, जिसकी कमान जिया उल हक के हाथ में थी।


जिया उल हक के नेतृत्व में पाकिस्तान का चौथा दशक सबसे खराब वक्त साबित हुआ। 1979 में जिस साल भुट्टो को फांसी दी गई, वह सबसे खराब दौर था। सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर हमला कर कब्जा कर लिया था, शिया मुस्लिम नेताओं ने खोमैनी की अगुवाई में ईरान पर कब्जा कर लिया था, कट्टरपंथियों का मक्का पर कब्जा हो गया था और सऊदी अरब के लोग दहशत में आ गए थे। पूरी दुनिया में इस्लामी कट्टरपंथ तेजी से उभर चुका था और इसका फायदा पाकिस्तानी सेना खूब उठाया, लेकिन पाकिस्तान ।के इससे जबरदस्त नुकसान हुआ। जिया उल हक ने अपने फौजियों को सऊदी अरब भेजा जिन्होंने मक्का को कट्टरपंथियों के चंगुल से छुड़ाया। उधर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई पश्तूनों, ताजिक और उजबेक चरमपंथियों को ट्रेनिंग दे रही थी जिसे सोवियत ने मात दे दी।

जिया उल हक की मौत एक रहस्यमयी विमान दुर्घटना में हो गई। 1988 में हुई इस दुर्घटना में एक अमेरिकी राजदूत भी मारा गया।  भुट्टों की बेटी बेनजीर चुनावों के लिए पाकिस्तान वापस आ गईं और ऐसा लगने लगा कि आखिरकार पाकिस्तान में फिर से असली लोकतंत्र का राज कायम होगा। लेकिन दुर्भाग्य से यही वह समय था जब भारत ने कश्मीर में कुछ गलतियां कीं और पाकिस्तान को वहां एक मौका मिल गया, जिसे विशेषज्ञ एक हल्का-फुल्का युद्ध की संज्ञा देते हैं। इसके चलते 2001 में 4507 लोगों की जान गई।

आईएसआई को काबू करने में बेनजीर भी कमजोर साबित हुईं क्योंकि इस एजेंसी ने पाकिस्तान की विदेश नीति पर कब्जा कर भारत के साथ धोखाधड़ी शुरु कर दी थी। हालांकि वह काफी हद तक सेना के साथ थीं, लेकिन फिर भी उन्हें दो बार सेना ने सत्ता से बेदखल कर दिया। इस तरह एक बार सेना ने अपने चहेते नवाज शरीफ को सत्ता में बिठा दिया, जो एक स्टील कारोबारी थे।

पांचवा दशक सिर्फ नाम के लिए लोकतांत्रिक था जबकि असली सत्ता सेना प्रमुख और चिंताजनक रूप से आईएसआई प्रमुख के हाथ में थी। पाठकों को याद होगा कि यह वह समय था जब भारत लगातार पाकिस्तान से बातचीत करने का आग्रह कर रहा था और पाकिस्तान बातचीत की मेज पर आने से कतरा रहा था। लेकिन आज हमारे यहां स्थितियां इसके एकदम विपरीत हैं।

छठा दशक  जनरल मुशर्रफ का दौर है, जो पाकिस्तान के चौथे तानाशाह थे। उन्होंने आंतकवाद के खिलाफ युद्ध के नाम पर खूब फायदा कमाया था और अपनी भौगोलिक स्थिति के चलते पाकिस्तान को खूब सामरिक लाभ मिला। अय्यूब की अर्थव्यवस्था आधारित और नियंत्रित लोकतांत्रिक व्यवस्था वापस आने लगी थी। और पाकिस्तान की विकास दर 5 फीसदी पर वापस आई, जो आज भी वहीं जमी हुई है।

मुशर्रफ की बेदखली के साथ ही सातवें दशक की शुरुआत हुई जो अब तक तीन चुनाव देख चुकी है जिसमें सेना का प्रत्यक्ष दखल नहीं था। लेकिन सेना अपनी धमक बनाए हुए है अलबत्ता उतना खुलकर वह सामने नहीं आती।

और, अब ऐसा लगता है कि अपने आठवें दशक में पाकिस्तान एक संसदीय लोकतंत्र के तौर पर स्थापित हो चुका है, बिल्कुल उसी तरह जैसे कि बांग्लादेश में है और या फिर हमारे यहां जो व्यवस्था है।

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