बहुलतावाद और समावेशी विचारधारा के साथ भयमुक्त शासन है तीन राज्यों में कांग्रेस की जीत का राजनीतिक संदेश

देश ने हमेशा एक ऐसे नेता का इंतज़ार किया है जो लोगों को भरोसा दिला सके कि वह प्रतिबद्धता पर खरा उतरेगा, हाशिए पर धकेल दिए गए तबके का ध्यान रखेगा, देश के बहुलतावादी और समावेशी विचार पर अमल करेगा और भय से नहीं बल्कि आम सहमति से काम करने वाला होगा।

फोटो : @INCIndia
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ज़फ़र आग़ा

राजनीतिक पंडित तो खारिज कर ही चुके थे, और कार्यकर्ताओं ने भी उम्मीदें छोड़ दी थीं कि आने वाले वक्त में इस पार्टी के पुनर्जीवन की कोई संभावना है। इस सबके बीच कांग्रेस एक विपक्षी दल के तौर पर जिंदा रहने के लिए संघर्ष कर रही थी। लेकिन, कांग्रेस ने राजनीतिक पंडितों और कार्यकर्ताओं, दोनों को अचंभित कर दिया।

केंद्र से सत्ता जाने के पांच वर्ष पूरे होने से पहले ही देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी ने हवा का रुख मोड़ दिया है, देश के दिल में उसका राज हो गया है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अब उसकी सरकारें हैं। इसके अलावा उत्तर भारत के पंजाब और दक्षिण भारत के कर्नाटक में गठबंधन के साथ उसकी सरकार है। इससे पहले वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के घर,गुजरात में ही बीजेपी को शिकस्त के किनारे तक ले आई थी।

और अब, कांग्रेस 2019 के रण के लिए न सिर्फ चाक-चौबंद नजर आती है, बल्कि पहले से कहीं ज्यादा बेहतर जनाधार और स्थिति में चुनौती देने को तैयार है। हालांकि एक बरस पहले तक इसकी संभावना तक पर विश्वास करना मुश्किल नजर आता था।

तीन हिंदी भाषी राज्यों में कांग्रेस की जीत कई मायनों में बेहद अहम है। 1885 में अपनी स्थापना के बाद से कांग्रेस को कभी इस तरह की वैचारिक चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा, जैसी कि मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी-संघ की सत्ता में। प्राचीन काल से भारत एक मध्येवादी और उदार देश रहा है। आधुनिक काल में भी और खास तौर से आज़ादी के बाद से भी भारत का विचार उदारवादी ही रहा है। भले ही भारत ने विभाजन को स्वीकार किया था, लेकिन इसकी आधारशिला धर्म को नहीं बनाया था। भारत कभी भी ‘हिंदू पाकिस्तान’ बनने को आतुर नहीं रहा।

लेकिन, बीते साढ़े चार साल में जानबूझकर ऐसे प्रयत्न किए जा रहे हैं, जिसमें देश को दूसरा पाकिस्तान बनाने की कोशिश नज़र आती है। भारतीय संविधान और संस्थाओं पर न सिर्फ हमले हो रहे हैं, बल्कि उन्हें बेहद कमज़ोर किया जा रहा है। बीजेपी नेता और सरकार के मंत्री कांग्रेस पर इस तरह के हमले कर रहे हैं, जितने आजाद भारत में कभी नहीं हुए। ऐसे में कांग्रेस के प्रति एक बड़ी आबादी का विश्वास जताना बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है।

पिछले लोकसभा चुनाव में अपनी सबसे बुरी हार के बाद कांग्रेस को पीढ़ीगत बदलाव पर विचार करना पड़ा। यूपीए चेयरपर्सन और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पार्टी की कमान युवा हाथों में देना चाहती थीं। लेकिन इस मुद्दे पर पार्टी के वरिष्ठ और पुराने नेता संकोच कर रहे थे। सोनिया गांधी ने इस स्थिति को अच्छे से समझते हुए कुशलता के साथ इसका हल निकाला। लेकिन ये सब करने में उन्हें तीन साल से ज्यादा वक्त लगा। आखिरकार दिसंबर 2017 में कांग्रेस की कमान राहुल गांधी के हाथों में आ गई।

पार्टी की कमान संभालते ही राहुल गांधी को तीन मोर्चों से निपटना पड़ा। सबसे पहले उन्हें देशवासियों को यह समझाना पड़ा कि वे जिस दक्षिणपंथी रास्ते पर बहुत ज्यादा आगे निकल गए हैं, वह बहुत खतरनाक है। जनसभाओं और सार्वजनिक मंचों से राहुल गांधी ने खुलकर आरएसएस की विचारधारा पर हमला किया। देश के सामने छाए वैचारिक संकट के समय में ऐसा होना जरूरी भी था। पूरे विपक्ष में राहुल गांधी अकेले ऐसे नेता थे जो निरंतर संघ पर हमले कर रहे थे, हालांकि इसके लिए उनपर हमले हुए, उनका मज़ाक उड़ाया गया और सोशल मीडिया पर उन्हें बुरी तरह लगातार ट्रॉल किया गया।

दूसरी सबसे बड़ी चुनौती राहुल के सामने थी कि वह पार्टी की कमान संभालने के बाद पार्टी को एकजुट बनाए रखें, क्योंकि विभाजित और संकुचित कांग्रेस तो बीजेपी के लिए वरदान साबित होती। ऐसे खराब समय में उन्होंने कुशलता और परिपक्वता के साथ पार्टी में जान फूंकने का काम किया। राहुल खुद इतने सक्रिय दिखे कि उनके चाहने वाले भी विश्वास नहीं कर पा रहे थे।

तीन राज्यों में कांग्रेस की जीत के बाद आलोचकों को एक बार फिर मौका मिला था कि ‘अब तो कांग्रेस में संकट खड़ा होगा,’ लेकिन राहुल ने सबको गलत साबित करते हुए तीनों राज्यों के मुखिया का चुनाव किया। मुख्यमंत्री चुनने में पार्टी की दो पीढ़ियों से कुशलता के साथ निपटने के साथ वे यह संदेश देने में कामयाब रहे कि वे एक ऐसे नेता जो एकजुटता की मांग ही नहीं करता, बल्कि टीम वर्क को लागू भी कर सकता है। उन्होंने बता दिया कि उनके अंदर वह गुण हैं कि वह एक दूसरे से भिड़े गुटों को एक साथ लाकर सबको साथ लेते हुए महत्वपूर्ण फैसले ले सकते हैं।

तीसरा सबसे बड़ा और कुछ हद तक दुष्कर काम था अगले लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी विरोधी वोटों को अपने पक्ष में समेटना। इस मोर्चे पर राहुल गांधी बेहद सक्रिय रहे। इसके लिए वे कई महीनों से जुटे हुए थे। तीन राज्यों में उनके इस परिश्रण का नतीजा भी मिला। हालांकि कुछ गुंजाईश यहां-वहां बची हुई है, लेकिन राहुल गांधी ने मोटे तौर पर एक गैर बीजेपी मोर्चे की नींव तो डाल ही दी है।

सिर्फ एक साल में ही कांग्रेस पार्टी खेल में वापस आ गई है। और, यह नेता का ही काम है कि वह पार्टी नेताओं को प्रेरित करे और कार्यकर्ताओं के साथ ही समर्थकों का उत्साह बढ़ाए। वह लोग जो ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की आस लगाए बैठे थे, अब उनके मुंह बंद हैं। यूं भी आधुनिक दौर में भारत की ऐतिहासिक सच्चाई यही है कि कांग्रेस और भारत एक दूसरे के लिए बने हैं। जब-जब कांग्रेस ने गलती की है, देश ने उसे सत्ता से बाहर किया है। और कांग्रेस ने भी जनादेश का सम्मान पूरी विनम्रता से स्वीकार किया है, गलतियों को सुधारा है और फिर से वापसी की है।

हर बार देश ने देखा है कि जब-जब कांग्रेस का विकल्प सामने आया है, वह उम्मीदों पर खरा उतरना तो दूर, बेहद खराब ही साबित हुआ है। और, फिर देश को कांग्रेस के पास वापस आना पड़ा है, जैसा कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुआ है। लेकिन देश ने इसके लिए हमेशा एक ऐसे नेता का इंतज़ार किया है जो लोगों को भरोसा दिला सके कि वह अपनी प्रतिबद्धता पर खरा उतरेगा, हाशिए पर धकेल दिए गए तबके का ध्यान रखेगा, देश के बहुलतावादी और समावेशी विचार पर अमल करेगा और भय से नहीं बल्कि आम सहमति से काम करने वाला होगा।

और आज की तारीख में यह सारे संदेश देने में राहुल गांधी कामयाब रहे हैं, वह भी पार्टी की कमान संभालने के एक साल के भीतर ही।

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    Published: 18 Dec 2018, 9:00 PM