आरएसएस मायाजाल रचने में माहिर, सहूलियत के मुताबिक कभी शिकार तो कभी शिकारी बन जाता है

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसा संगठन है जो लगभग सौ साल से चुपचाप पर्दे के पीछे रहकर पूरे देश पर कब्जा करने के अभियान में जुटा है। आज यह देश का सबसे बड़ा गैरसरकारी संगठन है। यह एक ऐसा संगठन है जो मायाजाल रचने में माहिर है।

फोटोः सोशल मीडिया
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सुजाता आनंदन

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसा संगठन है जो लगभग सौ साल से चुपचाप पर्दे के पीछे रहकर पूरे देश पर कब्जा करने के अभियान में जुटा हुआ है। यह बीजेपी की मातृ संस्था है, लेकिन इसके बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है। और हां, किसी भुलावे में न रहें, यह वास्तव में बहुत ही धूर्त संगठन है जो आज न केवल अधिकतर सरकारी और संवैधानिक संस्थानों को नियंत्रित करता है, बल्कि इस देश के जितने भी फलक हैं- सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक- सबमें इसने पैठ बना ली है। यह ऐसा संगठन है जो न केवल मायाजाल रचने में माहिर है बल्कि अपनी सहूलियत के मुताबिक कभी शिकार तो कभी शिकारी तक बन जाता है।

विडंबना है कि संघ आज जिस भी जगह पहुंचा है, उसने कांग्रेस को आदर्श मानकर ही यह सब पाया। हां, उसके लक्ष्य अलग थे, इसलिए वह जिस मंजिल पर पहुंचा, वह भी अलग रही। संघ के संस्थापकों को हमेशा यह बात सालती थी कि सम्राट अशोक के बाद भारत कभी भी एक झंडे के तले एकजुट नहीं रहा। वह टुकड़ों में विभक्त भूभाग रहा। जब भारतीय परिदृश्य में कांग्रेस आई, तब जाकर एक तरह की एकजुटता आई और फिर आजादी ने हमें एक सूत्र में पिरोने में भूमिका निभाई।

एक समय था जब भारत के विभिन्न हिस्सों में बड़े प्रतापी राजा थे। दक्षिण में विजयनगर, मध्य और पश्चिमी में छत्रपति शिवाजी, पूर्व में अहोम और उत्तर में राजपूत राजा। लेकिन ये सभी, आज हमारे जहन में भारत का जो अक्स है, उस पूरे भूभाग पर अपना प्रभाव कायम करने में नाकामयाब रहे। और तो और, इस मामले में मुगल तक विफल ही रहे। उन्होंने पीढ़ियों तक अन्य मुस्लिम शासकों को जीतने की लड़ाइयां लड़ीं और फिर अपने साम्राज्य को एक अखिल भारतीय स्वरूप देने के लिए उन्हें तमाम हिंदू और मुस्लिम शासकों को साथ लेकर चलना पड़ा।

आरएसएस कुछ अनिच्छा के साथ ही सही, यह स्वीकार करता तो है कि कांग्रेस उस अखिल भारतीय चरित्र को हासिल करने में सफल रही, लेकिन इसे अंग्रेजों द्वारा स्थापित संगठन कहकर वह खारिज भी करता है। उसका मानना था कि वक्त के साथ जैसे ही उदार लोकतंत्रऔर मार्क्सवाद जैसी पश्चिमी विचारधारा के प्रति मोह भंग होगा, कांग्रेस का भरभरा-कर गिरना तय है। इसी कारण 70 साल से अधिक समय तक धैर्य बनाए रखते हुए आरएसएस उस मौके का इंतजार करता रहा जब वह आए और व्यवस्था पर कब्जा जमा ले।


ऐसा लगता है कि इस काम को संघ ने बड़े ही प्रभावी तरीके से अंजाम दिया है। उसने सत्ता के तमाम ऐसे अहम ठिकानों जिनसे देश को पूर्ण निष्पक्षता की अपेक्षा थी- राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री कार्यालय, स्पीकर के कक्ष के अलावा सशस्त्र सेनाओं, न्यायपालिका में अपनी विचारधारा के लोगों को तैनात कर दिया है।

आखिर संघ इन जगहों तक पहुंचा कैसे? एक बार फिर, कांग्रेसी संगठनात्मक संरचना का पालन करते हुए। हालांकि इसके साधन और काम करने का तरीका अलग रहा। एक समय था जब सेवा दल, कांग्रेस का लोगों से संपर्क का महत्वपूर्ण साधन हुआ करता था, हालांकि अब यह निष्प्राण हो चुका है। आरएसएस ने अपने कैडर कांग्रेस सेवा दल की तर्ज पर ही तैयार किए।

लेकिन जहां कांग्रेस अपनी स्थापना के दिनों में भी विचारों की बहुलता वाला एक लोकतांत्रिक संगठन था जिसमें हिंदू या मुस्लिम, उदार या रूढ़िवादी, पश्चिमी या पारंपरिक, सभी के लिए जगह थी और इसका नेतृत्व सभी क्षेत्रोंऔर समुदायों से आए लोगों के हाथ में रहा, वहीं, आरएसएस के संस्थापक केशव हेडगेवार थे जिन्होंने कांग्रेस सेवा दल के कार्यकर्ता के रूप में जीवन शुरू किया, लेकिन संगठन और खुद के लिए उनके विचार सर्वथा अलग थे। वह तिलक की विचारधारा के थे और इतिहास इस बात का गवाह है कि उदारवादी पंडित मोतीलाल नेहरू से अगाध मित्रता के बावजूद लोकमान्य तिलक रूढ़ीवादी विचारों के थे और बाल कृष्ण गोखले जैसे अन्य कांग्रेसियों की हिंदू समाज में सुधारों की दलीलों के खिलाफ थे।

तिलक के निधन के बाद बला के रूढ़िवादी हेडगेवार ने कांग्रेस से नाता तोड़कर अपना अलग संगठन, आरएसएस बनाया। हेडगेवार ने खुद को आजीवन सरसंघचालक नियुक्त किया और यह फैसला किया कि वह ऐसे व्यक्ति को संघ की जिम्मेदारी सौंपेंगे जो उन्हीं की तरह सोचता हो ताकि वह संगठन को भारत के सांस्कृतिक एकीककरण की संघ की तय राह पर आगे ले जाए।

फिर, यह सियासी कैसे बन गया? इसका जवाब है महात्मा गांधी की हत्या के कारण। जनवरी, 1948 में संघ के एक कार्यकर्ता नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या कर दी। हालांकि तब संघ ने गोडसे को खुद से अलग बताया और आज भी कहता है कि जब गोडसे ने गांधी की हत्या की, वह संघ का सदस्य नहीं था। गांधी की हत्या के बाद सरकार ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया। तब बड़े संघ नेता बालासाहेब देवरस का मानना था कि बिना राजनीतिक चुनौती के सरकार कभी संघ से प्रतिबंध नहीं हटाएगी।

संघ विचारक दिलीप देवधर के मुताबिक हेडगेवार के चुने हुए उत्तराधिकारी देवरस थे, लेकिन उन्होंने सोचा कि देवरस उस समय अपरिपक्व होने के कारण गलतियां कर सकते हैं, लिहाजा देवरस की जगह गुरु गोलवलकर को चुना गया। शायद वह ठीक थे क्योंकि देवरस आरएसएस से संबद्ध एक राजनीतिक दल बनाने के पक्षधर थे। पहले तो गोलवलकर इसके लिए तैयार नहीं थे, लेकिन बाद में वह इस शर्त पर तैयार हो गए कि देवरस किसी ऐसे व्यक्ति को खोजेंगे जो संघ की विचारधारा के मुताबिक पार्टी चला सके।


श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय उनके चयन थे। लेकिन दोनों की जल्दी मृत्यु हो गई। उसके बाद देवरस ने जनसंघ का दायित्व संभाला। देवधर कहते हैं, कांग्रेस के लिए जब चुनौती खड़ी हुई तो सरकार ने संघ से प्रतिबंध हटा लिया। बाद में जब दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठा तो देवरस ने जनसंघ को भंग कर दिया। फिर लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। दोनों में आडवाणी संघ की पसंद थे, लेकिन वाजपेयी ने गांधीवादी समाजवाद के जरिये आडवाणी को पीछे छोड़ दिया। प्रधानमंत्री बनने के बाद वाजपेयी ने संघ की राह पकड़ने से इनकार कर दिया और उन्होंने नागपुर से दूरी बना ली।

आडवाणी की स्थिति यह थी कि वह न तो संघ के रह सके और न वाजपेयी के। बीजेपी और संघ के बीच हर स्तर पर समन्वय का घोर अभाव रहा। देवधर का कहना है कि 2004 के चुनाव में संघ का साथ न मिलने के कारण बीजेपी चुनाव हार गई। 2009 में आडवाणी ने बिना संघ से पूछे खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया और तभी संघ ने उन्हें साफ कह दिया था कि अगर वह नहीं जीत पाते हैं तो सम्मानपूर्वक सार्वजनिक जीवन से विदा हो जाएंगे। लेकिन आडवाणी ने उस वादे का मान नहीं रखा, बल्कि वह खुद को वाजपेयी के खांचे में फिट करने लगे। देवधर कहते हैं, “गोविंदाचार्य बिल्कुल सही थे जब उन्होंने वाजपेयी को ‘मुखौटा’ कहा”।

बहरहाल, अब मोदी और भागवत जानते हैं कि संघ और बीजेपी के बीच में रेखा कहां खींचनी है। सीमाएं साफ हैं। मोदी सरकार चलाएंगे और भागवत संगठन। बीजेपी समेत 36 संगठनों को चलाने वाले संघ की पैठ आज समाज के हर वर्ग में है। इस तरह वह देश का सबसे बड़ा गैरसरकारी संगठन है। दो बार के प्रतिबंधों के बाद संघ ने ऐसी रणनीति अपनाई है कि आज उसके पास संगठन चलाने के लिए एक इमारत तक नहीं। ऐसे में उसे किसी कृत्य के लिए जवाबदेह कैसे ठहराएं। लेकिन, संघ का ठिकाना हर जगह है। समाज विज्ञानी सुधीर गवहाने कहते हैं, “संघ चाहे जितना भी बढ़े, उसे संविधान के दायरे में ही रहना होगा। उसे भी देश के लोगों के प्रति जवाबदेह रहना होगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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