रूस-यूक्रेन युद्ध से जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे, तापमान वृद्धि पर लगाम लगाने के लिए कई बड़े कदम उठाने की जरूरत

रूस-उक्रेन युद्ध के बीच संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंतोनियो गुतेर्रेस ने कहा है कि इस युद्ध के कारण दुनिया में जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को नियंत्रित करने का अभियान रुक जाएगा।

आग की लपटों और धुएं में घिरे हैं यूक्रेन के शहर
आग की लपटों और धुएं में घिरे हैं यूक्रेन के शहर
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महेन्द्र पांडे

यूक्रेन-रूस युद्ध के बीच जब लगभग सभी बड़े देश रूस से आयातित तेल और प्राकृतिक गैस पर अपनी निर्भरता कम करते जा रहे हैं, इसी बीच में मार्च महीने में भारत में रूस से तेल के आयात में चार-गुना वृद्धि हो गयी है। इसका कारण है, रूस भारत को अंतर्राष्ट्रीय दामों की तुलना में बहुत सस्ते दामों पर तेल दे रहा है। सबसे आश्चर्य तो यह है कि जिस दिन भारत द्वारा रूस से सस्ते दामों में तेल खरीदने का समाचार आया, उसके दो दिनों बाद से देश में पेट्रोल और डीजल के दामों में बेतहाशा वृद्धि होने लगी है और रसोई गैस के दामों में सीधे 50 रुपये प्रति सिलिंडर की वृद्धि की भी घोषणा होने लगी। जाहिर है, मोदी राज में सस्ते तेल को खरीद कर उसे बेतहाशा कीमतों पर बेचने का पुराना फार्मूला फिर से लागू कर दिया गया है। इस फार्मूला पर लगाम केवल सत्ता को हड़पने के लिए ही कुछ दिनों के लिए लगाया जाता है।

रूस-उक्रेन युद्ध के बीच संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंतोनियो गुतेर्रेस ने कहा है कि इस युद्ध के कारण दुनिया में जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को नियंत्रित करने का अभियान रुक जाएगा। उनके अनुसार इस युद्ध के कारण खाद्यान्न और पेट्रोलियम पदार्थों के वैश्विक व्यापार पर गहरा असर पड़ा है। हरेक देश इस असर से निपटने के लिए अल्प-कालीन योजनाओं पर काम कर रहा है, जो जलवायु परिवर्तन को बढाने में सहायक होंगी। हरेक देश इस समय रूस से आयातित प्राकृतिक गैस और तेल की वैकल्पिक व्यवस्था में उलझा हुआ है। इस वैकल्पिक व्यवस्था में जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने में सक्षम नवीनीकृत उर्जा स्त्रोतों के तेजी से विकास की चर्चा कहीं नहीं है, बल्कि अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय देशों का सारा विमर्श गैस और तेल उत्पादक देशों से नए करार करने में है।


यूरोपीय देशों के तेल और गैस की कुल खपत में से 40 प्रतिशत से अधिक रूस से आता है, जर्मनी में तो 60 प्रतिशत से अधिक तेल रूस से ही मंगाया जाता है। इसके बाद भी उक्रेन पर रूस के हमले के बाद यूरोपीय देशों ने ऐलान किया कि इस वर्ष के अंत तक रूस से तेल और गैस आयात में दो-तिहाई की कटौती कर देंगे। पर, किसी भी यूरोपीय देश ने यह नहीं कहा है कि उनके यहाँ नवीनीकृत उर्जा स्रोतों में तेजी से बढ़ोत्तरी की जायेगी। दूसरी तरह यूरोपीय देश क़तर से प्राकृतिक गैस और सऊदी अरब से तेल खरीदने के समझौते कर रहे हैं।

अनेक यूरोपीय देश कोयले के चलने वाले बिजलीघर, जिन्हें बंद कर दिया गया था, फिर से चलाने की योजनायें तैयार कर रहे हैं। अमेरिका भी पेट्रोलियम पदार्थों के आयात के लिए अपने शत्रु देशों, ईरान और वेनेज़ुएला से बात कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा है कि युद्ध के कारण उर्जा संकट एक ऐसा मौका था, जब देशों को अपेक्षाकृत स्वच्छ उर्जा स्रोतों पर ध्यान देने की जरूरत थी, पर दुनिया ने यह मौक़ा गवां दिया और अब हम इस शताब्दी के अंत तक तापमान बृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लक्ष्य से और भी दूर हो गये हैं।

मेनचेस्टर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर केविन एंडरसन ने पेट्रोलियम पदार्थों और प्राकृतिक गैस के उत्पादक 88 देशों में इन पदार्थों के उत्पादन का अर्थव्यवस्था में योगदान पर विस्तृत अध्ययन किया है। इस अध्ययन के अनुसार अमीर देश वर्ष 2034 तक और गरीब देश वर्ष 2050 तक पेट्रोलियम पदार्थों का उत्पादन बंद कर दें तो इससे उनकी अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रभाव नहीं पड़ेगा और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने की संभावना 50 प्रतिशत तक बढ़ जायेगी। प्रोफेसर केविन एंडरसन के अनुसार तेल और गैस उत्पादक देशों के ऐसा करने की संभावना कम ही है क्योंकि अधिकतर देश जलवायु परिवर्तन नियंत्रित करने के दावे तो करते हैं, पर जमीनी स्तर पर कुछ भी नहीं करते। इन्टरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार दुनियाभर के देशों द्वारा जीवाश्म इंधन पर निर्भरता कम करने के आश्वासनों के बाद भी वर्ष 2021 में 2020 की तुलना में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में 6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी है।


प्रोफेसर केविन एंडरसन के अनुसार अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, नॉर्वे और यूनाइटेड अरब अमीरात जैसे पेट्रोलियम उत्पादक सबसे अमीर 19 देश यदि पेट्रोलियम पदार्थों से होने वाली आमदनी को अपनी अर्थव्यवस्था से बाहर कर दें, तब भी इन देशों में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 50,000 डॉलर से अधिक रहेगा। दुनिया के कुल पेट्रोलियम उत्पादन में इन देशों का योगदान 35 प्रतिशत है। इन देशों को वर्ष 2030 तक पेट्रोलियम उत्पादन में 74 प्रतिशत की कमी लानी चाहिए और वर्ष 2034 तक उत्पादन शून्य कर देना चाहिए। अमेरिका में सकल घरेलू उत्पाद का 8 प्रतिशत हिस्सा पेट्रोलियम पदार्थों की देन है। यदि पेट्रोलियम पदार्थों को अर्थव्यवस्था से पूरी तरह हटा भी दिया जाए तब भी अमेरिका में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 60,000 डॉलर से अधिक रहेगा।

साउथ अफ्रीका, कुवैत, कजाखस्तान जैसे 14 अमीर देशों का कुल तेल उत्पादन में योगदान 30 प्रतिशत है और इन देशों का तेल के बिना भी प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 28,000 डॉलर से अधिक है। इन देशों को पेट्रोलियम पदार्थों के उत्पादन में वर्ष 2030 तक 43 प्रतिशत कटौती करनी चाहिए और वर्ष 2039 तक उत्पादन पूरी तरह बंद कर देना चाहिए। चीन, ब्राज़ील और मेक्सिको जैसे 11 मध्यम आय वाले देशों का योगदान तेल उत्पादन में 11 प्रतिशत है, इन देशों को उत्पादन वर्ष 2043 तक पूरी तरह रोक देना चाहिए और वर्ष 2030 तक 28 प्रतिशत कटौती करनी चाहिए। इन देशों का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद पेट्रोलियम पदार्थों के बिना भी 17,000 डॉलर से अधिक है।


इंडोनेशिया, भारत, ईरान और ईजिप्ट जैसे 19 गरीब देशों का योगदान तेल उत्पादन में 13 प्रतिशत है, इन देशों को उत्पादन वर्ष 2045 तक पूरी तरह रोक देना चाहिए और वर्ष 2030 तक 18 प्रतिशत कटौती करनी चाहिए। इन देशों का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद पेट्रोलियम पदार्थों के बिना भी 10,000 डॉलर से अधिक है। इराक, लीबिया, अंगोला और साउथ सूडान जैसे 25 बहुत गरीब देशों का योगदान तेल उत्पादन में 11 प्रतिशत है, इन देशों को उत्पादन वर्ष 2050 तक पूरी तरह रोक देना चाहिए और वर्ष 2030 तक 14 प्रतिशत कटौती करनी चाहिए। इन देशों का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद पेट्रोलियम पदार्थों के बिना भी 3,600 डॉलर से अधिक है।

प्रोफेसर केविन एंडरसन के अनुसार यदि सभी पेट्रोलियम उत्पादक देश ऐसी कटौती करते हैं तब उनके अर्थव्यवस्था पर कोई विशेष दबाव भी नहीं पड़ेगा और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने की संभावनाएं 50 प्रतिशत तक बढ़ जायेंगी। इस अध्ययन की सराहना दुनियाभर के वैज्ञानिकों ने की है क्योंकि इसके अनुसार पेट्रोलियम पदार्थों के उत्पादन को बंद करने की समय सीमा देशों की अर्थव्यवस्था के आधार पर तय की गयी है।

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