वक्त-बेवक्त: दिल्ली सरकार के सलाहकारों को हटाने के फैसले का सारे राजनीतिक दलों को करना चाहिए था विरोध

केंद्र सरकार के इस क़दम का विरोध करने के लिए आम आदमी पार्टी का समर्थक होना ज़रूरी नहीं है और न दिल्ली सरकार का प्रशंसक होना। इसके लिए आपका जनतंत्र समर्थक होना भर काफ़ी है।

फोटो: सोशल मीडिया
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अपूर्वानंद

दिल्ली सरकार के दस सलाहकारों को उनके पद से हटाने के फैसले का सारे राजनीतिक दलों को विरोध करना चाहिए था। लेकिन ऐसा न करके वे इसे दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार पर हमला बोलने के एक और मौक़े के तौर पर देख रहे हैं। केंद्र सरकार के गृह विभाग ने क़ानूनी और तकनीकी नुक़्ते निकालकर यह कहा है कि सारे सलाहकार ऐसे पदों पर थे जो केंद्र सरकार के द्वारा स्वीकृत न थे, इसलिए उनकी नियुक्ति ग़ैरक़ानूनी मानी जाएगी।

केंद्र सरकार के इस क़दम का विरोध करने के लिए आम आदमी पार्टी का समर्थक होना ज़रूरी नहीं है और न दिल्ली सरकार का प्रशंसक होना। इसके लिए आपका जनतंत्र समर्थक होना भर काफ़ी है और इस सिद्धांत में यक़ीन करना कि भारत में संघीय व्यवस्था का सम्मान भारत को एक रखने के लिए अनिवार्य है। केंद्र मालिक नहीं है और राज्य, वे छोटे हों या बड़े, उसके मातहत नहीं हैं। राज्यों की अपनी सत्ता है और उनकी स्वायत्तता का स्रोत जनता द्वारा राज्यों के शासन के लिए अलग से सरकार का चुना जाना है। वरना राज्यों में केंद्र के प्रशासनिक विभाग होते और उनके सचिव उन्हें चला रहे होते।

दिल्ली सरकार को न चलने देने के लिए केंद्र सरकार किसी भी हद तक जा सकती है, यह तो पिछले तीन साल में पिछले लेफ़्टिनेंट गवर्नर और आज के लेफ़्टिनेंट गवर्नर ने बार-बार साबित किया है। दिल्ली के स्कूलों में अस्थायी तौर पर पढ़ा रहे शिक्षकों को नियमित करने के सरकार के निर्णय को उनके द्वारा रद्द करना सबसे ताज़ा निर्णयों में से एक है। यह एक रोज़ाना की प्रतीक्षा है या ख़बर कि केंद्र सरकार दिल्ली सरकार के किस निर्णय को रद्द करती है या उसके अधिकारी उसके किस फ़ैसले को मानने से इंकार करते हैं।

कौन सरकार किस विधि से काम करेगी और काम करने के लिए जिनकी मदद लेगी, यह तय करना उसका अधिकार है। हां, यह संविधान के दायरे में रह कर किया जाना चाहिए। मसलन, जैसी ख़बर मिलती है कि आज केंद्र सरकार के महत्त्वपूर्ण विभागों के निर्णय एक विशेष संगठन के प्रतिनिधि जांचते हैं। यह अनौपचारिक तौर पर किया जाता रहा है। इसलिए यह सब अफ़वाह बन कर ही लोगों तक पहुंचता है और एक शक पैदा होता है जिससे सरकार की साख पर असर पड़ता है। इससे अलग तरीक़ा है जिसमें आप बाक़ायदा घोषित करके अपने सहयोगी या सलाहकार चुनते हैं। इससे पारदर्शिता आती है और निर्णयों में उनकी भागीदारी के कारण उनपर जिम्मेदारी भी तय की जा सकती है।

दिल्ली सरकार ने अपने सलाहकार नियुक्त किए थे। मुमकिन है, नियुक्ति की प्रक्रिया में कोई तकनीकी ख़ामी रह गई हो। अगर केंद्र का रवैया सहयोग का होता तो वह कह सकता था कि इस तकनीकी कमी को दूर करके नियुक्ति को नियमित कर लिया जाए। लेकिन यह तभी हो सकता था जब उसका इरादा राज्य सरकार के काम में मदद करने का होता। जब उसने तय ही कर रखा है कि हर क़दम पर रोड़ा अटकाना है और सरकार को चलने नहीं देना है तो वह ऐसा क्यों करने लगी!

जब भी केंद्र सरकार ऐसा करती है तो वह अरविंद केजरीवाल को जितना नीचा दिखाती है उससे कहीं ज़्यादा वह दिल्ली की जनता का अपमान करती है। आख़िर इस जनता ने आम आदमी पार्टी को दिल्ली की सरकार के लिए चुना।

दिल्ली की जनता ने यह जो हिमाक़त की, इसके लिए भारतीय जनता पार्टी के केंद्र सरकार ने उसे माफ़ नहीं किया। अगर आपको विधानसभा चुनाव का प्रचार याद हो तो प्रधानमंत्री की धमकी जो अपनी सभाओं में उन्होंने बार-बार दी, आप भूले न होंगे, उन्होंने दिल्ली की जनता को कहा कि वह ऐसे लोगों को चुने जो उनके डर से काम करेंगे। लेकिन दिल्ली के ग़रीब लोगों ने डर वाली इस धमकी को नज़रंदाज कर दिया। इसका बदला उससे इस तरह लिया जाता रहा है कि उसकी चुनी सरकार को अपने तरीक़े से काम न करने देने की हर तिकड़म का सहारा लिया जा रहा है।

आम आदमी पार्टी इस कर्म का विरोध करने के लिए सलाहकारों में से एक अतिशी मरलेना के असाधारण शैक्षिक रिकार्ड का हवाला दे रही है, यह कि वे ऑक्सफर्ड की पढ़ी हैं, और विलक्षण बौद्धिक हैं। इस तर्क की ज़रूरत नहीं है। वे अगर मेरठ से भी उत्तीर्ण होतीं, तो भी उन्हें अपनी सलाहकार नियुक्त करने का हक़ दिल्ली सरकार को था। हमें जनतांत्रिक अधिकार की वकालत के लिए ग़ैर-जनतांत्रिक तर्क इस्तेमाल नहीं करने चाहिए। वैसे ही जैसे आप सरकार के एक विरोधी नेता ने एक सलाहकार के बारे में यह कहा है कि वह स्नातक भी नहीं है और उन्हें डेढ़ लाख रुपए दिए जा रहे थे। यह भी एक ग़लत तर्क है।

राज्यों पर क़ब्ज़ा करने की केंद्र की महत्वाकांक्षा का शिकार पुड्डुचेरी की कांग्रेस सरकार भी हो रही है। उसकी स्थिति तकनीकी रूप से ठीक दिल्ली जैसी है। इसलिए दिल्ली सरकार के अधिकार की वकालत सिर्फ़ उसके लिए नहीं है।

सवाल और समय भारतीय जनतंत्र के मूल चरित्र को नष्ट होने से बचाने का है। आज केंद्र सरकार संविधान की आड़ में ही यह सब कर रही है। इसलिए क़ानून के शब्दों के साथ उनकी आत्मा की रक्षा का प्रश्न है।

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