आकार पटेल का लेख: सीएए के विरोध पर पूरी दुनिया 2020 में हमें जिस तरह देख रही है, तो उसमें गलत क्या है !

उत्तर प्रदेश में सीएए विरोध के दौरान हुई हिंसा में मारे गए 16 लोगों में से 14 की मौत गोली लगने से हुई, लेकिन प्रधानमंत्री कहते हैं कि हिंसा प्रदर्शनकारियों ने की। ऐसे में अगर पूरी दुनिया हमें नाराजगी और गुस्से से देख रही है तो इसमें गलत क्या है?

फोटो : Getty Images
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आकार पटेल

हमारे देश के बारे में 2020 में दुनिया क्या कह रही है, आइए जानते हैं:

“भारत में हिंसा तेज हुई, पुलिस पर मुसलमानों पर जुल्म का आरोप” (न्यूयॉर्क टाइम्स, 3 जनवरी)। “भारत में दमन तेज हुआ, प्रमुख हस्तियां खामोश” (वाशिंगटन पोस्ट, 4 जनवरी)। “हम सुरक्षित नहीं: भारत के मुसलमानों ने सुनाई बर्बरता की दास्तां” (गार्डियन, 3 जनवरी) देश की सरकार जिन परंपरागत अखबारों से अच्छी खबरों की उम्मीद करती रही है, उनका मानना है कि भारत में संकट के बादल हैं। फाइनेंशियल टाइम्स ने पूछा है, “भारत दूसरे आपातकाल की तरफ बढ़ रहा है।” मुद्दा यह नहीं है कि हम दुनिया के इस नजरिए से सहमत हों या नहीं, लेकिन मुद्दा यह है कि बहुत से भारतीय, खासतौर से हिंदू इस बात से सहमत नहीं होंगे कि देश में हालात खराब हैं या सरकार नागरिकों को परेशान करने के लिए कुछ कर रही है।

मुद्दा दरअसल यह है कि दुनिया हमें इस समय किस नजर से देख रही है। सवाल है कि आखिर दुनिया हमें ऐसे क्यों देख रही है। सच्चाई यह है कि तथ्य हमारे खिलाफ हैं। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ देशव्यापी विरोध की अगुवाई अगर मुस्लिम कर रहे हैं तो इसका कारण है। इस कानून का निशाना मुस्लिम ही हैं और वे यह बात अच्छी तरह समझ चुके हैं।

चलिए अब उन तथ्यों को देखते हैं जिन पर विवाद नहीं है।

सबसे पहले असम में एनारसी की प्रक्रिया शुरु हुई जिसमें वेरिफिकेशन अफसरों ने मतदाता सूची से लोगों के नाम काटना शुरु किए और उन्हें ‘डी-वोटर’ यानी संदिग्ध मतदाता का नाम दिया। एक बार डी-वोटर में नाम आने के बाद चुनावों में ऐसे लोगों का मतदान का अधिकार खत्म हो जाता है। इन लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल करने की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं थी और मामले की सुनवाई के दौरान गुवाहाटी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने बहुत सख्त टिप्पणी करते हुए ‘बाहरी आक्रामकता’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया।

दूसरी बात, 3 अगस्त, 2019 को पीटीआई ने खबर दी, “सरकार राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) तैयार करेगी जो देशव्यापी एनआरसी का आधार बनेगा।” रिपोर्ट में कहा गया कि, “नागरिकता (रजिस्ट्रेशन ऑफ सिटीजंस एंड इश्यू ऑफ नेशनल आइडेंटिटी कार्ड्स) नियम 2003 के नियम 3 के उपनियम (4) के संदर्भ में केंद्र सरकार ने निर्णय लिया है कि जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को अपडेट किया जाए...इसके लिए असम को छोड़कर देश भर में घर-घर जाकर 1 अप्रैल, 2020 से 30 सितंबर 2020 के दौरान ऐसे सभी लोगों की जानकारी हासिल की जाएगी जो किसी भी स्थानीय रजिस्ट्रार के क्षेत्राधिकार में सामान्यत: रहते हैं। इस बारे में रजिस्ट्रार जनरल विवेक जोशी द्वारा अधिसूचना जारी कर दी गई है।”


रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 20 जून को संसद के संयुक्त अधिवेशन में कहा था कि सरकार ने नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस यानी एनआसी प्राथमिकता के आधार पर लागू करने का फैसला किया है। लेकिन जब प्रधानमंत्री मोदी यह कहते हैं कि एनआरसी के बारे में कोई चर्चा नहीं हुई तो या तो वे झूठ बोल रहे हैं या फिर वे कुछ ज्यादा ही भोले हैं।

तीसरी बात, 26 मार्च, 2018 को आरबीआई ने फेमा 21(आर)/2018-आरबी नंबर से एक अधिसूचना जारी की। इसमें कहा गया कि, “अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान के अल्पसंख्यक, जिनमें हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शामिल हैं, अगर वे भारत में दीर्घ वीजा (लंबी अवधि का वीजा) पर रह रहे हैं तो उन्हें अपने रहने के लिए सिर्फ एक अचल संपत्ति खरीद सकते हैं, और स्वरोजगार के लिए सिर्फ एक चल संपत्ति खरीद सकते हैं।”

सवाल है कि आखिर आरबीआई को कैसे पता चला कि कौन व्यक्ति किस धर्म का है? तो क्या हमें बैंक खाता खोलने के लिए भी अपने धर्म के बारे में बताना होगा? उस समय इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया कि सरकार ने आखिर ऐसा क्यों सोचा। जब यह बात सामने आई तो पिछले सप्ताह केंद्रीय गृह सचिव ने एक ट्वीट कर दिया। इसमें कहा गया, “भारतीय नागरिकों को अपना धर्म बताने की जरूरत नहीं है।” लेकिन दिक्कत यह है कि कौन तय करेगा कि कौन भारत का नागरिक है और कौन आप्रवासी?

यह सारे तथ्य मुसलमानों के दिमाग में एक दम स्पष्ट हैं। उन्हें लगता है कि, मौजूदा सरकार अंदर ही अंदर मुसलमानों को बाहर निकालने की प्रक्रिया पर काम कर रही है। सबसे पहले कुछ अधिकारी संदिग्ध लोगों के नाम मतदाता सूची से बाहर निकालेंगे और इसके बाद ऐसे लोगों को दूसरे अधिकारियों के सामने साबित करना होगा कि वे संदिग्ध नहीं है। इस प्रक्रिया के बीच में अंतरिम तौर पर क्या होगा? डी-वोटर बनाए जाने के बाद, उनका पासपोर्ट और ड्राइविंग लाइसेंस अवैध हो जाएगा, संपत्ति पर उनका हक खत्म हो जाएगा, क्योंकि आरबीआई के सर्कुलर के मुताबिक सिर्फ गैर मुस्लिम ही संपत्ति खरीद सकते हैं, बैंक खाता खोलने का उनका अधिकार खत्म हो जाएगा और उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा।

और, सरकार को इनके लिए अलग से निगरानी केंद्र या कुछ लोग जिसे प्रताड़ना केंद्र भी कह रहे हैं, बनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इस प्रक्रिया के बाद मुसलमानों की हालत जैसी होगी, वह अच्छी तरह समझ में आती है। जो लोग इस प्रक्रिया से बच भी जाएंगे, उनके मन में भी यह भय रहेगा कि पता नहीं कब उनका नंबर आ जाए।


इन तथ्यों को जानने के बाद साफ समझ में आता है कि आखिर नागरिकता कानून के विरोध में मुस्लिम बढ़चढ़कर हिस्सा क्यों ले रहे हैं। वे प्रधानमंत्री या गृहमंत्री के शब्दों से संतुष्ट नहीं हैं, तो उनका कसूर नहीं है। दरअसल इस मामले में मैं उनके साथ हूं।

ध्यान रहे कि उत्तर प्रदेश में सीएए विरोध के दौरान हुई हिंसा में मारे गए 16 लोगों में से 14 की मौत गोली लगने से हुई, लेकिन प्रधानमंत्री कहते हैं कि हिंसा प्रदर्शनकारियों ने की। ऐसे में अगर पूरी दुनिया हमें नाराजगी और गुस्से से देख रही है तो इसमें गलत क्या है?

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