आकार पटेल का लेख: नवाज तो हट गए इमरान खान के रास्ते से, लेकिन वे खुद कब तक चलेंगे ‘इंतज़ामिया’ की राह पर !

इमरान खान अगर जीतते हैं, तो वे भी उसी रास्ते पर चलते नजर आएंगे, जिस पर आज तक बाकी पाकिस्तान के नेता चलते रहे हैं। आज यह बात कहना थोड़ा अटपटा लग सकता है, लेकिन नवाज़ शरीफ भी बिल्कुल इसी हैसियत में थे जिसमें आज इमरान खान हैं।

फोटो : सोशल मीडिया
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आकार पटेल

पाकिस्तान को अपने नए मसीहा का इंतज़ार है। और उनका नाम है अपने जमाने के तेज गेंदबाज़ इमरान खान, जिनका इस महीने होने वाले चुनाव के बाद प्रधानमंत्री बनना तय माना जा रहा है। इमरान खान पाकिस्तान सेना और वहां की दब्बू और सहमी हुई नौकरशाही की पसंद हैं। पाकिस्तानी मीडिया इसी को इंतजामिया कहता है। और इस सब पर आखिरी मुहर कश्मीरी मूल के लोकप्रिय पंजाबी नेता नवाज शरीफ की गिरफ्तारी और उन्हें जेल भेजे जाने के बाद लग गई।

इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीके इंसाफ का असली ताकत खैबर पख्तुनख्वा और पंजाब के कुछ इलाकों में है। पंजाब के इन्हीं इलाकों में नवाज शरीफ की पार्टी भी मजबूत है। नवाज शरीफ के कमजोर हुए बिना इमरान खान का कामयाब होना लगभग नामुमकिन था। शायद इसीलिए उन्हें पनामा पेपर लीक से निकले भ्रष्टाचार के मामले में सजा सुना दी गई। हालांकि कुछ लोग इस पूरे मामले को ज्यादती भी मानते हैं। शरीफ के रास्ते से हटने के बाद इमरान खान के लिए राह हमवार हो गई है।

सवाल है कि आखिर इमरान खान ‘इंतज़ामिया’ की पहली पसंद कैसे बन गए? इसका जवाब भी आसान ही है। इमरान खान ने पाकिस्तान की दुर्दशा पर आज तक जो भी कहा है, उसमें वे सेना को कभी जिम्मेदार नहीं बताते। इमरान खान की नजर में पाकिस्तान के राजनीतिक दलों और पूर्व के नेताओं का भ्रष्टाचार, अमेरिका का जरूरत से ज्यादा दखल और उसकी जंगें वह वजहें हैं जिन्होंने पाकिस्तान को गर्त में पहुंचा दिया है। एक और खास बात जो इमरान खान में है, वह यह कि उन्होंने मजहब को अच्छे से अपना लिया है और वे आधुनिक देश में इस्लाम की भूमिका या उसके दखल के विरोधी नहीं है। उनकी इसी सोच ने उन्हें ‘इंतज़ामिया’ की पसंद बना दिया। और अगर वे चुनाव जीतते हैं, तो पाकिस्तान में एक आदर्श सरकार बनेगी।

लेकिन, बदकिस्मती से यह गलतफहमी है। इमरान खान अगर जीतते हैं, तो वे भी उसी रास्ते पर चलते नजर आएंगे, जिस पर आजतक बाकी पाकिस्तान के नेता चलते रहे हैं, क्योंकि वह भी उसी ढर्रे के का हिस्सा है, जिसे कभी पहचाना ही नहीं गया। आज यह बात कहना थोड़ा अटपटा लग सकता है, लेकिन नवाज़ शरीफ भी बिल्कुल इसी हैसियत में थे जिसमें आज इमरान खान हैं। 1980 के दशक में जनरल जियाउल हक ने खुद उन्हें देश के अगले राजनीतिक नेता के तौर पर चुनाव था। जियाउल हक की मौत और बेनजीर के बनवास से वापसी के बाद, सेना ने शरीफ को बेनजीर भुट्टो की उदारवादी सोच के खिलाफ इस्तेमाल किया। नतीजा यह हुआ कि त्रिशंकु संसद सामने आई।

बेनजीर को भी एहसास हो गया था कि वे सेना के आशीर्वाद के बिना सरकार में नहीं रह सकतीं, इसीलिए वे कश्मीर में जिहाद के सेना के इरादों के सामने झुक गईं। उनकी इस कमजोरी से नियंत्रण रेखा के दोनों तरफ दुखों के अलावा और कुछ हासिल नहीं हुआ। फिर भी, बेनजीर आजाद विचारों से और समय रहते पाकिस्तान को सामान्य हालात की तरफ ले जाने की कोशिश करती रहीं, लेकिन उनकी ये कोशिशें पाकिस्तानी सेना को रास नहीं आईँ। पाकिस्तान की बदकिस्मती कि बेनजीर को इस सब की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।

नवाज शरीफ को भी समय रहते इस सबका एहसास हो गया था। वह ऐसे नेता बन गए थे, जो सेना के साथ कदमताल करने को तैयार था, लेकिन एक खामी थी, वह यह कि वे भारत के साथ रिश्ते सामान्य करने की भी कोशिशें कर रहे थे। इससे पाकिस्तानी सेना का रुतबा कम हो जाता और सेना ने इसका विरोध भी किया। लेकिन, भारत के साथ रिश्तों को सामान्य किए बिना, यानी लश्कर-ए-तैयबा और दूसरे हथियारबंद गुटों की बदमाशियों पर नकेल कसे बिना, पाकिस्तान को आधुनिक देश बनाने का कोई रास्ता नहीं था।

पाकिस्तान के कथित तेज-तर्रार नेताओं को इसका एहसास तभी होता है जब वे सत्ता में आ जाते हैं और पूरी दुनिया उनके लिए दरवाजे बंद कर लेती है। जनरल मुशर्रफ ने भी इसी रास्ते को अपनाते हुए करगिल का तानाबाना बुना था (इसे दक्षिण एशिया के विद्धान स्टीफन कोहेन रणनीतिक विजय और सामरिक भूल करार देते हैं) और आखिरी दिनों में भारत के साथ शांति की कोशिशें की थीं।

80 के दशक से पहले तक पाकिस्तान के पास जुल्फिकार अली भुट्टो नाम का मसीहा था। भुट्टो ने एक युवा मंत्री रहते हुए राष्ट्रपति जनरल अय्यूब को भारत के साथ जंग के लिए उकसाया था। बाद में उन्होंने खुद ही ताशकंद शांति समझौते के बाद अपने संरक्षक की पीठ में यह कहते हुए छुरा घोंपा था कि अय्यूब ने पाकिस्तान के साथ गद्दारी की।

इस बयान से वे ‘इंतज़ामिया’ की आंखों का तारा बन गए और सत्ता पर आसीन हो गए। सत्ता में रहते हुए बदलाव की उनकी कोशिशों की उन्हें मंहगी कीमत चुकानी पड़ी और कुछ साल बाद ही सेना ने उन्हें फांसी पर लटका दिया। पाकिस्तान में तब से यही चक्र चल रहा है। सेना के भारत विरोधी रुख को अपनाकर नेता सत्ता में आते हैं। सत्ता में आने के बाद मसीहा को एहसास होता है कि देश को बदलने के लिए उनके हाथ में जो कुछ भी है वह न सिर्फ नाकाफी है, बल्कि उस काम के लिए है ही नहीं जो वह करना चाहते हैं। अधिक टकराव और ज्यादा आक्रामक रुख किसी भी ऐसे देश के लिए फायदेमंद नहीं साबित हो सकता जिसकी बुनियादी समस्या गरीबी और शासन के बुनियादी सिद्धांतों पर अमल करना हो।

तो फिर किसी देश को जंग जैसे हालात से उबारने और अपनी महत्वाकांक्षाओं में नर्म होने के लिए और क्या चाहिए। भारत के साथ रिश्ते बेहतर करना होंगे, और धर्म से मोह कम करना होगा। जरूरत व्यवहारिकता है, न कि करिश्मे की, और इसके लिए शूरवीर बनने के बजाए थोड़ा झुकना होगा। हालात का यही बोध होता है जिसे समझते ही नेताओं और सेना के बीच ठन जाती है। अय्यूब और मुशर्रफ को भी इसका अनुभव हुआ, बेनजीर भुट्टो, उनके पिता जुल्फिकार अली भुट्टो और नवाज शरीफ को भी यही भुगतना पड़ा। और समय के साथ इमरान खान भी यह सबक सीख ही लेंगे।

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