नोटबंदी से डिजिटल बना इंडिया? जवाब है नहीं

नोटबंदी के तीन बहाने, कालाधन, भ्रष्टाचार और आतंकवाद पर नाकाम होते देख सरकार के वजीरों और अफसरों ने कथ्यसार बदला और कहा कि यह तो कैशलेस अर्थव्यवस्था और डिजिटल लेनदेन के लिए उठाया गया कदम है

फोटो : Getty Images
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तसलीम खान

नोटबंदी पर रिजर्व बैंक की सालाना रिपोर्ट आने के बाद जैसे ही देश को पता चला कि 500 और 1000 रुपए की शक्ल में सारा का सारा नकद पैसा बैंकों में वापस पहुंच गया, तो नोटबंदी को लेकर सरकार की मंशा पर लानतों का दौर शुरु हो गया। चौतरफ खिंचाई और खुद को घिरता देख वित्त मंत्री अरुण जेटली स्वंय मोर्चे पर आए और ऐलान किया कि नोटबंदी का लक्ष्य देश को कैशलेस और डिजिटल अर्थव्यवस्था की तरफ ले जाना था, और वह मकसद पूरा हुआ है।

नोटबंदी पर सरकार की पोल खुलने के बाद वित्त मंत्री के इस बयान से आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि यह वह कथ्यसार है जो नोटबंदी के बाद आम लोगों, गरीबों, किसानों और मजदूरों को हो रही दिक्कतों को देखते हुए सरकार ने अपनाया था। कालेधन, भ्रष्टाचार और आतंकवाद पर नकेल के नाम पर शुरु हुयी नोटबंदी से मचे हाहाकार से जब देश चीत्कार कर उठा, तो मोदी सरकार के भी हाथ पांव फूल गए थे, और बिना समय गंवाए सरकार के सिपहसालारों और वजीरों ने आनन-फानन एक किस्सा गढ़ लिया कि नोटबंदी का असली मकसद तो देश में नकद लेनदेन को खत्म कर कैशलेस अर्थव्यवस्था बनाना है।

यूं भी इलेक्ट्रानिक पेमेंट मुहैया कराने वाली कंपनियों ने बड़े अखबारों के मुख्य पन्ने पर बड़े बड़े विज्ञापन छापकर जिस तरह प्रधानमंत्री का धन्यवाद अदा किया था, उससे दाल में कुछ काला होने की चर्चा शुरु भी हुयी थी।

प्रधानमंत्री ने नोटबंदी के बाद 50 दिन का वक्त मांगा था हालात सामान्य करने के लिए, लेकिन नोटबंदी के 8 महीने के बाद भी देश के कई हिस्सों में नकद की दिक्कत बरकरार है।

जो नया कथ्यसार गढ़ा गया था वो यह था कि नोटबंदी का फैसला डिजिटल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना है। कहानी में इस नए ट्विस्ट के साथ ही देश में डिजिटल लेनदेन को बढ़ावा देने वाले विज्ञापनों की सुनामी सी आ गयी थी। लोगों को इस तरफ आकर्षित करने के लिए डिजीधन मेले लगाए गए, लकी ड्रॉ निकाले गए। अधिकारियों और मंत्रियों ने बड़े-बड़े दावे किए कि देश नकद अर्थव्यवस्था से डिजिटल अर्थव्यवस्था में छलांग लगा चुका है और सर्कुलेशन में जितना भी पैसा है वह पर्याप्त है।

नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने तो यहां तक कह दिया था कि, “2020 तक एटीएम, क्रेडिट कार्ड और स्वाइपिंग मशीनें बेकार हो जाएंगी, क्योंकि आने वाले दिनों में हर भारतीय सिर्फ अंगुठे की छाप से सेकेंडों में लेनदेन कर लेगा।” प्रधानमंत्री ने भी मार्च महीने की मन की बात में लोगों से कहा कि खुलकर डिजिटल लेनदेन करें जिससे एक साल का लक्ष्य आधे साल में ही पूरा हो जाए।

तो क्या डिजिटल हो गया इंडिया? नकद अर्थव्यवस्था से डिजिटल अर्थव्यवस्था की तरफ कूच कर गए हम? चलो थोड़ा रियलिटी चेक कर लेते हैं। रिजर्व बैंक और भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम यानी एनपीसीआई के उसी डाटा को छानते-फटकते हैं जो आसानी से उपलब्ध है।

सबसे पहले बात करते हैं सरकार की तरफ से जारी एक सियासी भुगतान एप से। इसका नाम भीम रखा गया था। 30 दिसंबर 2016 को दिल्ली के एक स्टेडियम में डिजिधन मेले में प्रधानमंत्री ने भीम लांच किया था। भीम का पूरा नाम भारत इंटरफेस फॉर मनी है। इसे कुछ लोगों ने उत्तर प्रदेश के चुनाव से जोड़कर भी देखा था। भीम एप जुड़ा है यूपीआई यानी यूनीफाइड पेमेंट इंटरफेस से। एनपीसीआई के डाटा से पता लगता है कि यूपीआई से होने वाले लेनदेन में अक्टूबर 2016 के मुकाबले काफी उछाल आया। ये उछाल करीब 56 गुना था। इस तरह भीम ऐप से होने वाले लेनदेन में जनवरी 2017 से मई 2017 के बीच करीब ढाई गुना उछाल आया। इन आंकड़ों से ये आभास होता है कि हम डिजिटल दिशा में छलांग लगा चुके हैं। लेकिन पिक्चर अभी बाकी है। आरबीआई के डाटा के मुताबिक अप्रैल 2017 में एटीएम से 2171 अरब रुपए निकाले गए, इसमें बैंकों से दूसरे तरीके से निकाला गया पैसा शामिल नहीं है। लेकिन यूपीआई के जरिए निकाला गया पैसा सिर्फ 22.41 अरब रुपए था। यानी यूपीआई आधारित सिस्टम से सिर्फ एक फीसदी, सही सुना आपने, सिर्फ एक फीसदी पैसा ही निकाला गया।

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अब एक और आंकड़ा देखिए। 5-6 अगस्त तक करीब 1.96 करोड़ लोगों ने भीम ऐप डाउनलोड किया। लेकिन देश में स्मार्टफोन इस्तेमाल करने वालों की तादाद 30 करोड़ है। यानी सिर्फ करीब 6.5 फीसदी लोगों ने ही इस ऐप का स्वागत किया। और अगर देश की सवा सौ करोड़ की आबादी के अनुपात में ये संख्या देखें तो ये दो फीसदी भी नहीं होता है। यह भी गौर करने वाला तथ्य है कि भीम ऐप को डाउनलोड करने वाले कुल लोगों में से सिर्फ एक फीसदी लोग ही इस ऐप से रोजाना लेनदेन कर रहे हैं।



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अब बात करते हैं कार्ड पेमेंट की। पैसे के लेनदेन के इस तरीके में नोटबंदी के बाद भारी उछाल आया, क्योंकि नकद पैसा न होने के कारण लोगों ने छोटे-छोटे भुगतान के लिए भी कार्ड (डेबिट और क्रेडिट कार्ड दोनों) का इस्तेमाल किया। लेकिन यहां भी ध्यान देने की बात यह है कि कुल रिटेल भुगतान का महज 5 फीसदी ही कार्ड के जरिए भुगतान किया गया। आरबीआई के आंकड़ों के मुताबिक कार्ड से कुल 7421 अरब रुपए का भुगतान किया गया जबकि कुल भुगतान 1,39,611 अरब रुपए के हुए। यानी कार्ड से भुगतान 5 फीसदी से कुछ ऊपर ही था।

इस तरह अगर हम देखें तो नोटबंदी ने डिजिटल लेनदेन की दिशा में कोई खास उत्साह नहीं देखा गया। इससे कहीं अधिक उछाल तो नोटबंदी से पहले के वर्षों में देखने को मिला था। आंकड़ों पर गौर किया जाए तो सामने आता है कि 2011-12 से 2012-13 के बीच करीब 53 फीसदी और 2012-13 से 2013-14 के बीच करीब 49 फीसदी उछाल डिजिटल लेनदेने में आया था।

अब एक और तथ्य की तरफ आपको ले चलते हैं। वह है एटीएम से पैसा निकालने की लोगों की आदत। नवंबर 2016 में जब नोटबंदी के ऐलान के बाद एटीएम खाली हो गए थे तो लोगों ने कुल 850 अरब रुपए एटीएम से निकाले थे। लेकिन मार्च 2017 आते आते लोगों ने एटीएम से 2171 अरब रुपए एटीएम से निकाले। नोटबंदी से पहले दो महीनों में एटीएम से निकाले गए पैसे को देखें तो सिंतबर 2016 में 2223 अरब रुपए और अक्टूबर 2016 में 2551 अरब रुपए एटीएम से निकाले गए थे। यानी जैसे ही बाजार में नकद उपलब्ध हुआ लोगों ने लगभग उतने ही पैसे एटीएम से नकद निकाले जितने नोटबंदी से पहले निकालते रहे थे। इसका अर्थ यही हुआ न कि लोग वापस नकद लेनदेन में ही सहूलियत महसूस करने लगे। ये बात अलग है कि अभी भी सर्कुलेशन में करीब बीस फीसदी कम ही नकदी बाजार में है।

अब कुछ और तथ्यों और आंकड़ों की बात करते हैं जिससे डिजिटल लेनदेन की तस्वीर थोड़ी और साफ हो जाएगी।

रिटेल सेक्टर में कुल डिजिटल लेनदेन का करीब 94 फीसदी रिटेल इलेक्ट्रानिक क्लीयरिंग के जरिए हुआ है। जबकि बाकी का कार्ड के जरिए हुआ है। रिटेल क्लीयरिंग में एनईएफटी 86 फीसदी, एनएसीएच 6 फीसदी और आईएमपीएस 3 फीसदी है। जबकि डेबिट और क्रेडिट कार्ड 2-2 फीसदी और पीपीआई एक फीसदी है। यानी यूपीआई में जबरदस्त उछाल के बावजूद इसके जरिए होने वाले लेनदेन की कुल लेनदेन में सिर्फ 4 फीसदी ही हिस्सेदारी है।

इन सारे आंकड़ों से साफ जाहिर है कि डिजिटल लेनदेन पर सरकार के बड़े बड़े दावे महज जुमलेबाजी हैं और कुछ नहीं।

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