सबका साथ, सबका आवास?

दो साल पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ऐलान किया था कि 2022 तक शहर में बसे हर परिवार को रहने के लिए पक्का मकान मिल जाएगा। 2017 के 7 महीने गुजर जाने के बाद भी यह एक दिवास्वप्न नजर आता है।

नोएडा में बनी एक ऊंची इमारत/ फोटो: Getty Images
नोएडा में बनी एक ऊंची इमारत/ फोटो: Getty Images
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दुनू रॉय

दो साल पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ऐलान किया था कि 2022 तक शहर में बसे हर परिवार को रहने के लिए पक्का मकान मिल जाएगा। 7 वर्षों में 2 करोड़ मकान बनाने का लक्ष्य था। 4041 शहरों में से मार्च 2017 तक 100 ‘इच्छुक’ शहरों में काम पूरा हो जाना चाहिए था। गरीबों के मकान के लिए केंद्र सरकार एक से डेढ़ लाख रुपए का अनुदान देने के लिए भी तैयार थी। आज 2017 के 7 महीने गुजर जाने के बाद भी यह एक दिवास्वप्न नजर आता है।

वास्तव में यह सपना पहले भी कई बार सरकार दिखा चुकी है। पहली पंचवर्षीय योजना (1951-1956) में ही यह घोषणा की गई थी कि सभी कमजोर वर्गों को सस्ता घर मिलेगा। हालांकि यह एक सच्चाई है कि उस समय आर्थिक विकास की दर मात्र 3.5 थी, सरकार के पास इतने संसाधन नहीं थे। लेकिन छठी पंचवर्षीय योजना (1980-1985) तक विकास दर बढ़कर 5.5 हो गई थी, तीन दशक में तो संसाधन तैयार हो जाने चाहिए थे। और अब तो दावा है कि दर 7 से भी ज्यादा है।

लेकिन सातवीं योजना (1985-1990) में पता चला कि 25 लाख से बढ़कर 89 लाख परिवारों के पास अपने मकान नहीं है। और तब सरकार ने हाथ खड़े कर दिए और कहा कि यह हमारे बस की बात नहीं हैं, अब घर बनाने का काम निजी क्षेत्र करेगी। यह मान भी लेते हैं कि प्राइवेट कंपनियां सरकार से कई गुना ज्यादा असरदार हैं, चुस्त हैं, तो घरों की कमी की समस्या खत्म होनी चाहिए थी। फिर 3 दशक बाद 2.5 करोड़ घरों की कमी की बात अब क्यों उठ रही हैं?

शायद इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने के लिए शहर और देश के योजनाकारों के दिमाग के अंदर झांकना जरूरी है।1950 में योजना आयोग की स्थापना करते वक्त देश के विकास के बारे में कहा गया था, ‘लोगों के जीवन स्तर को उठाने के लिए और समाज की सेवा में देश के सभी संसाधनों का सदुपयोग होगा, उत्पादन बढ़ाने के लिए सबको रोजगार उपलब्ध कराए जाएंगे।’ और आवास के निर्माण के लिए बाद के दशकों में कई सार्वजनिक संस्थान भी खोले गए।

लेकिन 40 साल की कोशिशों के बाद देश का खजाना खाली हो गया। देश के विकास में मददगार सोवियत रूस बिखर गया, तब विश्व बैंक के कर्ज में डूबी हुई सरकार को मजबूरन विकास के रथ को निजी क्षेत्र के ‘कुशल’ सारथी को सौंप देना पड़ा। इसलिए मकान बनाने वाली कंपनियों को कर्ज देने के लिए राष्ट्रीय आवासीय बैंक की स्थापना हुई। इसके साथ ही आवास का मतलब अब केवल घर नहीं रहा, बल्कि गरीबी उन्मूलन का माध्यम हो गया।

जैसे-जैसे सरकार गरीबों के अन्नदाता की जगह अमीरों का रखवाला बनती गई, वैसे शहर भी रोजगार के केंद्र की जगह ‘विकास का चालक’ बन गया। कहा गया किन शहर में जितनी आर्थिक उन्नति होगी, उतनी ही पूंजी पैदा होगी और फिर वह पैसा धीरे-धीरे गरीबों तक पहुंचेगा। पेंच सिर्फ यह था कि इस उन्नति के लिए जो पैसा चाहिए था वह सरकार के पास नहीं था, इसलिए पूंजीपतियों को शहर में पूंजी निवेश का मौका देना पड़ा।

प्रधानमंत्री आवास योजना इसी समझ के इर्द-गिर्द विकसित हुई। जहां गरीबों की बस्ती है और आसपास के जमीन की कीमत ज्यादा है, वहां प्राइवेट बिल्डर को जमीन नीलाम कर दी जाएगी। जमीन के एक हिस्से पर बिल्डर को गरीबों के लिए बहुमंजिली इमारत में फ्लैट बनाकर देने पड़ेगे, और बाकी हिस्से से वह जितना मर्जी मुनाफा कमा सकेगा। बिल्डर को मुनाफा, सरकार को राहत और गरीबों को सुविधा-संपन्न घर। इससे ज्यादा अच्छी बात क्या हो सकती है?

लेकिन खूबसूरत नर्तकी के पीछे ढोल कोई और ही बजा रहा है। किसी भी शहर में एक फ्लैट की कीमत दस लाख रुपए से कम नहीं होगी। एक लाख का अनुदान अगर मिल भी गया तो किस गरीब परिवार के पास बाकी के 9 लाख देने की क्षमता है? कर्ज मिल गया तो उसका मासिक भुगतान 5,000 रुपए और रखरखाव 1,500-2,000 रुपए से कम नहीं होगा। जिस देश में एक परिवार के लिए शहरी गरीबी रेखा लगभग 7,000 रुपए प्रति माह है, वहां बिल्डर के ऐसे फ्लैट में रहने कौन जा पाएगा?

अखबारों की रिपोर्टों के मुताबिक इस वर्ष के मई महीने तक करीब 19 लाख मकानों को मंजूरी दी जा चुकी है। क्या बचे हुए पांच वर्षों में 1 करोड़ 81 लाख मकानों को मंजूरी देकर उनका निर्माण किया जा सकेगा? इस रफ्तार से 50 लाख से अधिक मकानों को मंजूरी नहीं मिल पाएगी और बमुश्किल ही 50 लाख मकान बन पाएं। फिलहाल यह भी नहीं बताया जा रहा है कि इनको बनाने में कितने बिल्डर शामिल हैं, उन्होंने अपनी कितनी पूंजी डाली है और वे कितने मुनाफे की उम्मीद रखते हैं।

दिल्ली में इस तरह का पहला नमूना कठपुतली कॉलोनी में बनाने की कोशिश 2009 से चल रही है जिसका कड़ा विरोध वहां के बस्तीवासी कर रहे हैं। योजना के अनुसार 3,600 परिवारों में से केवल 2,800 परिवारों को फ्लैट मिलेगा और बिल्डर को लगभग 6 करोड़ रुपए में जमीन मिलेगी, इसमें वह 20 करोड़ रुपए मुनाफा कमा पाएगा। लेकिन आज की दरों के हिसाब से देखा जाए तो न्यूनतम मुनाफा 600 करोड़ रुपए का होगा। अब आप ही समझ सकते हैं कि इस योजना का मकसद क्या है।

निर्माण के हिसाब से देखा जाए तो प्रधानमंत्री आवास योजना की क्षमता 7 लाख फ्लैट प्रति वर्ष से अधिक नहीं होगी। पिछली योजनाओं की उपलब्धियों पर एक नजर डालें तो यह राष्ट्रीय बस्ती विकास योजना और स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना की सफलताओं से 8 से 11 गुना कम है। आंकड़ों के अलावा अहम बात यह है कि प्रधानमंत्री आवास योजना में बना-बनाया फ्लैट मिलेगा, जबकि अन्य दोनों योजनाओं में लाभार्थी खुद अपना घर बनाते थे।

बुनियादी मुद्दा असल में जमीन का है। अगर पूंजीपति को शहर की संरचना में पूंजी डालने के लिए आकर्षित करना है तो उसको अपने मुनाफे का आश्वासन चाहिए। सरकार और शहरी निकायों के पास एक ही गिरवी रखने वाली चीज है और वह है जमीन। और जमीन पर जो शहरी कारीगर बसा है, उसके रोजगार और जीवनशैली के लिए फ्लैट किसी काम का नहीं। इन्हीं दोनों के बीच टकराव है - सरकार कीमती जमीन देना नहीं चाहती, गरीब गगनचुम्बी इमारत में रहना नहीं चाहता।

अगले पांच वर्षों में फ्लैट जरूर बनेंगे, क्योंकि उनके साथ जुड़ी जमीन पर बिल्डरों की नजर है। लेकिन कितने फ्लैट बनेंगे, उनमें से कितने मध्यवर्गीय परिवार खरीदेंगे, कितनों के लिए कमजोर वर्ग के परिवार योग्य पाए जाएंगे, कितने लेकर भी छोड़ देंगे क्योंकि उनके लिए बजट ज्यादा हो जाएगा और कितने खाली रह जाएंगे? इन सवालों का जवाब इतिहास के पन्ने चीख-चीखकर बतला रहे है, लेकिन कोई सुनने वाला भी तो होना चाहिए।

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Published: 16 Aug 2017, 6:10 PM