गौ-रक्षक या हत्यारे

प्राचीन और आज के गौ-रक्षकों में फर्यक ही है कि पहले के रक्षक गाय बचाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा देते थे जबकि आज के गौ-रक्षक दूसरों की जान लेते हैं, इसलिए इन्हें हत्यारे ही कहा जा सकता है।

ट्रकों में ले जाए जा रहे मवेशियों की जांच करते कथित गौ-रक्षक / फोटो : Getty Images
ट्रकों में ले जाए जा रहे मवेशियों की जांच करते कथित गौ-रक्षक / फोटो : Getty Images
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शैल मायाराम

पुराने जमाने में गौ पालक और गौ-रक्षक, जिनमें हिंदू और मुस्लिम दोनों ही होते थे, गायों की रक्षा के लिए उन्हें हमलावरों से बचाने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा देते थे, और इसीलिए उन्हें हीरो जैसा सम्मान मिलता था। लेकिन आज के दौर को कथित गौ-रक्षक इस इतिहास और परंपरा से वाकिफ ही नहीं हैं।

मोहम्मद अखलाक, पहलू खान और रोहित वमूला आज के दौर के शहीद हैं। इन लोगों को शहीद का दर्जा इसलिए दिया जाना चाहिए क्योंकि इन लोगों ने सत्य का सामना करते हुए अपनी जान दी। और यह सत्य था, जातीय और धार्मिक अलगाव की हिंसा का।

मोहम्मद अखलाक और पहलू खान को भीड़ ने ये आरोप लगाकर मार डाला कि इन दोनों ने गौ हत्या की और गौ मांस का सेवन किया। शहीद के तौर पर ये दोनों न सिर्फ न्यायिक व्यवस्था को चुनौती देते हैं बल्कि इतिहास के बहुसंख्यकवादी नव निर्माण को भी चुनौती देते हैं जिसमें हिंदुओं को गौ-रक्षक और मुसलमानों को गौ मांस सेवन करने वालों को तौर पर स्थापित किया जा रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि भारतीय सांस्कृतिक परंपराएं इससे अलग तस्वीर पेश करती हैं जिनके बारे में आज के कथित गौ-रक्षक जानते ही नहीं हैं।

जंतर-मंत्र पर विरोध प्रदर्शन करते पहलू खान के परिजन / फोटो : Getty Images
जंतर-मंत्र पर विरोध प्रदर्शन करते पहलू खान के परिजन / फोटो : Getty Images

पशुओं को लेकर होने वाले संघर्षों का जिक्र ऋग्वेद तक में मिलता है और ये दूसरी शताब्दी तक दिखाई देता है। पश्चिमी भारत के देहाती क्षेत्रों में प्रचलित कथाओं में पशुओं और ऊंटों आदि रक्षकों के शौर्य का गुणगान किया गया है। पशुओं के लिए हमला करने वालों को धरैट या डाकू कहा जाता था। दुर्भाग्य से औपनिवेशिक साम्राज्य ने पशुओं पर हमला करने वालों और अपराध में कोई फर्क ही नहीं समझा और 1871 के आपराधिक जनजाति अधिनियम में पूरे के पूरे समुदायों को अपराधी घोषित कर दिया।

इस अधिनियम से पूरे समुदाय को जो सामाजिक और आर्थिक नुकसान हुआ उसे ब्रिटिश दौर के कानूनों को बदलते समय ही दुरुस्त कर लिया जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इतना ही नहीं इन समुदायों से इस गलती के लिए आजतक किसी ने माफी नहीं मांगी, नतीजतन ये गैर अधिसूचित जनजातियां आज भी अपराधी होने का बोझ ढो रही हैं।

गायों की रक्षा करने वाले शूरवीरों का हिंदू और मुसलमान दोनों ही सम्मान करते थे, और उन्हें देवता या संत समझा जाता था। राजस्थान के पंजपीर, पाबुजी, तेजाजीजी, गोगा/गुगा पीर, जांबा और रमादेव कहलाते थे।

गुगाजी चौहान रि राजस्थानी गाथा (गुगाजी चौहान की राजस्थानी कथा) में गुगा को एक सर्प देवता के (वीर, पीर और गुरु) रूप में हिंदू और मुसलमानों दोनों में ही पूजा जाता है।

गोगा नवमी पर उन्हें एक घुड़सवार देवता के रूप में पूजा जाता है। गुगा के मानने वाले राजस्थान के अलावा गुजरात, हिमाचल और मध्य प्रदेश में भी हैं। इनके मुस्लिम मानने वालों में कायमखानी राजपूत खुद को इसी देवता का वंशज मानते हैं। गुगा को अक्सर झार पीर (जाहिर पीर) भी कहा जाता है। इस्लाम में जाहिर और बातिल (स्पष्ट और छिपा हुआ ) का भेद बताया जाता है।

हेनरी इलियट की मेमॉयर्स ऑफ दि हिस्ट्री, फोल्कलोर एंड डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ रेसेस ऑफ दि नॉर्थ वेस्टर्न प्रॉविंसेस ऑफ इंडिया में भी उल्लेख है कि मराठा भी उन्हें जाहिर पीर ही कहते थे

गोगा चौहान का इतिहास ग्यारहवीं शताब्दी में मिलता है जबकि राठौड़ राजपूत मुखिया पाबुजी का जिक्र चौदहवीं शताब्दी में आता है। फिर भी इनसे जुड़ी कथाओं को लोककथा कहना सही नहीं होगा। राठौड़ राजपूतों के पुजारी दलित नायक होते थे न कि ब्राह्मण। पाबुजी की लोककथाएं भी लोगों तक पहुंचाने का काम दलित नायकों ने ही किया जिन्हें उस दौर में भी अछूत माना जाता था। राजस्थान में पाबु की पूजा रेबाड़ी शिकारी, जाट और राजपूतों के अलावा पंजाब, सिंध, कच्छ, मालवा और सौराष्ट्र में भी इन समुदायों द्वारा की जाती थी।

ये सारी लोककथाएं अंतर-सांप्रदायिक समाजवाद की एक जटिल तस्वीर पेश करती हैं। पाबुजी, पबु और मादा ऊंटों का कारोबार करने वाला एक मुस्लिम मोहर आपस में धर्म भाई या पारंपरिक रिश्तेदार बन जाते थे। जॉन स्मिथ ने इस कहानी के अनुवाद में लिखा है कि पार्वती एक भील महिला का रूप धारण करने के बाद शिव और काले-सफेद भैरव के सामने नृत्य करती है। इसी दृश्य में रामदेव को बुद्ध और कल्कि के संयुक्त रूप में प्रतिष्ठित भी दिखाया जाता है। दलितों के देवता या ढेरों के देव के रूप में रामदेव का चरित्र थोड़ा जटिल नजर आता है। यही देवता इस्माइली मुस्लिम पहचान के साथ रमशा पीर और सिला खान के रूप में नजर आते हैं।

उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी वर्षों की मेवाती कथा में बताया जाता है कि अपनी गायों को चराने लायी एक गरीब गुज्जर महिला की गायों की कैसे दो मेओ भाई घुड़चढ़ी और मेओ खान रक्षा करते हैं। घुड़चढ़ी को लाहौर में एक कमर अली शाह पीर के रूप में मान्यता है।

मुस्लिम मेओ ब्रज की पवित्र भूमि का हिस्सा है जिसे पंद्रहवीं शताब्दी के वैष्णव संत और गौदिया वैष्णव पंथ के महान गुरु चैतन्य के शिष्यों ने आबाद किया था। कथित गौ-रक्षकों के हाथों मारा गया पहलू खान भी उसी मेओ समुदाय का था जो भक्ति और इस्लाम दोनों की परंपराओं को मानता है।

राजपूतों, मुस्लिमों और दलितों के बीच द्रौपदी नामक किताब में राजपूत और अफगान के संबंधों का उल्लेख मिलता है। इतना ही नहीं आल्हा महाकाव्य में भी अफगान-राजपूतों में समानताओं और साझा परंपराओं के बारे में पढ़ने को मिलता है।

खेती, कला, सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था और व्यापारिक लेनदेन और रीति-रिवाजों पर ही यह लोककथाएं आधारित हैं। नागौर और पुष्कर के पशु बाजारों में हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदायों की भागीदारी ये सब साबित भी करती है।

किसी भी सम्मानित योद्धा की नैतिकता महज युद्ध जीतने और दुर्गों का निर्माण करना ही नहीं बल्कि गायों, महिलाओं और अन्य प्रजा की सुरक्षा करना भी है। गायों की रक्षा करने वालों को भोमियों की पदवी दी जाती थी और ये पृथ्वी के रक्षक भी होते थे।

प्राचीन और आज के गौ-रक्षकों में अंतर यही है कि पहले के रक्षक गायों की रक्षा में अपनी जान की बाजी लगा देते थे जबकि आज के स्वंयभू गौ-रक्षक दूसरों की जान लेते हैं, इसलिए इन्हें हत्यारे के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता।

हत्या और आत्म-बलिदान के मूल अंतर को महात्मा गांधी ने 1947 में रेखांकित किया था, “जीवन रूपी वृक्ष को उन शहीदों के रक्त से सींचना चाहिए जिन्होंने अपने विरोधियों की जान लिए या उन्हें कोई नुकसान पहुंचाए बिना अपने प्राण त्यागे। हिंदू धर्म और दूसरे अन्य धर्मों का यही मूल है।”

(लेखक सीएसडीएस में प्रोफेसर हैं)

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Published: 10 Aug 2017, 3:18 PM