बजट 2018: भरोसा खो चुकी सरकार का निराशावादी बजट

मोदी सरकार अपने हर वादे से मुकर चुकी है और गुरुवार को पेश बजट इसी तस्वीर को बयां करता है। इसमें हर तबके के लिए निराशा ही सामने आई है, जिससे जाहिर होता है कि मौजूदा सरकार से लोगों का भरोसा उठ चुका है।

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तसलीम खान

चार साल में पांचवां बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री शायद यह भूल गए कि उनकी सरकार के वादे क्या थे? सबसे पहले उन परिस्थितियों पर नजर डालने की जरूरत है, जिनमें यह बजट पेश किया गया है। यूं तो इसे गांव-देहात का बजट कहा जा रहा है, लेकिन समझना होगा कि किसानों का इस सरकार से विश्वास उठ चुका है, क्योंकि फसलों का न्यूनतम मूल्य देने का वादा भी जुमला ही साबित हुआ है। वहीं रोजगार के मोर्चे पर बुरी तरह पिट चुकी है यह सरकार, ऐसे में युवाओं का इस सरकार से भरोसा उठ गया है।

इसके अलावा यह सरकार बेकाबू महंगाई, जीएसटी को लेकर पसोपेश, नोटबंदी की मार और तेल की हर दिन आसमान छूती कीमतों के चलते शहरी मध्यवर्ग का भरोसा पहले ही खो चुकी है। वहीं, जिस स्वास्थ्य योजना को गाजे-बाजे के साथ पेश किया जा रहा है उससे गरीबों को फायदा बाद में होगा, पहले बीमा कंपनियां माल कमाएंगी। और सबसे बड़ी बात राजकोषीय घाटा इस साल के लक्ष्य को पार कर चुका है तो अगले साल कमी कैसे आएगी इसका रोडमैप नहीं पेश किया गया है। ऐसे में अविश्वास वाली इस सरकार के बजट को झूठे वादों और योजनाओं पर अमल में नाकामी वाला बजट ही कहा जा सकता है।

अगर मोदी सरकार की ही भाषा में बोलें तो यह ‘डेफिसिट’ यानी घाटे वाली सरकार है। फिस्कल डेफिसिट यानी राजकोषीय घाटा, जॉब डेफिसिट यानी नौकरियों का घाटा, ट्रेड डेफिसिट यानी कारोबार में घाटा और गवर्नेंस डेफिसिट यानी शासन में घाटा। इस सारे डेफिसिट यानी घाटे को जोड़ें तो मोदी सरकार ट्रस्ट डेफिसिट यानी भरोसे के घाटे वाली सरकार के तौर पर सामने आई है।

एक और जुमला गढ़ें तो यह सेस सरकार है, यानी अधिभार लगाने वाली सरकार। लोगों पर एक नये सोशल वेलफेयर सेस यानी समाज कल्याण अधिभार का बोझ कस्टम ड्यूटी में जोड़कर लाद दिया गया है। वहीं शिक्षा और स्वास्थ्य के सेस यानी अधिभार को 3 फीसदी से बढ़ाकर 4 फीसदी कर दिया गया। अभी तक के आंकड़े बताते हैं कि यह सरकार स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा पर बहुत ही कंजूसी से खर्च करती रही है, और अब हांफते हुए सेस यानी अधिभार के जरिए संसाधन जुटाने की कोशिश कर रही है।

अगर नई स्वास्थ्य बीमा योजना की बात करें, तो साफ हो जाएगा कि विश्व में अब तक जितनी भी स्वास्थ्य बीमा योजनाएं लाई गई हैं, उनसे गरीबों को फायदा होने के बजाय बीमा कंपनियों को ही ज्यादा फायदा हुआ है। सरकार की पिछली योजना, फसल बीमा योजना की गहराई से पड़ताल करें तो यही सामने आता है कि इससे किसानों को फायदा होने के बजाय बीमा कंपनियों के दिन जरूर बहुर गए।

इस सरकार ने किसानों को नए सिरे से ठगने या और साफ कहें तो मूर्ख बनाने की कोशिश की है। इस बजट से पहले तक सिंचाई, बीमा, उर्वरा स्वास्थ्य कार्ड यानी स्वाइल हेल्थ कार्ड आदि के नाम से शुरू की गई योजनाएं प्रभावी ढंग से अभी तक लागू ही नहीं की जा सकी हैं। ऐसे में क्या किसानों को उनकी उपज का दाम लागत से डेढ़ गुना दिलाने के वादे पर कोई कैसे विश्वास करे। रबी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर वित्त मंत्री के दावों में दम नजर नहीं आता, क्योंकि सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि उन्हें इसका फायदा नहीं मिला। और सीधी सी बात है, कि अगर यह वादा निभाया गया होता तो किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता और पूरा कृषि क्षेत्र संकट में नजर नहीं आता।

अपने हिंदी-अंग्रेजी मिश्रित या कहें कि हिंगलिश और एकलव्यजैसे शब्दों पर अटकती जुबान के भाषण में करीब एक घंटा बोलने के बाद वित्त मंत्री ने रोजगार और नौकरियों की बात की। सर्वविदित है कि किसी भी अर्थव्यवस्था में नई नौकरियों और नए रोजगार का सृजन कितनी बड़ी चुनौती होती है, और अगर इस पर ध्यान न दिया जाए तो समस्या भयावह रूप धारण कर लेती है। लेकिन मोदी सरकार इसे मानने को तैयार नहीं है। इस बजट में कोई भी ऐसा ऐलान नहीं किया गया जिससे निजी निवेश बढ़ने की संभावना हो। और जब तक निजी निवेश नहीं बढ़ेगा नौकरियों की संभावना नगण्य ही रहेगी।

अब बात करें फिस्कल डेफिसिट यानी रोजकोषीय घाटे की तो यह सरकार देश के लोगों से तो झूठे वादे कर ही रही है, खुद अपने से किए वादे भी पूरे नहीं कर पा रही। सरकार ने पिछले बजट में खुद से वादा किया था कि फिस्कल डेफिसिट यानी राजकोषीय घाटा 3.2 फीसदी रहेगा। यह वादा टूट चुका है और बजट भाषण में सरकार ने मान लिया कि यह 3.5 फीसदी रहा। यह आंकड़े देखने में छोटा जरूर लगता है, लेकिन है पूरे साढ़े पांच लाख करोड़ मूल्य का है। यानी देश की अर्थव्यवस्था को इतने पैसों की चपत लगी है, मतलब जितना खर्च कर रही है यह सरकार, उसके मुकाबले उसकी आमदनी कम रही है। अब अगले साल के लिए फिर से इस लक्ष्य को 3.3 फीसदी पर लाने का वादा सरकार ने खुद से किया है। लेकिन न तो निजी निवेश बढ़ाने का कोई उपाय सुझाया गया है और न ही टैक्स बेस बढ़ाने का कोई तरीका। ऐसे में सरकार की जब आमदनी ही नहीं होगी तो कहां से आएगा पैसा और कैसे कम हो जाएगा राजकोषीय घाटे का लक्ष्य?

वैसे सरकार को कच्चे तेल के दामों से जो फायदा हुआ, उसका सही इस्तेमाल किया जा सकता था, लेकिन सरकार ऐसा करने में बुरी तरह नाकाम साबित हुई।

अर्थव्यवस्था की हालत को चमकदार दिखाने के लिए वित्त मंत्री ने निर्यात का एक आंकड़ा पेश किया कि यह 15 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रहा है। लेकिन सच्चाई कुछ अलग है। ऐतिहासिक आंकड़े देखें तो पता चलता है कि 2013-14 में मर्केंडाइज एक्सपोर्ट यानी देश में बने माल को विदेशों में भेजे जाने की विकास दर 4.7 फीसदी थी, जोकि 2014-15 यानी मोदी सरकार के पहले साल में माइनस 1.3 फीसदी हो गई। अगले साल यानी 2015-16 में भी इस क्षेत्र का विकास माइनस में ही रहा और यह माइनल 15 फीसदी पर पहुंच गया। इसके उलट आयात यानी इम्पोर्ट में काफी इजाफा हुआ। यानी हम जितना माल बाहर भेज रहे हैं उससे कहीं ज्यादा बाहर से मंगा रहे हैं। इस नाते ट्रेड डेफिसिट यानी कारोबारी घाटा तीन साल के उच्चतम स्तर को छूता हुआ 15 अरब डॉलर पर पहुंच गया।

यह सरकार रेलवे बजट को अलग से पेश करने की परंपरा को खत्म कर चुकी है, ऐसे में उम्मीद रहती है कि देश के एक सिरे को दूसरे सिरे से जोड़ने वाले इस विभाग पर खास ध्यान दिया जाएगा। लेकिन महज चंद मिनटों में रेलवे का जिक्र कर वित्त मंत्री ने इस महत्वपूर्ण विभाग को निपटा दिया। बीता हुआ साल गवाह रहा है कि कैसे एक के बाद के रेल दुर्घटनाएं हुईं। हालात इतने खराब थे कि सरकार को अपना रेल मंत्री तक बदलना पड़ा। लेकिन रेलवे सुरक्षा के लिए सरकार ने जो प्रावधान किया है, वह यूपीए सरकार के दौर में किए गए प्रावधान का आधा ही है।

कुल मिलाकर इसे एक टैक्सिंग बजट यानी ऐसा बजट कहा जा सकता है, जिसमें आंकड़ेबाजी तो खूब है, लेकिन निकलकर कुछ नहीं आता। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर किसके लिए है यह बजट?

इस बारे में नेशनल हेरल्ड ने लोगों की राय जानी कि इस बजट से किसे फायदा होगा? 76 फीसदी लोगों का मानना है कि इस बजट से कार्पोरेट का फायदा होगा। यानी मोदी सरकार ने जो बजट पेश किया है उससे अगर किसी को फायदा हो सकता है तो वह है बड़े कार्पोरेट, और जिन किसानों की शरण में सरकार गई है, क्या उन्हें भी इस बजट से फायदा होगा, ऐसा मानने वाले सिर्फ 17 फीसदी लोग हैं। वहीं 82 फीसदी लोगों का मानना है कि इस बजट से उन्हें निजी आयकर यानी पर्सनल इनकम टैक्स के मोर्चे पर नुकसान होगा। (पोल के नतीजों के लिए तस्वीरें देखें)

बजट 2018: भरोसा खो चुकी  सरकार का  निराशावादी बजट
नेशनल हेरल्ड द्वारा किए गए ट्विटर सर्वे के नतीजे

पोल के नतीजों से साफ है कि मोदी सरकार पर जो भी मुट्ठी भर लोगों का बचा-खुचा भरोसा बचा है, वह भी खत्म हो रहा है।

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