‘अकबर द ग्रेट नहीं रहे’ एक नाटक नहीं, देश के वर्तमान हालात पर करारा कटाक्ष है

दिल्ली के रंगमंच की दुनिया में इन दिनों नाटक ‘अकबर द ग्रेट नहीं रहे’ की चर्चा है। इस नाटक में दिखाया गया है कि कैसे देश के ‘लुटियन्स स्वर्ग’ में रहने वाली बड़ी-बड़ी हस्तियां इस समय घबराई हुई हैं क्योंकि उन्हें पता नहीं कल उनके साथ क्या होने वाला है।

फोटोः नवजीवन
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नवजीवन डेस्क

जिस रफ्तार से रेलवे स्टेशनों के नाम बदले जा रहे हैं, शहरों के नाम धड़ल्ले से बदले जा रहे हैं, लगता है मौजूदा सरकार जो अपने पांच वर्षों में इतिहास तो नहीं बना पाई, अब अपनी झेंप मिटाने के लिए इतिहास को ही दोबारा लिखने पर आमादा है। हालांकि ऐसा नहीं है की यह दुनिया में पहली बार हो रहा है। जहां-जहां ऐसी सत्ता आई जो अपने प्रतिद्वंद्वी का नामोनिशान मिटाना ही अपना उद्देश्य समझती है, वो ऐसा ही करती है। याद करिए जॉर्ज ओरवेल का ‘एनिमल फार्म’ को।

लेकिन मौजूदा सरकार की इन हरकतों से भारत के इतिहास पुरुष जो स्वर्ग में अभी तक आराम से बैठे थे, जरूर हिल गए हैं। हिलें भी क्यों नहीं। किसी से भारत रत्न वापस लेने की आवाजें उठ रही हैं, तो किसी की जिंदगी भर की मेहनत को नकारा जा रहा है। ऐसे में दिल्ली के रंगमंच पर एक नाटक आया है ‘अकबर द ग्रेट नहीं रहे’ जिसे दिल्ली के प्रबुद्ध दर्शक बार-बार देखने जा रहे हैं क्योंकि यह नाटक आज की परिस्थितियों से उत्पन्न हालात पर करारा कटाक्ष है।

नाटक के निर्देशक सईद आलम ने एक बातचीत में बताया, ‘इस नाटक में हमने बताया है कि कैसे देश के ‘लुटियन्स स्वर्ग’ में रहने वाली बड़ी-बड़ी हस्तियां इस समय घबराई हुई हैं क्योंकि उन्हें पता नहीं कल उनके साथ क्या होने वाला है।

स्वर्ग में रहने वाली प्रमुख हस्तियों में हैं महात्मा गांधी द ग्रेट, सिकंदर द ग्रेट, महाराणा प्रताप द ग्रेट वगैरह जो चैन से अपनी जिंदगी बिता रहे हैं। अचानक एक दिन घोषणा होती है कि सम्राट अकबर को जल्द ही स्वर्ग की अपनी ऐशो आराम की आदत छोड़नी पड़ेगी और उन्हें स्वर्ग से निकाला जा रहा है क्योंकि नई सत्ता ने जब उनकी उपलब्धियों की समीक्षा की, तो पता चला कि उन्होंने अपनी जिंदगी में कोई बड़ा काम किया ही नहीं।

बेचारे घबराए अकबर सबको अपनी कहानी सुनाते हैं, लेकिन कोई मदद नहीं मिलती। फिर अचानक उन्हें टकरा जाते हैं अटल बिहारी वाजपेयी द ग्रेट। इस नाटक कि पूरी धुरी इस मुलाकात के आस-पास घूमती है और दर्शक अपने लोकप्रिय पूर्व प्रधानमंत्री के हर डायलॉग पर तालियां बजा कर दाद देते हैं।

पिएरोट ट्रूप के नाम के थिएटर से 1989 से जुड़े सईद आलम बताते हैं कि नाटक और सिनेमा में बुनियादी फर्क यह होता है कि नाटक जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, उसकी मौलिक कहानी बदलती जाती है जो सिनेमा में संभव नहीं है। कभी-कभी इसके बड़े अच्छे परिणाम निकल आते हैं जैसा कि अटल बिहारी की मुलाकात का आइडिया जो हमें रिहर्सल करते-करते आया।

स्वर्ग से निकलते हुए अकबर जब अचानक अटल बिहारी वाजपेयी से टकराते हैं, तो उनको समझ आता है कि वो एक चक्रव्यूह में फंस चुके हैं। जब वो वाजपेयी को बताते हैं कि वो भारत जाकर अपनी खोई प्रतिष्ठा वापस लाने जा रहे हैं, तो वाजपेयी पूछते हैं कि उनकी क्या प्लानिंग है।

अकबर कहते हैं कि वो भारत जा कर अदालत में केस करेंगे। इस पर वाजपेयी उन्हें याद दिलाते हैं किअभी तक उनके दादा-परदादा के केस का निपटारा तो हुआ नहीं, वो अपना मुकदमा कैसे जीतेंगे। फिर अकबर कहते हैं कि वो चुनाव लड़ेंगे, तो वाजपेयी पूछते हैं कि ईवीएम का नाम सुना है? अकबर कहते हैं कि वो अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए अन्ना हजारे की मदद लेंगे, पर उन्हें बताया जाता है कि अपने पिछले अनुभव के बाद वो दूध का जला भी फूंक-फूंक कर पीने लगे हैं ।

अंत में वाजपेयी अकबर के कान में कुछ ऐसा मंत्र फूंकते हैं किअकबर उछल पड़ते हैं और उनसे पूछते हैं कि आप एक बात बताइए। आप और आप के लोग तो हमेशा हमारा विरोध करते रहे, फिर ये अचानक आप मेरी मदद क्यों करना चाहते हैं। वाजपेयी जवाब देते हैं किआखिर ‘राज धर्म’ भी कोई चीज होती है और हॉल करीब दो मिनट तक तालियों से गूंजता रहता है।

नाटक का पूरा सस्पेन्स ना खत्म करते हुए इतना इशारा काफी होना चाहिए कि अगले सीन में अर्नब गोस्वामी की अदालत में अकबर का मुकदमा चल रहा है। इस नाटक के लेखक मृणाल माथुर के लिए यह एक बड़ी परीक्षा थी क्योंकि20 वर्षों से कॉरपोरेट जगत से जुड़े होने के बाद यह दिल्ली में उनका पहला नाटक था। बात करने पर उन्होंने बताया कि जब उनको इस विषय पर लिखने का विचार आया, उन्होंने सीधा सईद आलम से ही संपर्क किया क्योंकि व्यंग्य और कटाक्ष लिखने में उनसे बढ़िया कोई नहीं मिलेगा।

उन्होंने बताया, “कॉरपोरेट और कला के क्षेत्रमें काम करने में मुख्य फर्क यही है। कोरपोरेट में हर इंसान सिर्फ अपने को प्रोजेक्ट करना चाहता है, पर नाटक की दुनिया में हम एक दूसरे के बिना अधूरे हैं और हमें ये बताने में कोई परहेज नहीं है। यह सईद आलम का बड़प्पन है कि वो स्क्रिप्ट का श्रेय मुझे दे रहे हैं पर यह हम दोनों की मेहनत है जिसे लोग भरपूर पसंद कर रहे हैं।”

मृणाल माथुर ने अब तक 8 नाटक लिखे हैं। इससे पहले मृणाल माथुर के एक नाटक का मंचन ‘पश्मीना’ का मंचन चंडीगढ़ और अमृतसर में हुआ था, लेकिन वह अलग ही विषय था और उसकी अलग ही भाषा शैली थी।

‘अकबर द ग्रेट’ में अर्नब की अदालत में कार्यवाही जो लगभग 15 मिनट तक चलती है, उसके बारे में सिर्फ यह बताना जरूरी है कि इसमें लेखक और निर्देशक ने अपने कलाकारों को पूरी छूट दी थी की वे जो चाहें वह करें और जब यह अदालत खत्म हो जाती है, तो दर्शक अपनी सीट छोड़कर बाहर जाने को तैयार नहीं होते। शायद इसका कारण अर्नब की कंगारू अदालत का वह दृश्य है जिसमें अकबर पर शारीरिक शोषण का आरोप लगाया जाता है। दर्शकों के ठहाकों के बीच समझाया जाता है कि मुकदमा जेएम (जलालुद्दीन मोहम्मद) अकबर पर चल रहा है ना कि एमजे अकबर पर।

अर्नब की अदालत जिसे टीवी डिबेट के रूप में जाना जाता है का पूरा सीन इंग्लिश में है पर दर्शकों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सईद आलम ने अपने थीयेटर ग्रुप के नाटकों में शुरू से ही हिंगलिश (हिंदी और इंग्लिश) को प्रोत्साहित किया जो उनकी शैली की पहचान बन गई है। लेकिन उन्होंने यह भी ध्यान रखा है कि उनके हास्य और कटाक्ष के अद्भुत सम्मिश्रण ने कभी भी सभ्यता की सीमा को तोड़ने की कोशिश नहीं की। यही कारण है कि उनका नाटक ‘मिर्ज़ा गालिब इन न्यू दिल्ली’ के अब तक 450 से अधिक शो हो चुके हैं।

उनके एक नाटक का नाम है ‘बिग बी’ जो मुंशी प्रेमचंद की मशहूर कहानी ‘बड़े भाई साहब’ पर आधारित है। अन्य देखने योग्य नाटक हैं ‘मोहन से महात्मा’, ‘लाल किले का आखिरी मुकदमा’, के एल सहगल, ‘कट कट कट’, ‘सन्स ऑफ बाबर’ आदि जिनमें हिंदी, उर्दू और इंग्लिश का प्रयोग उनकी लोकप्रियता को नए आयाम प्रदान करता है।

(अमिताभ श्रीवास्तव)

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