राजस्थान के जैसलमेर में मंदिर के नीचे पुस्तकालय, धर्म, समाज, विज्ञान और उपन्यास तक 2 लाख किताबों का खजाना

जैसलमेर के श्री भादरिया माता जी मंदिर परिसर का पुस्तकालय बताता है कि अच्छे विचार ठान लिए जाएं, तो उसे अंजाम तक पहुंचाना मुश्किल नहीं है।

अच्छे विचार ठान लिए जाएं, तो उसे अंजाम तक पहुंचाना मुश्किल नहीं
अच्छे विचार ठान लिए जाएं, तो उसे अंजाम तक पहुंचाना मुश्किल नहीं
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नवजीवन डेस्क

राजस्थान के जैसलमेर में श्री भादरिया माता जी मंदिर के प्रवेश द्वार पर गा रहे संगीतकारों की आवाज धीमे-धीमे मद्धम पड़ने लगती है जब हम सीढ़ियों से लगभग 200 साल पुराने भवन के नीचे उतरते होते हैं। अचानक सभी आवाज पूरी तरह खत्म हो जाती है- अब हम जमीन से 20 फीट नीचे हैं। सामने 15,000 वर्ग फीट में फैला पुस्तकालय है। रास्ता संकरा है जहां 2 लाख से अधिक पुस्तकों के लिए 562 कपबोर्ड करीने से सजे हैं। ये थोड़ी जगह छोड़-छोड़कर लगे हुए हैं।

यहां कई किताबों में चमड़े से बाउंड किया हुआ है, वृक्ष की छाल पर लिखी पुरानी पांडुलिपि भी है।  इनमें हिन्दूवाद, इस्लाम, ईसाइयत और अन्य धर्मों के पुराने संस्करणों और पेपरबैक से लेकर कानून और मेडिसिन, दर्शन, भूगोल, इतिहास और कई अन्य विषयों की नई किताबें रोमांचित करती हैं। फिक्शन सेक्शन में क्लासिक और हाल में आए उपन्यास हैं। अधिकांश किताबें हिन्दी में हैं। कुछ अंग्रेजी और संस्कृत में हैं।

पंजाब के धार्मिक विद्वान हरवंश सिंह निर्मल के मन में यहां पुस्तकालय की स्थापना का विचार आया। कहा जाता है कि वह 25 साल तक मंदिर परिसर में एक गुफा में एकांतवास करते रहे थे और मंदिर के नीचे पुस्तकालय की स्थापना का उन्होंने फैसला किया। निर्मल का 2010 में निधन हो गया लेकिन उससे पहले उन्होंने शिक्षा और पशु कल्याण के लिए काफी धनराशि इकट्ठा कर दी। इस मंदिर और पुस्तकालय को चलाने वाले ट्रस्ट- श्री जगदंबा सेवा समिति के सचिव और 40,000 से अधिक गायों के लिए ट्रस्ट की शरणस्थली की देखभाल करने वाले जुगल किशोर कहते हैं कि 'निर्मल, दरअसल, मानवतावादी थे। सभी धर्मों का एक ही संदेश हैः आदमी की चमड़ी अलग हो सकती है, बाल भिन्न हो सकते हैं, अंतस सबका एकसमान है।'

पुस्तकालय निर्माण 1983 में शुरू हुआ और यह 1998 तक तैयार हो गया। उसके बाद किताबों की खोज शुरू हुई। किशोर कहते हैं कि 'वह (निर्मल) इसे ज्ञान का केन्द्र, एक विश्वविद्यालय बनाना चाहते थे। महाराज जी चाहते थे कि लोग इस जगह की देखभाल करें और ज्ञान की खोज के इच्छुक लोग यहां पर आएं।' पुस्तकालय के प्रशासक कहते हैं कि भूमिगत जगह इसलिए चुनी गई ताकि नुकसान कम-से-कम हो और धूल न आए। दरअसल, भारतीय सेना का फायरिंग रेंज- पोखरण यहां से 10 किलामीटर दूर है और जब राजस्थान में हवाएं तेज बहती हैं, तो धूल हर जगह छा जाती है।


अशोक कुमार देवपाल पुस्तकालय की देखरेख करने वाली टीम के सदस्य हैं। वह बताते हैं कि छह बड़े-बड़े एग्जॉस्ट पंखे इस जगह को शुष्क बनाए रखते हैं; हवा को साफ रखने के लिए कपूर नियमित तौर पर जलाए जाते हैं। वह कहते हैं कि फफूंद न लगे, इसके लिए बीच-बीच में 'हम किताबों को खुला रखते हैं ताकि उन्हें हवा लगे। हमलोगों में से सात से आठ लोग दो माह से अधिक समय तक यह काम करते हैं।'

70 से अधिक साल के किशोर बताते हैं कि मंदिर के ट्रस्ट के पास 1.25 लाख बीघा (लगभग 20,000 एकड़) जमीन है जो भादरिया ओरण (पवित्र कुंज) है जहां परंपरा से यह नियम लागू है कि 'कोई एक शाखा भी नहीं तोड़ी जा सकती।' एक साल में लगभग 2-3 लाख लोग यहां आते हैं- राजपूत, बिश्नोई और जैन उन समुदायों में हैं जो चार वार्षिक उत्सवों के दौरान यहां आते हैं।

पुस्तकालय के अलावा यहां काफी बड़ी गौशाला है जिसके लिए 150 लोगों का स्टाफ है। गिर, थारपारकर, राठी और नागौरी नस्लों की हजारों गाय और बैल यहां हैं। ट्रस्ट के प्रशासक अशोक सौदानी बताते हैं कि 'ओरण पक्षियों और पशुओं के लिए हैं।' पशु यहां तब लाए जाते हैं जब वे प्रजनन के लायक नहीं रहते। इनमें 90 प्रतिशत नर हैं। सौदानी बताते हैं कि 'हमारे पास गौशाला के लिए 14 ट्यूबवेल हैं और ट्रस्ट चारा पर सालाना करीब 25 करोड़ खर्च करता है' जिनमें '3-4 ट्रक रोज हरियाणा, पंजाब और मध्य प्रदेश से आते हैं।' इसके लिए धन चंदे से आता है।

जब हम ऊपर सूरज की रोशनी में आए, ढोली समुदाय के प्रेम चौहान और लक्ष्मण चौहान तब भी हारमोनियम बजाते हुए देवी श्री भादरिया माता के बारे में गीत गा रहे थे। वही इस मंदिर की देवी हैं।

(ऊर्जा, परी (पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया) में असिस्टेंट एडीटर (वीडियो) हैं। वह परी की सोशल मीडिया टीम के साथ काम करती हैं। प्रीति डेविड परी में कार्यकारी संपादक हैं) 

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