महान संगीतकार नौशाद की पुण्यतिथि: शादी करने के लिए उन्हें बनना पड़ा था दर्जी

40 के दशक में फिल्मों से जुड़े लोगों को मध्यमवर्गीय समाज में बुरी नजर से देखा जाता था। नौशाद को कोई इसलिये अपनी बेटी देने को तैयार नहीं होता था कि लड़का तो फिल्मों में काम करता है।

सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर के साथ संगीतकार नौशाद
सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर के साथ संगीतकार नौशाद
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इकबाल रिजवी

निकाह की तैयारियां हो चुकी थीं। शादी का घर था तो गीत-संगीत का हंगामा भी था। लखनऊ के उस घर में लाउडस्पीकर पर उस समय की सुपर हिट फिल्म रतन का गाना बज रहा था, “अखिया मिला के जिया भरमा के चले नहीं जाना”। दुल्हे के ससुर ने गाने पर प्रतिक्रिया दी कि ऐसे गाने समाज को बरबाद किये दे रहे हैं। जूते मारने चाहिये ऐसे गाने बनाने वालों को। दुल्हा ये सुन कर सेहरे की आड़ में और सिमट कर बैठ गया। उसे डर था कि अगर उसका राज खुल गया तो कयामत हो जाएगी क्योंकी फिल्म रतन का संगीतकार तो वो खुद था। लेकिन निकाह हो ही गया और जिस लड़के को कोई बेटी देने के लिए तैयार नहीं था वो बाकायदा शादी शुदा बन गया।

ये किस्सा है संगीतकार नौशाद की शादी का। चालीस के दशक में फिल्मों से जुड़े लोगों को मध्यमवर्गीय समाज में बुरी नजर से देखा जाता था। नौशाद की शादी की बात जब-जब चलती तो कोई उन्हें इसलिये बेटी देने को तैयार नहीं होता कि लड़का तो फिल्मों में मिरासी का काम करता है। तब नौशाद के पिता वाहिद अली ने कहना शुरू किया कि उनका बेटा मुंबई में दर्जी का काम करता है। और आखिरकार इस दर्जी की शादी हो गयी। जब ससुराल में नौशाद का राज खुला तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तब तक नौशाद दौलत, शोहरत और पुरस्कारों के दम पर बहुत बड़े आदमी बन चुके थे।

नौशाद की महानता को समझने के लिये एक बार उनके संगीतबद्ध कुछ गीतों पर नजर डालनी होगी - जब दिल ही टूट गया (शाहजहां), आवाज दे कहां है और आजा मेरी बरबाद मोहब्बत के सहारे (अनमोल घड़ी), अंखियां मिला के जिया भरमा के चले नहीं जाना (रतन), मन तड़पत हरि दर्शन को आज (बैजू बावरा), ओ दूर के मुसाफिर हमको भी साथ ले ले (उड़न खटोला), गाये जा गीत मिलन के तू अपनी और ये जिन्दगी के मेले दुनिया में कम ना होंगे (मेला), मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोये और प्यार किया तो डरना क्या (मुगल ए आजम), मेरे पैरों में घुंघरू बंधा दे तो फिर मेरी चाल देख ले (संघर्ष), मघुबन में राधिका नाचे रे (कोहिनूर), ढ़ूढो ढंढो रे साजना मोरे कान का बाला (गंगा जमुना), आज की रात मेरे दिल की सलामी लेले (राम और श्याम)। ये सभी गीत भारतीय फिल्म संगीत की धरोहर बन चुके हैं।

ऐसे महान संगीतकार की महानता की कहानी बहुत संघर्षपूर्ण और प्रेरणादायी है।

25 दिसंबर 1919 को लखनऊ में जन्मे नौशाद के पिता को नौशाद की संगीत में दिलचस्पी बिल्कुल पसंद नहीं थी। नौशाद जब स्कूल में पढ़ते थे तभी वाद्ययंत्र उन्हें इतना आकर्षित करते थे कि उन्होंने म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट बेचने वाली एक दुकान पर पार्ट टाइम नौकरी कर ली। रोज वाद्ययंत्रों को साफ करने के बहाने नौशाद उन्हें छूने का सुख प्राप्त कर लेते थे। कभी-कभी दुकानदार की नजर बचा कर वे हरमोनियम और सितार बजाने की कोशिश कर लेते थे। एक दिन दुकानदार ने उन्हें यह करते देख लिया तो वह बहुत खुश हुआ और उसने नौशाद को एक हरमोनियम उपहार में दे दिया। नौशाद उसे लेकर जब घर पहुंचे तो पिता उन पर बरस पड़े। उन्होंने चेतावनी दी कि या तो संगीत चुन लो या फिर परिवार और नौशाद ने संगीत चुन लिया।

नौशाद 1937 में मुंबई आ गए इससे पहले वे लखनऊ में घरवालों से छिप कर अपने समय के कुछ बड़े संगीतकारों से हारमोनियम और सितार बजाना सीख चुके थे। मुंबई में उन्होंने उस्ताद झंडे खां से फिल्म संगीत की बारीकियां सीखीं। वे न्यू थियेटर कंपनी से जुड़े और उस्ताद मुश्ताक हुसैन के आर्केस्ट्रा में पियानो वादक की हैसियत से शामिल हो गए। इसके बाद उन्होंने खेमचंद प्रकाश के सहायक के रूप में काम किया। एक स्वतंत्र संगीतकार के रूप में उनकी पहली रिलीज फिल्म थी प्रेमनगर (1940)। इसके बाद बड़ी कामयाबी के लिये नौशाद को थोड़ा इंतजार करना पड़ा। करीब नौ फिल्मों में संगीत देने के बाद 1944 में जब ‘रतन’ रिलीज हुई तो नौशाद छा गए। 1946 में रिलीज हुई फिल्म ‘अनमोल घड़ी’ के बाद तो नौशाद का नाम बिकने लगा। फिल्में बैनर, डायरेक्टर, हीरो या हिरोइन की जगह नौशाद के नाम पर बिकने लगे। नौशाद ने करीब 65 फिल्मों में संगीत दिया जिनमें तीन फिल्में 100 सप्ताह से ज्यादा, 9 फिल्में 50 सप्ताह से ज्यादा और 26 फिल्में 25 सप्ताह से ज्यादा चलीं।

70 के दशक के बाद नौशाद और उनकी पीढ़ी के संगीतकारों को बदलते समय के मद्देनजर अपने पैर समेट लेने पड़े, लेकिन तब तक नौशाद भारतीय फिल्म संगीत को इतना समृद्ध कर चुके थे कि 1982 में उन्हें सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फालके पुरस्कार से नवाजा गया। बरसों खामोश रहने के बाद संजय खान के अनुराध पर नौशाद ने ‘द ग्रेट मराठा’ सीरियल में यादगार संगीत दिया। इसके बाद फिर एक लंबी खामोशी के बाद 2005 में उन्होंने अकबर खान की फिल्म ‘ताजमहल’ में संगीत दिया। यही उनकी अंतिम फिल्म साबित हुई। 5 मई 2006 को उनका निधन हो गया।

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Published: 05 May 2018, 3:59 PM