‘बाटला हाउस’: झूठ के आसमान में उड़ती ऐसी पतंग, जिसकी डोर इसे उड़ाने वालों ने ही काट दी

बाटला हाउस’ फिल्म 19 सितंबर, 2008 के चर्चित बाटला हाउस एनकाउंटर के कई तथ्यों के साथ छेड़छाड़ कर न सिर्फ इसे सच साबित करती है, बल्कि इस देश के मुसलमानों को लेकर पुरानी स्टीरियोटाइप सोच को भी दोहराती है। फिल्म पूरी तरह से खोखलेपन की स्याही से लिखी गई है।

फोटोः सोशल मीडिया
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अफरोज आलम साहिल

क्या एक सच्ची घटना पर आधारित फिल्म भी इतनी झूठी हो सकती है? ‘बाटला हाउस’ फिल्म को देखते हुए जेहन में पहला ख्याल यही आ रहा था। अगर कोई आपसे पूछे कि मुर्दे भी ‘मुर्दाबाद’ के नारे लगा सकते हैं, तो निस्संदेह आपका जवाब होगा- नहीं। लेकिन फिल्म ‘बाटला हाउस’ इस असंभव को भी संभव कर देती है।

स्वतंत्रता दिवस यानी 15 अगस्त को रिलीज हुई फिल्म बाटला हाउस 19 सितंबर, 2008 के चर्चित बाटला हाउस एनकाउंटर के कई तथ्यों के साथ छेड़छाड़ कर न सिर्फ उसे सच साबित करती है, बल्कि इस देश के मुसलमानों को लेकर पुरानी स्टीरियोटाइप सोच को भी दोहराती है। फिल्म के दृश्यों को देखने के बाद ऐसा लगता है कि शायद इस फिल्म की रिसर्च टीम कभी दिल्ली के बाटला हाउस इलाके में गई ही नहीं।

यह फिल्म बाटला हाउस को स्थापित करने के लिए इलाके में चांद तारे वाले हरे झंडे तो दिखाती ही है, साथ ही लाउडस्पीकर से यह ऐलान भी सुनाया जाता है कि आज शाम 6.40 बजे इफ्तार पार्टी है, आप सब जरूर आइएगा। अब कौन जाकर इस फिल्म के लेखक को बताए कि भाई ऐसा देश के किसी भी इलाके में नहीं होता कि बिजली के खंभों पर हर वक्त लाउडस्पीकर लगा हुआ हो और सुबह-सुबह ही शाम के इफ्तार के लिए ऐलान किया जाए।

चूंकि यह फिल्म पूरी तरह से पुलिस फाइल पर आधारित है, जैसा अदालत को बताया गया है, बिल्कुल उसी दिशा में आगे भी बढ़ती है। यही नहीं, असली एनकाउंटर में पुलिस से जो गलतियां हुई थीं, यह फिल्म उसे छिपाने का भरपूर प्रयास करती है। असली एनकाउंटर में मोहनचंद शर्मा दो पुलिस वालों के सहारे कुछ दूर पैदल चलकर गाड़ी में पहुंचते हैं। लेकिन फिल्म में इतनी सुविधा दी गई है कि उनका रोल निभा रहे के के वर्मा(रवि किशन) के लिए बाटला हाउस के एल-18 के बिल्कुल नीचे ही गाड़ी मंगा ली जाती है।

असली एनकाउंटर वाले दिन इलाके के आम लोगों से अधिक देश भर के विभिन्न मीडिया संस्थानों के लोग मौजूद थे। लेकिन फिल्म में ऐसा नहीं है। उससे भी दिलचस्प यह है कि फिल्म में ज्यादातर मीडिया संस्थान ही एनकाउंटर पर सवाल उठा रहे हैं, जबकि असल में कहानी कुछ और थी। फिल्म यह दिखाने की भी लगातार कोशिश कर रही है कि भीड़ को जुटाने के लिए लाउडस्पीकर से ऐलान किया जा रहा है। लेकिन असल में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था, बल्कि इलाके के समझदार लोग भीड़ को अपने-अपने घर जाने को बोल रहे थे। इलाके के तत्कालीन विधायक परवेज हाशमी बार-बार लोगों से अपील कर रहे थे कि शांति बनाए रखें।


खास बात यह है कि फिल्म अदालत में बहस के दौरान मारे गए दोनों ‘आतंकवादियों’ के पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट की तो बात करती है, लेकिन ‘शहीद’ मोहनचंद शर्मा यानी फिल्म में के के वर्मा की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट पर कोई बात नहीं की जाती। जबकि अदालत में फिल्म निर्देशक का दावा था कि फिल्म में उन्हीं तथ्यों को दिखाया गया है जो पब्लिक डोमेन में मौजूद हैं। यहां बता दें कि इंस्पेक्टर शर्मा की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट भी पब्लिक डोमेन में मौजूद है।

फिल्म में यह दिखाने की कोशिश की जा रही है कि सरकार को इस बात की फिक्र है कि बाटला हाउस एनकाउंटर में पकड़े गए ‘आंतकियों’ पर किसी भी प्रकार की कार्रवाई से सरकार गिर सकती है। मंत्री जी यह कहते हैं कि एक ही कम्युनिटी को टारगेट मत कीजिए। ये सारे दृश्य कहीं न कहीं कांग्रेस पर एक निशाना थे और यह बताने की कोशिश की जा रही थी कि सरकार की मानसिकता के कारण हिंदू आतंकवाद वजूद में आया।

फिल्म एक दृश्य में बाटला हाउस एनकाउंटर की न्यायिक जांच होने की बात करती है, जबकि सच्चाई यह है कि आज तक ऐसा हुआ ही नहीं है। फिल्म शुरू से ही दिलशाद के आतंकी होने का दावा करती है। दोनों फरार लोगों के नाम भी पता हैं। जबकि असल कहानी में ऐसा नहीं है। फिल्म यह दिखाने की कोशिश करती है कि बाटला हाउस की पहली बरसी पर दिलशाद ने कार्यक्रम भी आयोजित किए थे।

वहां अचानक संजय कुमार के पहुंच जाने से वह भागने लगता है, लेकिन वहां की तंग गलियों में दौड़कर संजय कुमार उसे पकड़ लेते हैं, लेकिन एकता पार्टी के लोग उसे गाड़ी में बिठा लिए जाने के बाद भी छुड़ाकर ले जाते हैं। फिर दिलशाद को पकड़ने के लिए जाल बिछाया जाता है। पीलीभीत से दिलशाद नेपाल जाता है और नेपाल सरकार दिल्ली पुलिस की मदद करते हुए दिलशाद को सौंप देती है। दिलशाद की इस गिरफ्तारी को लेकर आंदोलन चलता है। यह पूरी की पूरी कहानी हकीकत से कोसों दूर है।

फिल्म में एनकाउंटर पर होने वाली राजनीति को दिखाने के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी घसीट लिया गया है। जबकि सच्चाई यह है कि अरविंद केजरीवाल उस समय न नेता थे और न उनकी पार्टी बनी थी और न ही एनकाउंटर की पहली बरसी से पहले उनका कोई बयान पब्लिक डोमेन में था।

दिलचस्प यह है कि फिल्म एक सियासी पार्टी एकता दल को खूब तवज्जो दे रही है और यह दिखा रही है कि निजामपुर में इस पार्टी का खूब दबदबा है। एक दृश्य में यह कहा जाता है कि ‘यूपी के सीएम का हम पर दबाव है। हम क्या एंटी माइनॉरिटी हैं…।’ दरअसल, इन तमाम दृश्यों के जरिए यह दिखाने की कोशिश की गई है कि उस वक्त की यूपी की सरकार वोट बैंक की खातिर मुसलमानों का साथ दे रही थी।


दरअसल, फिल्म का यह निजामपुर असल में आजमगढ़ है। फिल्म इस स्टीरियोटाइप को बढ़ावा देती है कि किसी मुस्लिम इलाके से किसी अपराधी को पकड़ना नामुमकिन है। इसीलिए पुलिस दिलशाद को पकड़ने के बाद भी नाकाम साबित होती है। फिल्म सिर्फ मारे गए आदिल अमीन, शारिक और वहां से पकड़े गए तुफैल के अलावा न्यूज चैनल से गिरफ्तार और फरार हुए दिलशाद की ही बात करती है, जबकि हकीकत में गिरफ्तार हुए जियाउर रहमान, उनके पिता अब्दुर रहमान, आतिफ, शकील, साकिब निसार आदि की गिरफ्तारी की कोई बात नहीं करती।

फिल्म में जामिया के नाम को ओखला यूनिवर्सिटी जरूर कर दिया गया है, लेकिन फिल्म इस यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर को बदनाम करने का मौका नहीं छोड़ती है। फिल्म में संजय कुमार (जॉन अब्राहम) वाइस चांसलर को बताते हैं कि “आबिद अमीन, जिसे आप अपना स्टूडेंट बताते हैं, उसकी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की डिग्री नकली है। आपने एडमिशन देते वक्त चैक भी नहीं किया। मैं चाहता तो आप पर केस फाइल कर सकता था।” दिलचस्प यह है कि संजय कुमार की यह बातचीत एक न्यूज चैनल के दफ्तर में होती है। अब सोचने की बात यह है कि न्यूज चैनल के दफ्तर में यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर क्या कर रहे थे। खैर यह फिल्म है और कुछ भी संभव है।

यहां बता दें कि एनकाउंटर में मारा गया आतिफ अमीन जामिया में एमए ह्यूमन राइट्स का छात्र था और उसकी डिग्री फर्जी होने की कोई बात जामिया की तरफ से सामने नहीं आई है। उस समय जामिया के वाइस चांसलर प्रोफेसर मुशीरूल हसन थे, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। यानी अब उनसे कोई यह पूछ भी नहीं सकता कि दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल के संजीव यादव कभी मिले भी थे या नहीं।

फिल्म में प्रस्तुत तथ्यों की बात अगर छोड़ दी जाए और सिर्फ तकनीकी दृष्टिकोण से बात की जाए, तो यकीनन यह फिल्म औसत दर्जे की एक अच्छी फिल्म कही जा सकती है। दो घंटे 21 मिनट की यह फिल्म करीब डेढ़ घंटे से अधिक इनवेस्टिगेशन की ही बात करती है, जिसमें लोग उलझे रहते हैं। आम दर्शकों में यह उत्सुकता बनी रहती है कि आगे क्या होगा? फिल्म की रफ्तार थोड़ी धीमी है और कई जगहों पर जबरदस्ती खींचती हुई दिखती है। कई जगह दर्शकों को बोर भी करती है, लेकिन इस बोरियत को दूर करने के लिए फिल्म में एक आइटम गाना और नोरा फतेही को लाया गया है। नोरा फतेही रशियन लड़की है, जो गैर-कानूनी तरीके से भारत में रह रही है और दिलशाद की गर्लफ्रेंड की भूमिका निभा रही है। फिल्म में जॉन अब्राहम और मृणाल ठाकुर की एक्टिंग शानदार है।


फिल्म की शुरूआत में ही अदालत के आदेश पर यह डिस्क्लेमर दिखाया जाता है कि ‘यह फिल्म दिल्ली पुलिस से इंस्पायर एवं सार्वजनिक क्षेत्र में रिपोर्ट की गई या अन्यथा उपलब्ध जानाकरियों पर आधारित है। यह एक डॉक्यूमेंट्री नहीं है और यह उन घटनाओं को सही ढंग से प्रतिबिंबित करने के लिए नहीं है, जो घटित हुई हैं। फिल्म के कुछ पात्र, संस्थान और घटनाएं काल्पनिक हैं और उनका उपयोग सिनेमाई कारणों से किया गया है। जीवित या मृत किसी भी व्यक्ति के लिए कोई समानता अनायास ही संयोग है…।’

लेकिन सच यह है कि लोग शुरू से ही इस फिल्म को बाटला हाउस एनकाउंटर से जोड़कर देखते रहे हैं। क्योंकि फिल्म के ट्रेलर जारी किए जाने के वक्त से ही दावा किया गया कि यह फिल्म सत्य घटना पर आधारित है। फिल्म में कुछ पात्रों के नाम उनके असल नाम पर ही रखे गए हैं। प्रोटेस्ट की कुछ असली तस्वीरें भी इस्तेमाल की गई हैं। यह फिल्म पूरी तरह से खोखलेपन की स्याही से लिखी गई है। तथ्यों को तोड़ा मरोड़ा गया है। उन्हें एक खास दलगत सोच के पक्ष में फ्रेम किया गया है। उसी तरह से फिल्म के डायलॉग और सीक्वेंस बुने गए हैं। कुल मिलाकर यह फिल्म झूठ के आसमान में उड़ती हुई ऐसी पतंग है जिसकी डोर खुद इसके उड़ाने वालों ने ही काट दी है…।

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