फिल्म समीक्षाः ‘कलंक’ ने साबित किया कि ग्लैमर और चमक किसी उबाऊ फिल्म को नहीं बना सकते दिलचस्प

‘कलंक’ देख लगता है कि संजय लीला भंसाली फिल्म के लुक और रंग के मामले में नए निर्देशकों को प्रभावित करने में कामयाब हुए हैं। कंलक देखते हुए लगता है कि ये फिल्म भंसाली के किसी क्लोन ने बनाई है, जिसमें भव्य सेट्स और कॉस्टयूम हैं, लेकिन उसके सिवा फिल्म में और कुछ नहीं है।

फोटोः सोशल मीडिया
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प्रगति सक्सेना

विभाजन के मुद्दे पर हमारी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री अभी तक ‘बिछड़े भाइयों’ के कथानक से बाहर नहीं निकल पाई है। हालांकि इस फिल्म में बिछड़ा भाई नाजायज औलाद है, बस इतना सा ही फर्क है। ‘कलंक’ देख कर लगता है कि संजय लीला भंसाली कम से कम फिल्म की लुक और उसके कलत टोन के मामले में नए फिल्म निर्देशकों की खेप को प्रभावित करने में तो कामयाब हुए हैं। संक्षेप में कहा जाए तो लगता है कि ये फिल्म संजय लीला भंसाली के किसी क्लोन ने बनाई है, जिसमें भव्य सेट्स और कॉस्टयूम हैं, लेकिन उसके सिवाय फिल्म में और कुछ नहीं है।

पूरी फिल्म का पीरियड भी विभाजन से पहले का नहीं लगता और फिर विभाजन पूर्व तवायफें इतनी अमीर नहीं होती थीं कि पूरे इलाके में इतना विशाल और शानदार त्यौहार मना पाएं। और क्या मजेदार ‘बुल फाइट’ फिल्म में दिखाई गई है। ठीक सात सेकंड बाद ये बेचारा मगर समझदार जानवर खुद ही पिंजड़े में लौट जाता है! हमारे फिल्म निर्माता दर्शकों को इतना बेवकूफ समझते हैं, यकीन नहीं होता।

ये फिल्म निर्देशक अभिषेक वर्मन की दूसरी फिल्म है। उनकी पहली फिल्म ‘टू स्टेट्स’ ठीक ठाक चली थी, मगर ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाई थी। जिन लोगों ने चेतन भगत का ये उपन्यास पढ़ा है वे आज भी इस फिल्म की आलोचना करते मिल जाएंगे। अब उनकी दूसरी फिल्म पहली से कहीं बदतर है।

बहरहाल, थोड़ा बहुत कहानी बताते चलें। फिल्म हुस्नाबाद के एक अमीर हिन्दू परिवार की कहानी है जो मुस्लिम बहुल इलाके में रहता है। घर के सदस्य हैं- एक रौबदार पिता, उसका प्रगतिशील मानसिकता वाला एक बेटा, कैंसर से पीड़ित बेटे की पत्नी और बेटे की दूसरी बीवी जो कुछ दबावों के चलते अपनी मर्जी के खिलाफ उससे शादी करती है।

बेशक फिल्म में देश के विभाजन से पहले का माहौल भी है, जिसे निर्देशक ठीक-ठीक नहीं दिखा पाए हैं। फिल्म में एक अहम किरदार और है- इसी अमीर कारोबारी का नाजायज बेटा जो मन ही मन अपने पिता से बदला लेने की धुन में सुलग रहा है।

फिल्म में एक टिपिकल रौबदार बाप के किरदार में संजय दत्त फिट बैठते हैं। स्क्रीन प्रेजेंस के लिहाज से बेटे के किरदार में आदित्य रॉय कपूर भी प्रभावित करते हैं लेकिन उनकी डायलाग डिलीवरी और आवाज काफी कमजोर है।

जटिल रिश्तों के जो सूक्ष्म आयाम होते हैं, फिल्म उन्हें दर्शाने में नाकामयाब रही है। नाजायज बेटे के किरदार में वरुण धवन गुस्से और बदले की भावना को असरदार तरीके से परदे पर उतार पाए हैं, हालांकि वह अब तक अपनी जबान के मराठी लहजे को खत्म नहीं कर पाए हैं। नतीजतन लाहौर के एक मुसलमान के किरदार में संवाद बोलते हुए बहुत अजीब लगते हैं।

यहां निर्देशक को समझना होगा कि महज सलवार कुर्ता और आंख में सुरमा लगा कर मुसलमान किरदार को पर्दे पर नहीं उतरा जा सकता। एक किरदार को निभाने के लिए उसके तौर तरीके, उसका संस्कार भी अदाकार को समझाना होता है, उसे उस किरदार में ढालना होता है।

फिल्म में एक छोटे से रोल में कुणाल खेमू भी हैं। वह एक अच्छे अदाकार हैं और अपने रोल को बखूबी निभाया भी है लेकिन फिल्म का पूरा परिदृश्य इतना नकली है कि आलिया के अलावा कोई और किरदार कोई असर ही नहीं छोड़ पाता।

माधुरी दीक्षित बेशक एक अच्छी नर्तकी हैं। वह एक अच्छी अदाकारा भी हैं, लेकिन अफसोस, उन्हें अच्छी भूमिकाएं नहीं मिल रही हैं। कलंक में भी वो संजय भंसाली कृत देवदास की पारो के किरदार से बाहर नहीं निकल पाई हैं। आलिया भट्ट और वरुण धवन पहले ही साबित कर चुके हैं कि वे अच्छे अदाकार हैं।

इस फिल्म में भी दोनों के बीच की केमिस्ट्री अच्छी जमी है, लेकिन बदकिस्मती ये है कि एक अच्छी कहानी जिसमें एक सशक्त फिल्म बनने की सारी संभावनाएं थीं, बहुत धीमी, उबाऊ और परदे पर इतने सारे रंग होने के बावजूद बेरंग और भावना विहीन लगती है। ऐसे में अच्छे अभिनेता ज्यादा कुछ नहीं कर सकते और आपको लगातार ये एहसास होता रहता है कि उनकी काबिलियत जाया हो रही है। सिर्फ एक किरदार कुछ देर दिमाग में बना रहता है- वो है आलिया भट्ट का।

फिल्म का संगीत बहुत साधारण सा है और यहां तक कि बैकग्राउंड म्यूजिक तक आपको द्रवित नहीं कर पाता। भारत और पाकिस्तान के लोगों के पास देश के विभाजन पर लिखे हुए साहित्य की एक समृद्ध विरासत है, उसके बरक्स ये फिल्म बेहद मामूली जान पड़ती है। पूरी फिल्म में महज एक संवाद है जो दिल को छू जाता है और देर तक जहन में बना रहता है और हमारे समय में बहुत सटीक जान पड़ता है- “अगर किसी की बर्बादी में तुम्हें अपनी जीत का एहसास हो तो समझ लो कि तुमसे बर्बाद और कोई नहीं।”

अगर सिर्फ इस संवाद के लिए आप ये फिल्म देखना चाहें तो देख सकते हैं, वर्ना वीकएंड पर मनोरंजन के बहुत से अन्य साधन मौजूद हैं ही। अब हमारे कमर्शियल हिंदी फिल्म निर्देशकों को भी इतिहास के किसी अहम दौर पर फिल्म बनाने से पहले कुछ गंभीर रिसर्च कर ही लेना चाहिए। खासकर ऐसे दौर पर जो भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के जनमानस पर बहुत गहरे अंकित है।

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