फिल्म समीक्षा:’पाइरेट्स ऑफ दि केरैबियन’ के जैक स्पैरो की कॉपी लगते हैं सैफ ‘लाल कप्तान’ में

किलों के खंडहर, जंगल, बीहड़, पहाड़ और घाटियों के दृश्य बहुत प्रभावपूर्ण ढंग से एक ऐसे नेतृत्व विहीन पतित और अराजक समाज की पीड़ा को दर्शाते हैं, जो राजनीतिक संघर्ष और हिंसा से बुरी तरह ग्रस्त है। 1857 से पहले का हिंदुस्तान ऐसा ही था।

फोटोः सोशल मीडिया
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प्रगति सक्सेना

वेब सीरीज सेक्रेड गेम्स की सफलता के बाद सैफ अली खान ‘लाल कप्तान’ में एक अनूठे किरदार में दिखाई दिए। लेकिन सबसे अहम बात सबसे पहले कि फिल्म के निर्देशक नवदीप सिंह इस बात के लिए सराहे जाने चाहिए कि शायद आधुनिक हिंदी फिल्मों के इतिहास में ‘लाल कप्तान’ एकमात्र ऐसी फिल्म है, जो आजादी से पहले के हिन्दुस्तान की पृष्ठभूमि पर आधारित है, लेकिन कहीं भी अंध देशभक्ति की बात नहीं करती। फिल्म की कहानी बिल्कुल सरल सी है, पर, काफी कमजोर है। लेकिन निर्देशक का लक्ष्य शायद इससे कहीं ज्यादा गहरे और दार्शनिक संदेश पर फोकस करना था, जिसमें वह सफल हुए हैं।

‘लाल कप्तान’ को बेहद खूबसूरती के साथ शूट किया गया है, लेकिन यह लगातार सेर्गेई लिओने की हॉलीवुड फिल्म ‘लोन रेंजर’ और उसके नायक जॉनी डेप की याद दिलाती है। सैफ अली खान की वेशभूषा और किरदार आपको ‘पाइरेट्स ऑफ द कैरिबियन’ के कैप्टन जैक स्पैरो से बहुत मिलती जुलती लगेगी। लेकिन इस फिल्म की मूल खासियत हैं- इसके विजुअल्स। किलों के खंडहर, जंगल, बीहड़, पहाड़ और घाटियों के दृश्य बहुत प्रभावपूर्ण ढंग से एक ऐसे नेतृत्व विहीन पतित और अराजक समाज की पीड़ा को दर्शाते हैं, जो राजनीतिक संघर्ष और हिंसा से बुरी तरह ग्रस्त है। 1857 से पहले का हिंदुस्तान ऐसा ही था। किसी भी चीज से ज्यादा ये बीहड़ और दुर्गम लैंडस्केप ही अस्त-व्यस्त और निर्मम समाज और व्यवस्था को चित्रित करता है।


फिल्म का निर्देशक हर सूक्ष्म ब्यौरे पर ध्यान देने की कोशिश करता है- संवाद, वेशभूषा, हथियार। लेकिन लाल कप्तान में ये सबसे अहम् फैक्टर ही गायब है- वो है कहानी और नरेशन की गति। फिल्म की चाल बेहद धीमी है, जिसकी वजह से ये किरदारों के चारों तरफ रहस्य का आवरण बुनने में असफल रहती है, जिसकी शुरुआत से आप उम्मीद करते रहते हैं।

हालांकि, सैफ अली खान ‘लाल कप्तान’ के नायक के तौर पर प्रभावित करते हैं, लेकिन कहानी फिल्म के किसी और किरदार पर फोकस ही नहीं करती। नतीजतन, सभी किरदार कहानी में सिर्फ औपचारिकता मात्र लगते हैं। किस तरह एक मुसलमान लड़का नागा साधू बनता है, ये अपने आप में एक बहुत बढ़िया आईडिया है, लेकिन निर्देशक नवदीप सिंह इस आईडिया के इर्द-गिर्द उतनी ही असरदार कहानी बुनने में असफल रहे हैं।

लेकिन फिर भी खास बात ये है कि ‘लाल कप्तान’ उन रिश्तों, जाति और धर्मों के जटिल धागे को पेश करती है जो हमारे समाज के बीच सदियों से कायम है और आज इस जटिल सूत्र का जो भी कुछ शेष है उसी की बदौलत हमारे समाज का अनूठापन जीवंत है। लेकिन अफसोस, फिल्म में ये बात बहुत सरसरी तौर पर प्रतिबिंबित होती है।

फिल्म का पार्श्व संगीत प्रभावपूर्ण और संतुलित है। ना ज्यादा लाउड है, ना ही मद्धम। संगीत फिल्म के माहौल का अभिन्न अंग सा लगता है, नागा साधुओं के जीवन के दर्शन में निहित अनासक्ति के भाव को उभारता हुआ सा प्रतीत होता है।

जैसा कि नवदीप सिंह अपनी पहली फिल्म में सफलतापूर्वक कर पाए थे, ‘लाल कप्तान’ में भी वे एक सघन माहौल को रचने में तो कामयाब हुए हैं- बीहड़ का निर्मम परिदृश्य, मनहूस सी बारिश, अपने गर्भ में ढेरों रहस्य छिपाए शांत बहती नदी- लेकिन दुखद ये है कि फिल्म में बस यही है। सिनेमा हॉल से बाहर निकलते हुए ऐसा लगता है जैसे कुछ कमी रह गयी, कुछ अधूरा रह गया। बहरहाल, फिर भी आप इस फिल्म को प्रभावी विजुअल्स के लिए तो देख ही सकते हैं।

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