फिल्म समीक्षाः ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ बताती है- समलैंगिकता भी सहज और स्वाभाविक है

इससे पहले भी समलैंगिकता पर बॉलीवुड में कई फिल्में बनी हैं, जिन्होंने मुद्दे के गंभीर पहलू को संवेदनशीलता से उकेरा। लेकिन ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ उन फिल्मों में है जो कोमलता के साथ बगैर किसी सामाजिक तार को आहत किये, बताती हैं कि समलैंगिक रिश्ते भी सहज और स्वाभाविक होते हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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प्रगति सक्सेना

संक्षेप में, शुभ मंगल ज्यादा सावधान बहुत दिलचस्प फिल्म है! फिल्म के कलाकार लगभग वही हैं, जिन्होंने ‘बधाई हो!’ में जबरदस्त काम किया था।

आयुष्मान खुराना के बारे में पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है और वो इस फिल्म में भी निराश नहीं करते। दरअसल कैमरे के सामने वो पहले से कहीं अधिक रिलैक्स और कॉनफिडेंट नजर आते हैं। हालांकि, इससे पहले भी समलैंगिकता पर बॉलीवुड में कुछ फिल्में बनी हैं, जिन्होंने इस मुद्दे के गंभीर पहलू को संवेदनशीलता से उठाया है। लेकिन पिछले साल आई ‘इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ और अब ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ ये दो फिल्में ऐसी हैं जो हास्यप्रद रूप से, लेकिन कोमलता के साथ बगैर किसी सामाजिक तार को आहत किये, ये बताती हैं कि समलैंगिक रिश्ते भी सहज और स्वाभाविक होते हैं।

आयुष्मान खुराना ऐसी फिल्मों में काम करने के लिए प्रसिद्ध हैं जो समाज के हाशिये पर खड़े मुद्दों पर ध्यान आकर्षित करती हैं। ऐसे मुद्दे जिनसे अक्सर हम आंखें चुराते हैं। और इन फिल्मों में उनके अभिनय की सराहना भी हुई है। ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ भी ऐसे ही विषय समलैंगिकता को उठाती है। ये फिल्म समलैंगिकता से जुड़े उत्पीड़न, समलैंगिकों के शोषण जैसे गंभीर पहलू को नहीं बल्कि पहले से ही अनेक प्रतिबंधों और वर्जनाओं में जकड़े समाज में, परिवार में समलैंगिकता की स्वीकार्यता जैसे एक वृहद पहलू पर फोकस करती है।

ये कोई बहुत महान और जटिल फिल्म नहीं है, बल्कि इसे एक दिलचस्प और लीक से हट कर फिल्म कहा जा सकता है। एक संवेदनशील मुद्दे को हास्यास्पद और चटख संवादों और सिचुएशंस के जरिये जाहिर करना आयुष्मान खुराना की फिल्मों की (आर्टिकल 15 एक अपवाद समझी जा सकती है) खासियत बन चुकी है। ये फिल्म भी उसी तर्ज पर अपनी छाप छोड़ती है।


लेकिन इस फिल्म की सबसे रोचक बात है इसके सपोर्टिंग कलाकार। जीतेन्द्र कुमार और आयुष्मान खुराना जैसे कुशल अभिनेताओं के साथ मनु ऋषि, सुनीता राजवारे, मानवी गगरू और पंखुरी अवस्थी जैसे मंझे हुए कलाकार फिल्म को दिलचस्प और हास्य से भरपूर बनाते हैं। फिर गजराज राव और नीना गुप्ता जैसे वरिष्ठ और योग्य अभिनेता हों तो कहने ही क्या!

फिल्म में दो चीजें हैं, जो दर्शकों को बांधे रखती हैं। सबसे पहले तो फिल्म के संवाद जो बहुत चतुरता से आज के राजनीतिक परिवेश पर भी सूक्ष्म टिप्पणी करते हैं- जीएसटी, नोटबंदी और सुप्रीम कोर्ट- सब पर चुटकी लेते हुए संवाद फिल्म की रोचकता बनाए रखते हैं।

दूसरी बात है फिल्म के किरदार। नायक के माता-पिता अपनी हिंदी फिल्मों के परंपरागत आदर्श मां-बाप नहीं हैं (मशहूर संवाद ‘मेरे पास मां है’ का भी इस्तेमाल हुआ है)। बल्कि उन्हें एक दंपति की तरह भी दिखाया गया है कि किस तरह दोनों सामाजिक दबाब में आकर अपने-अपने प्यार को छोड़ कर एक दूसरे से शादी करने को बाध्य हो जाते हैं और हालांकि वो अपने बेटे की समलैंगिकता को स्वीकार नहीं करना चाहते, लेकिन वो ये भी नहीं चाहते कि उनका बेटा उनकी तरह एक कसक को झेलते हुए आधी-अधूरी जिंदगी जिए।

तमाम विरोधाभासों और मतभेदों से बोझिल एक संयुक्त परिवार में पैदा होती हस्यास्पद स्थितियों और शोरगुल को देखने का भी अपना मजा है, क्योंकि ये वाकई एक मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार जैसा दीखता है, जहां चुगली है, शिकायतें हैं और ढेर सारी चुहलबाजी भी। चंपा, गॉगल्स और चमन जैसे किरदार कहानी की गति धीमी होने पर भी ध्यान बांधे रखते हैं।

जहां तक संगीत का सवाल है तो पंजाबी पॉप और रीमिक्स से अब हमारा मन भर चुका है। फिल्म निर्देशक और निर्माताओं को ये एहसास होना चाहिए कि कुछ मौलिक संगीत भी बना लें। हमारी फिल्मों की संगीत और गीत संबंधी परंपरा बहुत गौरवशाली और वैभवशाली रही है। फिल्म का स्क्रीनप्ले अच्छा है और कहानी से ज्यादा चटखदार संवाद और किरदारों पर अधिक केंद्रित है क्योंकि कहानी तो जरा सी ही है।

कुल मिलाकर ये एक मजेदार फिल्म है जिसमें आपको मुख्य चरित्र आयुष्मान खुराना और जितेन्द्र कुमार से ज्यादा रोचक और हास्यास्पद अन्य कलाकार लगेंगे।

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