फिल्मी समीक्षाः भारतीय शिक्षा प्रणाली से बोझिल युवाओं की असल तस्वीर पेश करती है ‘वाई चीट इंडिया’

गणतंत्र दिवस के मौके पर देशभक्ति की फिल्मों के सैलाब के बीच आई फिल्म ‘वाई चीट इंडिया’ आज के भारतीय युवा की असल तस्वीर पेश करती है। फिल्म के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि फिल्म सवाल करती है कि भारत से धोखा क्यों?

फोटोः सोशल मीडिया
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प्रगति सक्सेना

भारत की शिक्षा प्रणाली पर कोई सार्थक या गंभीर फिल्म बनाना आसान काम नहीं है। अक्सर हम कमर्शियल हिंदी फिल्मों में एक बढ़िया सा कॉलेज देखते हैं, जहां छात्र लगभग पिकनिक मनाते और रोमांस करते नजर आते हैं। इसलिए शिक्षा व्यवस्था पर केंद्रित फिल्म बनाना ही काबिले तारीफ है और फिल्म के लेखक और निर्देशक ने इस संवेदनशील मुद्दे को बहुत कुशलतापूर्वक फिल्माया है।

पढ़ाने के तरीके पर ‘तारे जमीन पर’ या ‘थ्री इडियट्स’ जैसी सकारात्मक फिल्म बनाना फिर भी आसान है, हालांकि उसमें भी बहुत खामियां हैं। लेकिन मौजूदा शिक्षा व्यवस्था पर एक राय देना देना या उसे सिर्फ पेश करना जरा टेढ़ा काम है, क्योंकि ये व्यवस्था हमारे छात्रों के लिए ‘सर्वाइवल’ और सफलता की गंभीर चुनौतियां पेश करती है। यह इतनी गड्डमड्ड है कि गुणवत्ता और काबिलियत डिग्रियों और काबिलियत के कागजी सबूतों के बोझ तले दब गयी है।

‘वाई चीट इंडिया’ इस मायने में भी एक अच्छी फिल्म है कि यह मौजूदा व्यवस्था पर कोई जजमेंट नहीं देती (कहीं-कहीं तो लगता है कि फिल्म इस व्यवस्था में नकल को जायज ठहरा रही है) बल्कि ये इस व्यवस्था के अलग-अलग आयाम पेश करती है।

सीरियल किसर’ के तौर पर शोहरत हासिल करने वाले इमरान हाशमी को एक गंभीर अभिनेता के तौर पर देखना एक बेहतरीन एहसास है। ये मानना पड़ेगा कि इमरान हाशमी मुझे बतौर अदाकार सख्त नापसंद थे, लेकिन पिछले कुछ सालों में ये नापसंदगी तारीफ में तब्दील हो गयी। वह इसलिए क्योंकि पिछले कुछ सालों में एक अदाकार के तौर पर उनमें काफी निखार आया है और इसकी वजह है पिछले कुछ सालों से वह अपने किरदार का चुनाव काफी सोच-समझ कर करने लगे हैं।

फिल्म ‘वाई चीट इंडिया’ की बात करें तो कुछ सालों से ‘ग्रे’ और बहुआयामी किरदार निभा रहे इमरान हाशमी इस फिल्म में एक नकल करवाने वाले कोचिंग सेंटर के मालिक के तौर पर बेहद असरदार दिखते हैं।

फिल्म के बाकी अहम् किरदारों का भी कैरेक्टराइजेशन प्रभावशाली है। एंटी-हीरो, भ्रष्ट राजनेता, ईमानदार सरकारी मुलाजिम, बेईमान सरकारी अधिकारी, मध्य वर्गीय पिता जो अपने बेटे-बेटियों के प्रति अपना नजरिया उनकी प्रोफेशनल सफलता के मुताबिक बदलते रहते हैं-इन सभी को बहुत सधे हुए तरीके से पेश किया गया है। बिल्कुल असल जिंदगी की तरह जहां ज्यादा बोला नहीं जाता और शब्दों के बीच चुप्पी को कहीं ज्यादा समझा जाता है।

‘लड़का और कुछ नहीं करेगा तो पकौड़े तो बेच ही लेगा’, ‘क्या नेता चुनने का भी एंट्रेंस होता है?’ ऐसे संवाद जाहिर है युवा पीढ़ी में तुरंत लोकप्रिय हो जाएंगे जो पहले से ही आने वाले तमाम एंट्रेंस एक्जाम्स से बोझिल हैं।

पूरी फिल्म का माहौल हमारी युवा पीढ़ी के लिए एक उदासी से भरा है जो द्रवित करती है। फिल्म की इस बात पर आलोचना की जा सकती है कि कहीं न कहीं ये उस व्यक्ति के लिए आपके अंदर सहानुभूति पैदा करती है जो नकल का पूरा नेटवर्क चला रहा है, क्योंकि वह खुद इसी शिक्षा व्यवस्था और सफलता के उन मापदंडों का प्रोडक्ट है, जिन्हें मध्य वर्ग इसी व्यवस्था के जरिये बरसों से पकड़े बैठा है।

फिल्म में ‘अग्नि’ ग्रुप के लीड सिंगर को बरसों बाद सुनना खुशनुमा अनुभव था। फिल्म का गाना ‘आजकल के बच्चे तैयारी कर रहे हैं..’ न सिर्फ मधुर है बल्कि दिल को छू जाता है और देर तक दिमाग में घूमता रहता है।

हालांकि ये फिल्म कोई मास्टर पीस तो नहीं लेकिन दिलचस्प जरूर है और आज के माहौल में जहां व्यापमं जैसे शिक्षा स्कैम का कोई ओर-छोर नहीं मिल पाया, एक साहसिक प्रयास है। फिल्म को जरूर देखा जाना चाहिए, क्योंकि यह आपको पसंद आएगी।

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