अहम मुद्दों पर तो दूर, किसी को पद्म पुरस्कार न मिलने पर भी जैसे सांप सूंघ गया है हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को

अभी हाल में कुछ घंटों के अंदर लता मंगेशकर, अक्षय कुमार, अजय देवगन सरीखी फिल्मी हस्तियों के ट्वीट लगभग एक जैसी पंक्तियों के साथ ट्विटर पर चमकने लगे। यह उदाहरण है कि फिल्म बिरादरी का एक समूह केंद्र और बीजेपी के हर आह्वान पर पहल करने के लिए उत्सुक रहता है।

फोटो : सोशल मीडिया
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अजय ब्रह्मात्मज

हर साल पद्म पुरस्कारों की घोषणा के बाद फिल्म बिरादरी में यह चर्चा आम रहती है कि कौन-कौन छूट गया है या किसको देने में किस वजह से जल्दबाजी हो गई। इस बार चर्चा नहीं हो सकी। सरकार में मौजूद सत्तारूढ़ पार्टियां अपनी पसंद छिपा ही नहीं पातीं। पद्म पुरस्कारों की सूची से वह जाहिर हो जाता है। चूंकि यह पुरस्कार/ सम्मान केंद्रीय गृह मंत्रालय, प्रधानमंत्री कार्यालय और आखिरकार राष्ट्रपति की सहमति के बाद ही जाहिर किया जाता है, इसलिए स्पष्ट रूप से सरकार में मौजूद पार्टी की सहमति और संस्तुति से ही नाम तय होते हैं। हां, इन पुरस्कारों के लिए राज्य सरकारों, केंद्र शासित राज्यों, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल, सांसद और गणमान्य व्यक्ति आदि उम्मीदवारों की सूची पद्म पुरस्कार समिति को भेज सकते हैं। इस समिति की आखिरी संस्तुति पर केंद्रीय गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय की सहमति के बाद राष्ट्रपति की मुहर लगती है।

यह प्रक्रिया जितनी कठिन दिखती है, उतनी है नहीं। लगभग तय रहता है कि किस क्षेत्र के किस व्यक्ति को नवाजा जा सकता है। कुछ सालों पहले यह पुरस्कार मुख्य रूप से विभिन्न क्षेत्रों के मशहूर और गणमान्य व्यक्तियों को ही मिलता था। अब इसकी सीमा बढ़ गई है। जमीनी स्तर पर उल्लेखनीय काम कर रहे चंद व्यक्तियों को भी यह पुरस्कार दिया जा रहा है। उनके कार्य और योगदान की राष्ट्रीय चर्चा हो रही है

2021 के पद्म पुरस्कारों की घोषणा में मुंबई की हिंदी फिल्म बिरादरी से किसी व्यक्ति का नहीं चुना जाना भारत सरकार की उपेक्षा और उदासीनता को व्यक्त करता है। इस बार सामान्य रूप से फिल्मी हस्तियों में से कुछ ही नाम इस सूची में शामिल हो सके। परिचित नामों में एसपी बालासुब्रमण्यम, चित्रा और बॉम्बे जयश्री मुख्य हैं। तीनों गायक हैं और उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए भी गीत गाए हैं। इस लिहाज से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का कथित प्रतिनिधित्व हो जाता है। लेकिन गौर करें तो ये मूल रूप से तमिल और कर्नाटक संगीत के गायक हैं। फिल्मों से चुनी गई प्रतिभाओं में मलयालम गीतकार कैतप्रम दामोदरन नंबूदिरि और गुजराती अभिनेता महेश भाई कनोडिया एवं नरेश भाई कनोडिया हैं। किसी अन्य भाषा में सक्रिय अभिनेता, अभिनेत्री, निर्देशक, निर्माता अदि प्रतिभाओं को इस पुरस्कार के योग्य नहीं माना गया।

सचमुच हैरानी होती है। क्या फिल्म इंडस्ट्री से प्रतिभाओं की संस्तुति नहीं की गई या केंद्र सरकार की देख-रेख में बनी समिति ने जानबूझकर उन्हें नजरअंदाज किया?


खबर आई है कि महाराष्ट्र सरकार ने माधुरी दीक्षित और मोहन आगाशे समेत कुछ फिल्म कलाकारों के नाम भी सूची में रखे थे। इनमें से किसी के नाम पर केंद्र सरकार ने विचार नहीं किया। पिछले कुछ वर्षों से पुरस्कृत व्यक्तियों की पद्म सूची निकाल कर देखें तो हर साल 2-4 फिल्मी हस्तियों को पद्म सम्मान मिलते रहे हैं। सिनेमा जैसे सशक्त और सामाजिक रूप से जरूरी माध्यम में सक्रिय प्रतिभाओं को नजरअंदाज करने की इस मंशा को सिर्फ उपेक्षा या उदासीनता भर मान लेना उचित नहीं होगा। कहीं-न-कहीं यह वर्तमान केंद्र सरकार की सोच और समझ का भी परिचायक है।

पिछले साल के उत्तरार्ध में जिस प्रकार से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को निशाना बनाया गया और केंद्र सरकार ने नेपथ्य में रहते हुए चल रही कारगुजारी पर खामोशी बरती, उस रवैये के संबंध में सांसद जया बच्चन ने संसद में अपना दो टूक मंतव्य रखा था। तब संसद में सत्तारूढ़ पार्टी के नेता फिल्म इंडस्ट्री की बदनामी की मुहिम में अपनी चिंता का जहर घोल रहे थे। मीडिया और टीवी न्यूज चैनल मनगढ़ंत सनसनी फैला रहे थे और उसके प्रभाव में आम दर्शक सिनेमा के प्रति बेरुखी और निंदा जाहिर कर रहे थे। पिछली मुहिम ने फिल्म इंडस्ट्री के प्रति आम दर्शकों की धारणा बदल दी है। उसे फिर से पटरी पर आने में वक्त लगेगा। इस परिप्रेक्ष्य में पद्म सूची से हिंदी की फिल्मी हस्तियों का गायब होना चकित नहीं करता है।

प्रेम, सांप्रदायिक सौहार्द और समरसता की बात करने वाली हिंदी फिल्म इंडस्ट्री केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की आंख की किरकिरी बन चुकी है। मीडिया समेत सभी संस्थाओं को अपने प्रभाव के वशीभूत कर चुकी राजनीतिक पार्टी को गहरा मलाल है कि वह हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को साध नहीं पा रही है। तमाम कोशिशों के बावजूद नकेल नहीं डाल सकी। दरअसल, हिंदी समेत सभी भाषाओं की फिल्म इंडस्ट्री राज्य और केंद्र सरकार के भरोसे काम नहीं करती। कुछ राज्यों में सहायता और रियायत के नाम पर कुछ सुविधाएं जरूर मिल जाती हैं लेकिन फिल्म इंडस्ट्री का कारोबार पूरी तरीके से स्वायत्त अर्थव्यवस्था से चलता है। यही कारण है कि फिल्म इंडस्ट्री एक स्वतंत्र इकाई के रूप में काम कर पाती है।

भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को पद्म पुरस्कार और राष्ट्रीय पुरस्कार के अलावा किसी और मद में भारत सरकार की मदद और पहचान नहीं मिलती। वास्तविकता यही है कि भारत सरकार के पास कोई फिल्म नीति नहीं है। पहले भी नहीं थी। आज भी नहीं है। कभी इस सॉफ्ट पावर के वाजिब इस्तेमाल के बारे में नहीं सोचा गया।


न सिर्फ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री बल्कि तमिल, तेलुगु, मलयालम और बांग्ला आदि फिल्म इंडस्ट्री से भी किसी प्रतिभा को पद्म पुरस्कार के योग्य नहीं समझा गया। सरकार हर मौके पर फिल्म इंडस्ट्री का उपयोग और दोहन करने में पीछे नहीं रहती। अभी रिहाना और ग्रेटा थनबर्ग ने किसान आंदोलन के समर्थन में ट्वीट किया तो ‘इंडिया टुगेदर’ हैशटैग से ट्वीट करने के लिए फिल्म बिरादरी को हांका गया। कुछ घंटों के अंदर लता मंगेशकर, अक्षय कुमार, अजय देवगन और करण जौहर सरीखी फिल्मी हस्तियों के ट्वीट लगभग एक जैसी पंक्तियों के साथ ट्विटर पर चमकने लगे।

फिल्म बिरादरी का एक समूह केंद्र सरकार और भाजपा के हर आह्वान पर पहल करने के लिए उत्सुक रहता है। अक्षय कुमार ने तो निर्माणाधीन राम मंदिर के लिए चंदा देने तक की अपील तक कर डाली। कह सकते हैं कि यह उनका अपना निर्णय है। लेकिन कुछ संकेत तो पढ़े ही जा सकते हैं।

फिल्मों, फिल्म इंडस्ट्री और फिल्मी गतिविधियों के प्रति सरकारी रवैये की एक झांकी कुछ दिनों पहले भी मिली है। दिसंबर में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एक अहम फैसले में फिल्म फेस्टिवल निदेशालय, फिल्म प्रभाग, चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी और राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार के स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त कर दिया। इन सभी संगठनों का एनएफडीसी में विलय कर दिया गया। मालूम नहीं कि भविष्य में इन संगठनों का काम कैसे जारी रहेगा और किसकी जवाबदेही होगी? पिछले कुछ वर्षों से इन संगठनों का काम सिमट गया था। देश में फिल्मों के विकास और संरक्षण के प्रति यह एक किस्म की तदर्थ नीति और लापरवाही ही है। अभी आठ फरवरी को ही खबर आई कि रॉटरडम फिल्म फेस्टिवल में फिल्म बाजार के प्लेटफॉर्म से आई विनोद राज की फिल्म ‘पेबल्स’ को श्रेष्ठ टाइगर पुरस्कार मिला। भविष्य में ऐसी कोई खबर आएगी कि नहीं? अगर जमीनी स्तर पर गतिविधियां ही नहीं होंगी तो परिणाम का अंदाजा लगाया जा सकता है।

मजेदार तथ्य है कि फिल्म इंडस्ट्री के किसी संगठन या हस्ती की तरफ से पद्म पुरस्कारों में हुई उपेक्षा पर कोई प्रतिक्रिया सुनने को नहीं मिली। आलम यह है कि लोग सवाल पूछने से भी हिचकने लगे हैं।

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