फिल्म समीक्षाः सोनाक्षी का ‘खानदानी शफाखाना’ चलाने का आईडिया तो अच्छा था, पर निर्देशन ने दुकान नहीं चलने दी 

‘खानदानी शफाखाना’ की बड़ी कमजोरी विषय के ट्रीटमेंट की है। एक संवेदनशील विषय पर हल्के-फुल्के तरीके से या कॉमेडी के जरिये बात करना अच्छी बात है, लेकिन इस हद तक नहीं कि विषय की गंभीरता ही खत्म हो जाए। निर्देशन में इसी कुशलता की कमी सबसे ज्यादा खलती है।

फोटोः सोशल मीडिया
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प्रगति सक्सेना

इस साल की शुरुआत में ‘खानदानी शफाखान’ के निर्माताओं पर एक पूर्व पत्रकार और अब फिल्म निर्माता अमिताभ पराशर ने उनका आईडिया चुराने यानी प्लेजिअरिज़्म का आरोप लगाया था। हालांकि, हम ये नहीं जानते कि ये आरोप सही था या नहीं (‘रचनात्मकता’ की दुनिया में आईडिया चुराना होता रहता है, खासकर हमारी हिंदी फिल्मों में तो कभी कहानी चुराई जाती है, कभी धुन कभी आईडिया और यहां तक कि पोस्टर भी), लेकिन हम अब ये जरूर जानते हैं कि ‘खानदानी शफाखाना कोई बहुत अच्छी फिल्म नहीं है। बेशक कहानी पर फिल्म बनाना और सोनाक्षी सिन्हा के लिए इसमें अभिनय करना काफी चुनौतीपूर्ण रहा था।

जैसा कि नाम से स्पष्ट है, ये फिल्म सेक्स रोग विशेषज्ञ, सेक्स क्लिनिक, हमारे समाज में सेक्स से जुड़ी वर्जनाओं और इन सबके बीच सर्वाइवल का संघर्ष करती एक लड़की की कहानी है। लेकिन इससे कहीं ज्यादा ये एक ऐसी लड़की की कहानी है जो पुरुषों की दुनिया में अपनी जगह बनाना चाहती है और फिल्म का यही पहलू दिल को छूता है, दिल जीत लेता है।

लेकिन इसके बावजूद फिल्म बहुत धीमी गति से चलती है, कहीं-कहीं उबाऊ हो जाती है। ये निर्देशक शिल्पी दासगुप्ता की पहली फीचर फिल्म है। उनके पास एक अच्छी कहानी थी, लेकिन फिल्म उतनी दिलचस्प नहीं बन पाई। विजुअली निर्देशक प्रभावित नहीं कर पातीं। इस कहानी में अनेक सूक्ष्म पहलू केवल दृश्यों के माध्यम से दिखाए जा सकते थे, लेकिन अफसोस फिल्म में ये सिर्फ संवादों और कुछ लाउड हावभावों तक ही सीमित है।

कहानी की अच्छी बात ये है कि इसमें एक युवती है जो चाहती है कि लोग (यानी पुरुष) सेक्स से जुड़ी दिक्कतों, स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में बात करें, ऐसे समाज में जहां सेक्स के बारे में बात करना ‘अश्लील’ या ‘गन्दी बात’ समझा जाता है, वो ना सिर्फ अपने मामा की मौत के बाद उनकी सेक्स क्लीनिक चलाने पर अड़ी रहती है, बल्कि अपने मामा के पुराने मरीजों के रोग और इलाज के बारे में पढ़ती है और घर-परिवार के विरोध और ‘इमोशनल ब्लैकमेल’ के बावजूद दवाइयां भी बनाती है।


फिल्म की कमजोरी ये है कि यह बात बहुत करती है, और एक ही बात को बार-बार दोहराती है। हमारे समाज में सेक्स के बारे में बात करना ‘गन्दी बात’ समझा जाता है- ये तो कई बार बताया गया है, लेकिन ऐसा क्यों है, इसे अगर संवादों के जरिये नहीं तो कुछ दृश्यों या किरदारों के जरिये जाहिर करने की कोशिश की जा सकती थी, लेकिन ऐसी कोशिश ही नहीं की गई। दूसरी कमजोरी विषय के ट्रीटमेंट की है- एक संवेदनशील विषय पर हल्के-फुल्के तरीके से या कॉमेडी के जरिये बात करना तो अच्छी बात है, लेकिन इस हद तक नहीं कि विषय की गंभीरता ही खत्म हो जाए।

पिछले दिनों एक फिल्म आई थी ‘शुभ मंगल सावधान’। इस फिल्म में भी एक सेक्स समस्या पर बात की गयी थी। लेकिन कॉमेडी, इमोशन, और एक दिलासा देने वाले अंदाज के कुशल मिश्रण के माध्यम से इस विषय को इतने नाजुक तरीके से हैंडल किया गया था कि फिल्म में रोचकता, भावुकता और रोमांटिक तत्व बदस्तूर बने रहे और फिल्म को पसंद भी किया गया। ‘खानदानी शफाखाना’ में निर्देशन की इस कुशलता की कमी सबसे ज्यादा खलती है।

प्रियांश जोरा जिन्होंने इस फिल्म के माध्यम से फिल्म जगत में एंट्री ली है, परदे पर उनकी मौजूदगी प्रभावशाली है और वो उस लड़के के किरदार में फिट बैठते हैं, जो सेक्स क्लिनिक चलाने के संघर्ष में नायिका का लगातार साथ देता है। अन्नू कपूर, कुलभूषण खरबंदा और नादिरा बब्बर काबिल और अनुभवी अभिनेता हैं ही और सोनाक्षी ने भी ठीक-ठाक काम किया है।

फिल्म में बादशाह पर्दे पर उतना ही बेवकूफ लगते हैं, जितना कि उनका संगीत वाहियात है। हालांकि, उनका संगीत बहुत मशहूर है और ये साबित करता है आजकल महज ‘औसत’ होना कितना फैशन में है। उनका ‘कोका’ गाना पहले ही हिट हो चुका है। ‘कौसे ना भीगे मन’ अच्छा और दिल छू लेने वाला गीत है।

कुल मिला कर कहा जाए तो, खानदानी शफाखाना एक बढ़िया आईडिया पर एक औसत फिल्म है। अगर आपमें एक मंद गति से चलने वाली कॉमेडी देखने का सब्र है तो इसे देखें वर्ना नहीं भी देखेंगे तो चलेगा।

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