जानें महामारी में कैसे होंगे आने वाले फिल्म समारोह!

सिनेमा पर लिखने वाले पत्रकार के बतौर महामारी पर मेरी पहली सूचना ठीक फिल्म समारोह के समय पर आई। यह सब पिछले वर्ष फरवरी में हुआ।

फिल्म: सोशल मीडिया
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नम्रता जोशी

सिनेमा पर लिखने वाले पत्रकार के बतौर महामारी पर मेरी पहली सूचना ठीक फिल्म समारोह के समय पर आई। यह सब पिछले वर्ष फरवरी में हुआ। जब औरंगाबाद अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के दौरान हममें से कुछ साथियों का एक समूह स्क्रीनिंग के बीच में चुपचाप निकलकर एलोरा की गुफाएं देखने के लिए निकल गया। उन्होंने वहां देखा कि स्थानीय लोग चीन से दिन-प्रतिदिन आती खतरनाक खबरों के चलते दक्षिण पूर्व एशिया से आए हुए कुछ सैलानियों को बहुत संदेह की निगाह से देख रहे थे।

कोविड-19 बहुत कुछ नष्ट कर देगा– जिस तरह से उसने हमारे जीवन से बहुत कुछ बाहर कर दिया है, वैसे ही वह पूरे के पूरे फिल्म समारोह के कैलेंडर को ही रद्द कर देगा, यह तथ्य मुझे बड़ी देर में तब समझ आया जब ऐतिहासिक रेड सी अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह को रद्द कर दिया गया। यह समारोह पहली बार सउदी अरब के यूनिस्को की विश्व धरोहर वाले जेद्दा के पुराने शहर में मार्च में होने वाला था। और इसके साथ ही जेद्दा के लिए मेरी टिकट भी रद्द हो गई। फिल्मों का मक्का कहा जाने वाला कान फिल्म समारोह बहुत समय तक आशावादी बना रहा, फिर थोड़ा डगमगाया, वैकल्पिक तारीखों को तलाशने की कोशिश की और अंततः उसने एक वर्ष के लिए समारोह नहीं करने का फैसला किया। सितंबर में बहुत सारी कांट-छांट के बाद आयोजित किए गए वेनिस फिल्म समारोह में भी जमीनी स्तर पर कुछ खास नहीं हुआ।

जब संसार एक बीमारी के हाथों प्रताड़ित और निराश हो रहा हो तथा अनिश्चिता से घिरा हो, तो ऐसे समय में फिल्म समारोह पर बात करना शायद पूरी तरह से विशेषाधिकार का मामला प्रतीत हो या फिर गलत प्राथमिकताओं का। आखिर लाल कालीन, विश्व प्रीमियर, सेलिब्रिटी फिल्मी हस्तियों की एक झलक पाने के लिए भाग-दौड़, इस सबका का मूल्य उस समय शून्य हो जाता है जब पूरी मानवता ही मृत्यु के खतरे से जूझ रही हो। लेकिन अंततः इस दुनिया में समारोहों का भी अपना एक बुनियादी स्थान है। क्या ये सब हमारी नौकरियों, आजीविका, आय और अर्थव्यवस्था से संबंधित नहीं हैं? रोजमर्रा की जीवन चक्की से अलग, ये ऐसे युवा और स्वतंत्र सिनेमा को पनपने, विकसित होने और धनार्जन का एक इको-सिस्टम उपलब्ध कराते हैं जो हमारे जीवन की सच्चाइयों को प्रतिबिंबित करता हो, प्रश्न पूछता हो, छानबीन करता हो और विचार करता हो। ऐसा सिनेमा जो एक कलात्मक संतुष्टि देता हो और रचनात्मक सांस भरता हो ताकि हमारा दिल और दिमाग उन्नत हो सके। विशेषकर आज के हर प्रकार के नुकसान से भरे प्रेम रहित, बेसब्री और अकेलेपन से जूझ रहे समय में।


इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि समारोहों में से कुछ ने– भारत में और विदेशों में भी– यह फैसला किया कि हम अपनी फिल्मों को दर्शकों तक मोबाइल, लेपटॉप, टैबलेट और टेलीविजन के जरिये ऑनलाइन पहुंचाएंगे। यह सब इसलिए किया गया कि एक ऐसे समय में जब भविष्य बहुत ही अनिश्चित नजर आ रहा हो तो फिल्मकारों और फिल्म से संबंधित सभी लोगों को एक राहत दी जा सके और साथ ही फिल्म बनाने के तंत्र के सभी पहियों को काम करने लायक और जीवित रखा जा सके। जब हर चीज अर्थहीन और मूल्यहीन प्रतीत होने लगी थी, तब यह जीवन के लिए एक संघर्ष था और प्रासंगिक बने रहने के लिए एक युद्ध।

बहुत ही खूबसूरत फिल्मों की दौलत हमारे निजी स्क्रीन पर छलक रही थी और अपने लिए स्थान बनाने की कोशिश कर रही थी। फिर भी एक खालीपन था जिसे भरा नहीं जा सकता था। वह खालीपन था सामूहिकवाद जिसमें हम साथ में फिल्में देखते हैं और आपस में उनके सामुदायिक अनुभव बांटते हैं। यह सुनने में शायद थोड़ा ऊटपटांग लगे लेकिन टोरंटो से लेकर धर्मशाला तक और सन डान्स से लेकर रॉटरडैम तक– इन समारोहों को बस ऑनलाइन देखना एक अजीब तरह की थकावट लेकर आता है। अपनी आंखों को लगातार अपने सामने होम स्क्रीन पर चमचमाती छवियों पर गड़ाए रखना- सच मानो तो ऐसे समाराहों में भागीदारी करने के लिए स्वयं अलग- अलग समयों में मीलों सफर करने से भी बहुत अधिक थका देने वाला है।


भारत में 2021 में चीजों ने एक नया मोड़लिया। हालांकि अधिकांश अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम वर्ष के शुरुआती महीनों में ही ऑनलाइन किए गए थे लेकिन गोवा में भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह (आईएफएफआई) जनवरी में मिला- जुला किया गया और कोलकाता अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह ने भी स्वाभाविक रूप से जाने का फैसला किया। उम्मीद की नाव तैरने लगी।

औरंगाबाद अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के करीब-करीब पूरे एक जीरो वर्ष के बाद तिरुअनंतपुरम की छोटी-सी यात्रा ने मुझे मौका दिया कि केरल के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के माध्यम से मैं आसपास हो रही चीजों का एक जायजा ले सकूं और भविष्य में किस प्रकार फिल्म समारोह आयोजित किए जाएंगे, इसकी एक झलक पा सकूं। सबसे प्यारा बदलाव तो यह था कि आपकी डेलिगेट किट में बैग, ब्रॉशर और बुकलेट के अलावा एक बड़ा ही सुंदर-सा फेस्टिवल मास्क भी रखा गया था। पूरी दुनिया में आयोजित होने वाले ऐसे समारोहों से मिले ये फेस मास्क अब शायद चीजों को संग्रह करने वाले लोगों का नया शौक होंगे।

अब हम और क्या देखने वाले हैं? कुछ समय तक तो अधिकांश समारोहों में सारा कार्यक्रम काफी हद तक बहुत छोटे स्तर पर किया जाएगा। शुरुआत में कम फिल्में होंगी। कम फिल्मकार, प्रतिनिधि और दर्शक होंगे। कार्यक्रम बहुत छोटे और कसे हुए होंगे। कार्यक्रम स्थलों पर बारीकी से निगाह रखी जाएगी। कम स्क्रीनिंग होगी और बीच-बीच में लंबे इंटरवल होंगे ताकि सैनिटाइजेशन की प्रक्रिया की जा सके। लॉजिस्टिक्स फिल्मों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाएगा और फिल्मकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी प्रकार से बड़ी भीड़ इकट्ठी न हो।

केरल के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह ने अपने कोविड-प्रभावित 25वें संस्करण में सबको रास्ता दिखा दिया है। इसने सोशल डिस्टेन्सिंग को सुनिश्चित करते हुए 50 प्रतिशत उपस्थिति की ही इजाजत दी (लीजो जोस पेलिसरी की नवीनतम फिल्म ‘चुरुली’ के लिए मची अफरा-तफरी के बावजूद) और उपस्थित लोगों के लिए एंटीजन टेस्टिंग को अनिवार्य कर दिया। पारंपरिक रूप से एक ही शहर में दस-बारह दिन तक आयोजित किए जाने वाले इस समारोह को चार या पांच दिनों के छोटे-छोटे हिस्सों में बांटकर राज्य के चार अलग-अलग शहरों में आयोजित किया गया। तिरुअंनतपुरम के अलावा हमने कोच्चि, थालास्सेरी और पालक्काड को भी इस समारोह के नक्शे में पाया। यह आयोजनकर्ताओं के लिए बहुत बड़ा- एक माह लंबा कड़ा परिश्रम है। जिस समय मैं यह लिख रही हूं, उस समय आयोजनकर्ता अपने फिल्मी कारवां के साथ अपने अगले पड़ाव की ओर कोच्चि से थालास्सेरी की ओर बढ़ रहे हैं।


दर्शकों को एक नए खौफ से निपटना होगा। समारोह घोषणा करते हैं कि आप जीवित हो और हालात से उभर रहे हो। यह सामान्य परिस्थितियों पर अपनी पकड़ बनाने का एक चिह्न है। भले ही वे अपने पीछे एक छोटी सी उत्कंठा और एक आवश्यक क्वारंटीन की प्रक्रिया को छोड़ जाएं। एहतियाती उपाय के तौर पर ये कुछ नियम हैं जिनका पालन आवश्यक है। सैनिटाइजर हमेशा साथ रखें। मास्क कभी न उतारें बल्कि कर सको तो उसे डबल कर लो। फिल्मों को देखने के लिए पागलों की तरह न दौड़ें। वे दिन चले गए जब किसी समारोह में एक के बाद एक छह फिल्में देखी जाती थीं। एक दिन में अधिक-से-अधिक तीन फिल्में देखें और बीच में काफी अंतराल रखें ताकि आप अपने आप को हाइड्रेटकर सकें और थोड़ी ताजी हवा में सांस ले सकें। भुक्खड़न बनें, सिनेमा की डाइट को नियंत्रित रखें ।

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