फिल्म समीक्षा: चमक-दमक, शोर शराबे से भरी ‘वीरे दी वेडिंग’ दिल को नहीं छू पाती

शशांक घोष के निर्देशन में बनी फिल्म ‘वीरे दी वेडिंग’ के किरदार कमजोर लगते हैं और संवाद भी प्रभावहीन हैं। आधे से ज्यादा संवाद अंग्रेजी में हैं और बाकी आधे गालियों से भरे हैं। फिल्म की कहानी भी कमजोर है।

फोटो: सोशल मीडिया
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प्रगति सक्सेना

एक बात तो साफ रहनी चाहिए कि गालियां देना, शराब और सिगरेट पीना लड़कियों में परिपक्वता और समझदारी का परिचायक नहीं हो सकता, न ही उनकी आजादी या बराबरी का। सिगरेट और शराब पीना तो आपकी पसंद और नापसंद का मामला है, लेकिन अंधाधुंध गालियां देना सिर्फ आपके भाषाई संस्कार को दर्शाता है और कुछ नहीं। अगर आपने ये उम्मीद की थी कि ‘वीरे दी वेडिंग’ ठीक उसी तरह लड़कियों की दोस्ती और उनकी खुदमुख्तारी के सफर की बात करेगी जैसे ‘दिल चाहता है’ में लड़कों की दोस्ती और उनके आत्मनिर्भरता के सफर की बात की गई थी तो आपको बेहद निराशा होगी।

हां, फिल्म चार अमीर लड़कियों के बारे में है, जो बचपन की दोस्त हैं। बेशक फिल्म रिश्तों के बारे में भी है, लेकिन सब कुछ बेहद सतही महसूस होता है और उस तरह दिल को नहीं छू पता जैसे ‘दिल चाहता है’ की दोस्ती और रिश्तों ने दर्शकों के मन में एक खास जगह बना ली थी।

शशांक घोष के निर्देशन में बनी फिल्म ‘वीरे दी वेडिंग’ के किरदार कमजोर लगते हैं और संवाद भी प्रभावहीन हैं। आधे से ज्यादा संवाद अंग्रेजी में हैं और बाकी आधे गालियों से भरे हैं। फिल्म की कहानी भी कमजोर है, जिसे एक वाकया में बताया जा सकता है। बचपन की चार सहेलियां, कालिंदी (करीना कपूर), अवनि (सोनम कपूर), साक्षी (स्वरा भास्कर) और मीरा (शिखा तल्सानिया) कालिंदी की शादी के मौके पर 10 साल के बाद मिलती हैं, और धीरे-धीरे उनका अतीत और उनके रिश्ते एक-एक करके खुलते जाते हैं। अब इस पर एक दिलचस्प फिल्म बनाई जा सकती थी, लेकिन ‘वीरे दी वेडिंग’ में ऐसा कुछ दिलचस्प या नाटकीय नहीं है। फिल्म के आखिर तक ये उम्मीद बनी रहती है कि ऐसा कुछ होगा, लेकिन अफसोस कि कुछ नहीं होता और उनके अपने पति या दोस्त के साथ सेक्स के अलावा और कुछ खास सामने नहीं आता।

एक बात का जिक्र जरूर होना चाहिए, वाईब्रेटर और औरतों के हस्तमैथुन का। इतने साफ तौर पर इसका जिक्र हिंदी फिल्म में शायद पहली बार हुआ है। लेकिन क्या ये वाकई अहम है? फिल्म के सन्दर्भ में मुझे ऐसा कतई नहीं लगता। इससे ज्यादा अहम और उल्लेखनीय बात ये है कि ये दृश्य सेंसर बोर्ड की कैंची से बच गया, जो पिछले कुछ सालों से राष्ट्रीयता, नैतिकता और सामाजिक मूल्यों के नाम पर कुछ बेहद सामान्य शब्दों और दृश्यों को काटने के लिए बदनाम हो चुका है।

फिल्म में कुछ पॉजिटिव बातें भी हैं। मसलन, तीस को छूती लड़कियां इस बात पर अफसोस करती हैं कि चाहें वे कितनी भी आत्मनिर्भर और आजाद हो जाएं, हमारे समाज में उन्हें ‘सम्पूर्ण’ तभी समझा जाता है जब वे शादी कर लेती हैं और मां बन जाती हैं। इन चार लड़कियों के बीच की दोस्ती भी दिलचस्प है, हालांकि यहीं निर्देशक कमजोर पड़ जाता है। इन लड़कियों के बीच की दोस्ती भी बहुत उथली लगती है और इसी वजह से फिल्म निराश करती है।

फिल्म में पुरुषों का मजाक बनेगा ऐसी उम्मीद तो थी ही और ये कुछ हद तक हास्यास्पद भी है। लेकिन कहीं-कहीं उबाऊ भी हो जाता है। शशांक घोष ने 2003 में ‘वैसा भी होता है-पार्ट 2’ बनाई थी, जो काफी दिलचस्प फिल्म थी। बदकिस्मती से, ‘वीरे दी वेडिंग’ में बतौर निर्देशक शशांक घोष की परिपक्वता कहीं भी जाहिर नहीं होती।

करीना कपूर खूबसूरत लगी हैं, सोनम कपूर अपने किरदार में आकर्षक और प्यारी हैं, शिखा तल्सानिया हास्य का पुट लिए हुए हैं और स्वरा भास्कर की काबिलियत का कोई इस्तेमाल नहीं हुआ है। वे सिर्फ फिल्म में सिगरेट पीती हैं, शराब पीती हैं और भरपूर गलियां देते हुए दिखाई देती हैं।

कुल मिलाकर लड़कियां इस फिल्म से निराश ही होंगी, क्योंकि एक फिल्म जो लड़कियों की दोस्ती और ‘बॉन्डिंग’ पर आधारित है, उस कोमलता और संवेदनशीलता की बात ही नहीं करती जिसके साथ असल जिन्दगी में लड़कियां परुषों की बनिस्पत कहीं ज्यादा जटिल रिश्तों और जिम्मेदारियों को निभाते हुए अपनी दोस्ती को कायम रखती हैं।

बहरहाल, अगर आपको लड़कियों को शराब, सिगरेट पीते हुए और गालियां देते हुए देखने का शौक है, तो आप फिल्म जरूर देखें।

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