भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री का नया फंडा- ‘पाकिस्तान’ कनेक्शन यानी फिल्म हिट होने की गारंटी

भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में हाल के वर्षों में बनी फिल्मों पर नजर डालें, तो पाकिस्तान छाया हुआ है। दरअसल ‘भोजीवुड’ में छोटे बजट की फिल्में बनती हैं। इनका मकसद फिल्म कला का विकास या भोजपुरी समाज की कहानी, उसकी समस्याओं की चर्चा से इतर सिर्फ मुनाफा होता है।

फोटोः सोशल मीडिया
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सीटू तिवारी

साल 2015 में बिहार के एक बदबूदार और सीलन से भरे सिनेमा हॉल में भोजपुरी फिल्मों के सुपर स्टार दिनेश लाल निरहुआ ने जब यह संवाद बोला- “इतिहास की क्या औकात है, पूरा भूगोल बदल देंगे। लाहौर से गुजरेगी गंगा, इस्लामाबाद की छाती पर लहराएगा तिरंगा” तो पूरा हॉल सीटियों से गूंज उठा। मुरझाए-मेहनतकश चेहरे स्क्रीन पर नजर गड़ाए थे। उनकी पीली पड़ी आंखों की पुतलियों पर बनते सिनेमा की रंगीन रोशनी की परछाइयां थीं और जुबान पर पाकिस्तान के लिए भद्दी गालियां।

यह फिल्म थी ‘पटना से पाकिस्तान’, जो सुपरहिट रही। इस फिल्म का सीकव्ल यानी पार्ट-2 बनने की घोषणा हो चुकी है, जिसमें मुख्य अभिनेता दिनेश लाल निरहुआ ही होंगे। सिर्फ ‘पटना से पाकिस्तान’ ही नहीं, बल्कि साल 2016 में बनी ‘दुल्हन चाही पाकिस्तान से’ का भी सीकव्ल 2019 में रिलीज हुआ।

भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री, जिसे भोजीवुड भी कहा जाता है, में हालिया वर्षों में बनीं फिल्मों पर नजर डालें, तो पाकिस्तान छाया हुआ है। ‘पाकिस्तान से बदला’, ‘इंडिया वर्सेज पाकिस्तान’, ‘तिरंगा पाकिस्तान में’, ‘इलाहाबाद से इस्लामाबाद’, ‘ले आईब दुलहनिया पाकिस्तान से’, ‘लाहौर एक्सप्रेस’, ‘जंग पाकिस्तान से’, ‘मिशन पाकिस्तान’, ‘बॉर्डर पाकिस्तान’, ‘गदर’ आदि फिल्में 2015 से अब तक बन चुकी हैं। इन फिल्मों की स्टोरी लाइन और संवादों में पाकिस्तान के प्रति नफरत गुंथी हुई सी है।

‘पाकिस्तान’ कनेक्शन यानी फिल्म हिट होने की गारंटी

भोजपुरी फिल्मों के कारोबार के आंकड़े बताते हैं कि ‘पाकिस्तान’ टाइटल के साथ बनी फिल्में हिट हो रही हैं। भोजीवुड में छोटे बजट की फिल्में बनती हैं। फिल्म कला या भोजपुरी समाज की कहानी, उसकी समस्याओं से इतर इनका मकसद सिर्फ मुनाफा कमाना होता है। ‘ले आईब दुलहनिया पाकिस्तान से’ के अभिनेता विशाल का कहना है कि ‘पाकिस्तान कनेक्शन’ फिल्म का कैनवस और कमाई दोनों को ही बड़ा कर देता है। पाकिस्तान टाइटल से जुड़ी कुछ फिल्मों के गीतकार प्यारे लाल यादव इसकी मिसाल देते हुए कहते हैं कि “जब भारत-पाकिस्तान का मैच होता है, तो लोग सब काम छोड़कर सिर्फ मैच देखते हैं, उसकी तरह ये फिल्में हैं। ये लोगों को उत्तेजित भी करती हैं और हमारे लिए कमाई भी लाती हैं।”

ऐसा लगता है कि पाकिस्तान के खिलाफ छद्म युद्ध का तिलिस्म और उसके ऊपर श्रेष्ठता के बोध (बाप-बेटे का रिश्ता बताना, खैरात जमीन देना- ऐसे संवाद इन फिल्मों में हैं) की दुनिया रचकर भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री अपनी गाड़ी को ‘बुलेट ट्रेन’ की रफ्तार से भगा रही है। ये तिलिस्मी दुनिया और श्रेष्ठता का बोध भारत-पाकिस्तान विभाजन के इतिहास की दिल दहलाने वाली घटनाओं और वाट्सएप यूनिवर्सिटी के प्रचार तंत्र से अपना ‘दिमागी खुराक’ पा रहा है और मजबूत हो रहा है।

हाल ही में पाकिस्तानी अदाकारा मेहविश हयात ने नॉर्वे में एक पुरस्कार पाने के बाद अपने भाषण में जो कहा, वह इस बात की तसदीक भी करता है कि हमारी फिल्में राष्ट्रवाद के उभार को कैश कर रही हैं। हयात ने कहा कि भारत अपनी फिल्म इंडस्ट्री का इस्तेमाल पाकिस्तान को नीचा दिखाने और एक विलेन देश के तौर पर दिखाने के लिए कर रहा है। साफ है कि मेहविश की बातों के दायरे में बॉलीवुड और भोजीवुड दोनों ही आते हैं, जहां इस तरह की कईं फिल्में बन भी रही हैं।


भोजपुरी फिल्मों का संसार

भोजपुरी फिल्में सिर्फ बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही नहीं देखी जातीं, बल्कि जहां भी भोजपुरी भाषी लोग रोजगार की तलाश में गए हैं वहां भोजपुरी सिनेमा देखा जाता है। जोन के हिसाब से देखें, तो मुख्यतौर पर भोजपुरी फिल्मों का कारोबार छह जोन में बंटा है। दिल्ली-यूपी, बिहार-झारखंड, असम-पश्चिम बंगाल, गुजरात-मुंबई, पंजाब और नेपाल। इस इंडस्ट्री में सालाना तकरीबन सौ फिल्में बनती हैं, जिसमें से औसतन 60 फिल्में ही रिलीज हो पाती हैं। मोटे तौर पर यह अनुमान लगाया जाता है कि यह इंडस्ट्री तकरीबन 2000 करोड़ की है।

हालांकि अब थियेटर में भोजपुरी फिल्में देखने बहुत कम दर्शक जाते हैं। वजह यह है कि फिल्में रिलीज होने के तीन से चार माह के भीतर ही इंटरनेट पर आ जाती हैं। हर हाथ में स्मार्टफोन ने फिल्मों को देखना बहुतआसान कर दिया है। इस बीच सेटेलाइटअधिकार महंगे हुए हैं। फिल्म पीआरओ संजय भूषण बताते हैं कि पहले ये अधिकार जहां 20 लाख रुपये में बिकते थे, अब अगर किसी सुपरस्टार की फिल्म हो, तो ये अधिकार एक करोड़ में बिक रहे हैं। अगर फिल्म किसी औसत एक्टर की है, तो 30-40 लाख में ये अधिकार बिक जाते हैं।

भोजपुरी एलबम भी कतार में

सिर्फ भोजपुरी फिल्में ही नहीं, बल्कि भोजपुरी एलबम का बाजार भी ऐसे गानों से पटा पड़ा है। ‘खून के होली खेलम पाकिस्तान से’, ‘पाकिस्तान जाएंगे बुर्का वाली को पटाएंगे’, ‘भारत के बेलन से मार खाई पाकिस्तान’ ‘आग लगा दो पाकिस्तान’ से लेकर ‘पाकिस्तान में जाएंगे, माल पटा कर लाएंगे’ सरीखे अश्लील और आपत्तिजनक नाम वाले एलबम की इस बाजार में भरमार है।

यू ट्यूब पर मौजूद इन गानों के लाखों व्यूज, एलबम से जुड़े लोगों के बाकायदा मोबाइल नंबर का डिसप्ले होना दो तरह का संकेत देता है। पहला, भोजपुरी समाज के एक बड़े तबके में इन गानों के बोल और इसको अपनी कमाई का जरिया बनाने वाले कलाकारों की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ रही है। दूसरा, भोजपुरी में मनोरंजन के नाम पर परोसे जा रहे कंटेट पर किसी तरह की कोई लगाम नहीं है।

सिने सोसाइटी पटना के अध्यक्ष जयमंगल देव इसकी वजह भोजपुरी फिल्मों/एलबम के दर्शक या श्रोता वर्ग का बहुत प्रभुत्व शाली वर्ग से नहीं आना बताते हैं। यही वजह है कि हिंदुओं के धार्मिक त्यौहार मसलन होली, रामनवमी और नवरात्र के वक्त भक्तिभाव, पाकिस्तान और एक धर्म विशेष के प्रति नफरत के अनोखे संगम के इर्द-गिर्द बुने गए कई एलबम रिलीज होते हैं और हिट भी होते हैं। बीते साल जब बिहार के कई हिस्सों में रामनवमी के समय शांति भंग हुई, तो ऐसे ही गाने उसकी मुख्य वजह थे।

दिलचस्प है कि गीतों और फिल्म के जरिए जहां एक तरफ नफरत फैलाने और उसे कैश करने की कोशिश है, वहीं परंपरा से आने वाले गीतों से इस तरह का विभाजन नहीं है। लोकगायिका चंदन तिवारी, जिन्हें इस साल संगीत नाटक अकादमी के बिस्मिल्लाह खान युवा सम्मान से नवाजा गया है, बताती हैं कि लोकगीतों में जातीय-धार्मिक गीतों का चलन है, लेकिन इनके गायन की परंपरा जातियों और धर्म से परे है। अमीर खुसरो ने सासों की माला में सुमरूं मै पी का नाम, मेरा राम लिखा, तो बिहार के रसूल मियां ने कृष्ण और राम पर अद्भुत गीत लिखे।


फिल्म, गीत-संगीत और राजनीति

यह सवाल बहुत अहम है कि आखिर फिल्मों, गीत-संगीत में यह नया ट्रेंड क्यों दिखाई दे रहा है?संगीत नाटक अकादमी से नवाजे जा चुके वरिष्ठ रंगकर्मी परवेज अख्तर इसे राजनीति का नया नैरेटिव बताते हैं। उनके मुताबिक इस वक्त राजनीतिक एजेंडा तीन स्तरों पर काम कर रहा है। पहला, मुख्यधारा की राजनीति के जरिए। दूसरा, जमीनी स्तर पर फिल्म, गीत-संगीत-नाटक के जरिए और तीसरा, व्यक्ति से व्यक्ति का संवाद। अगर ध्यान से देखें, तो ये तीनों ही चीजें क्रमवार चल रही हैं। मुख्यधारा की राजनीति और हमारे नेताओं के बयान समाज में नफरत फैला रहे हैं, भोजीवुड उस नफरत को फिल्मों/एलबम के जरिए कैश करने के साथ-साथ पुख्ता कर रहा है। सबसे आखिर में यही नफरत व्यक्ति से व्यक्ति के संवाद यानी आपसी बातचीत के जरिए किसी संक्रामक रोग की तरह फैल रही है।

जावेद अख्तर आगे बताते हैं, “प्रथम विश्वयुद्ध के वक्त अंग्रेजों ने इस बात को महसूस किया कि पब्लिक ओपिनियन या जनता की राय बनाने में फिल्में बहुत मददगार साबित होती हैं। 1920 के दशक में सोवियतों ने भी सिनेमा की ताकत को पहचाना और बाद में हिटलर के प्रचार मंत्री जोसेफ गोयबल्स ने भी। गोयबल्स ने नाजी जर्मनी में छोटी-छोटी न्यूज रील/डॉक्यूमेंट्री बनवाईं जिनको आम लोगों के बीच प्रचारित किया गया। दुनिया में जब कभी प्रोपगेंडा मूवी या प्रचार फिल्म का इतिहास लिखा जाएगा, उसमें 1935 में लेनी राइफेनस्थेल की नाजी प्रचार फिल्म ‘ट्रयम्प ऑफ द विल’ का नाम अग्रणी होगा। डॉक्यूमेंट्री स्टाइल में बनी इस फिल्म को सिर्फ हिटलर की जर्मनी ने ही नहीं, बल्कि फ्रांस ने भी खूब पसंद किया। ये दीगर बात है कि बाद के सालों में एडोल्फ हिटलर और तानाशाही पयार्यवाची बन गए। भारत में भी नफरत परोसती भोजपुरी फिल्में, प्रोपगेंडा फिल्मों की ही एक कड़ी हैं।”

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