हिंदी फिल्मों का ‘नया हिंदुस्तान’, राजनीतिक सत्ता और फर्जी राष्ट्रवाद का घालमेल

सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में ओटीटी प्लेटफॉर्म के आने से एक नई राह मिली है। अब फिल्में वितरक, प्रदर्शक और थिएटरों की मोहताज नहीं रह गई हैं। वे इन प्लेटफार्म से सीधे दर्शकों के बीच पहुंच रही हैं। समय के साथ देश के दर्शक भी नए विकल्प के साथ आगे बढ़ रहे हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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अजय ब्रह्मात्मज

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘न्यू इंडिया’ शब्द बार-बार दोहराते हैं। हिंदी फिल्मों में इसे ‘नया हिंदुस्तान’ कहा जाता है। इन दिनों हिंदी फिल्मों के संवादों में इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। गणतंत्र दिवस के मौके पर हिंदी फिल्मों में चित्रित इस नए हिंदुस्तान की झलक, भावना, आकांक्षा और समस्याओं को देखना रोचक होगा। यहां हम सिर्फ 2019 के जनवरी से अब तक प्रदर्शित हिंदी फिल्मों के संदर्भ में इसकी चर्चा करेंगे।

सभी जानते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। सिनेमा के अविष्कार के बाद हम देख रहे हैं कि सिनेमा भी समाज का दर्पण हो गया है। साहित्य और सिनेमा में एक फर्क आ गया है कि तकनीकी सुविधाओं के बाद इस दर्पण में समाज का प्रतिबिंब वास्तविक से छोटा-बड़ा, आड़ा-टेढ़ा और कई बार धुंधला भी होता है। बारीक नजर से ठहराव के साथ देखें तो हम सभी प्रतिबिबिंत आकृतियों में मूल तक पहुंच सकते हैं।

पिछले साल के अनेक लेखों में मैंने ‘राष्ट्रवाद के नवाचार’ की बात की थी। फिल्मों की समीक्षा और प्रवृत्ति के संदर्भ में इस ‘नवाचार’ की व्याख्या भी की थी। एक बार फिर से उसे दोहराना लाजमी है। आप सभी को याद होगा कि पिछले साल जनवरी में ‘उरीः द सर्जिकल स्ट्राइक’ नाम की फिल्म आई थी। इस फिल्म का संवाद ‘हाउ इज द जोश’ तो प्रधानमंत्री को इतना अधिक अपने मतलब का लगा कि वह खास संबोधनों में इसे दोहराते रहे। इसी फिल्म के एक सीन में सेना का एक वरिष्ठ अधिकारी धीर-गंभीर आवाज में कहता है, ‘यह नया हिंदुस्तान है। यह घर में घुसेगा और मारेगा भी।’

फिल्म में तो यह स्पष्ट रूप से पाकिस्तान के लिए कहा गया था, लेकिन हम देख रहे हैं कि नए हिंदुस्तान के शासक अपने ही देश में असहमति की आवाज उठाने वालों को उनके कमरों और परिसरों में घुसकर मार रहे हैं। देश का जन-गण त्राहि-त्राहि कर रहा है लेकिन ‘तानाशाह’ पूर्ण तबाही के ‘मन’ में दिख रहा है।

राजनीति में न जाकर हम फिल्मों की बात करें तो हम पाते हैं कि यह फर्जी राष्ट्रवाद वास्तव में हिंदू/सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ख्वाहिश से प्रेरित है। कंगना रनोत की फिल्म ‘मणिकर्णिका’ की याद होगी। इस फिल्म में ‘आजादी’ का नारा धीरे-धीरे ‘हर हर महादेव’ के हुंकारे में बदल जाता है और महारानी लक्ष्मीबाई बलिदान के बाद ‘ॐ’ में तब्दील हो जाती हैं। अभी हाल में आई ‘तान्हाजीः द अनसंग हीरो’ में भी छत्रपति शिवाजी महाराज के काल में सुराज की बातें करते हुए दिल्ली के शासक औरंगजेब का उल्लेख विदेशी शासक के तौर पर करना यही दर्शाता है।


औरंगजेब के साम्राज्य विस्तार और शिवाजी के राज्य की सुरक्षा के संघर्ष को हिंदू राष्ट्रवाद के नजरिए से ही देखा-दिखाया जा रहा है। देश का बहुसंख्यक दर्शक इसी भावना से तरंगायित है, इसलिए हम देख रहे हैं कि ‘तान्हाजीः द अनसंग हीरो’ जबरदस्त कामयाबी हासिल कर रही है। ‘पानीपत’ में आशुतोष गोवारिकर ने संयम बरता और वस्तुनिष्ठ चित्रण किया तो उनकी फिल्म को दर्शकों ने नकार दिया।

पिछले साल सामरिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की फिल्मों के साथ पारिवारिक और सामाजिक फिल्मों में भी राष्ट्रवाद का स्वर गूंजता रहा। राष्ट्रवाद की अनुगूंज ‘केसरी’, ‘ठाकरे’, ‘पीएम नरेंद्र मोदी’, ‘रोमियो अकबर वाल्टर’, ‘कलंक’, ‘मिशन मंगल’, ‘वार’ और ‘कमांडो’ में अलग-अलग स्वरों में सुनाई पड़ी। कुछ फिल्मों में तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं आए। कभी किसी कलाकार की काया में तो कभी साक्षात सशरीर। सत्ताधारी दल समझ चुका है कि सिनेमा आम मतदाता तक पहुंचने का सशक्त माध्यम है। वह इसका भरपूर इस्तेमाल कर रहा है।

देश के प्रधानमंत्री पिछले साल आसन्न चुनाव के ठीक पहले अपना पहला इंटरव्यू किसी मीडियाकर्मी को नहीं देते हैं। वह एक फिल्म अभिनेता को चुनते हैं। यह अनायास नहीं हुआ था। उसके पहले और बाद में भी वह फिल्मी कलाकारों से व्यक्तिगत स्तर पर या समूह में मिलते रहे हैं। यह अलग बात है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम के बाद स्थितियों ने यू-टर्न ले लिया है। सत्ताधारी दल तमाम प्रयासों के बावजूद अपने समर्थन में फिल्मी हस्तियों को ला नहीं पा रहा है। ज्यादातर विरोध में खुलकर बोल रहे हैं और जो नहीं बोल रहे हैं वे खामोश हैं। उनकी खामोशी वास्तव में नागरिकता संशोधन अधिनियम का मूक अस्वीकार है।

दर्शकों की पसंद/नापसंद के आधार पर देखें तो अधिकांश दर्शक रूढ़िवादी, प्रतिगामी और फूहड़ किस्म की फिल्मों को अधिक पसंद करते हैं। ‘कबीर सिंह’ की जबरदस्त कामयाबी यही दर्शाती है। ‘टोटल धमाल’ और ‘हाउसफुल 4’ जैसी बेसिर-पैर की कॉमेडी के कामयाब होने की और क्या वजह हो सकती है? यह तो अच्छा हुआ कि ‘पागलपंती’ को दर्शकों ने नकार दिया। हम भले ही कुढ़ते रहें और विरोध एवं आलोचना में लिखते रहें, लेकिन इस सच्चाई से कैसे इंकार कर सकते हैं कि घटिया मनोरंजन देश के दर्शकों की पहली पसंद है। यही कारण है कि कुछ निर्माता नए विषयों और प्रयोगों में समय और धन खर्च नहीं करते। वे ऐसी ‘नॉनसेंस’ फिल्मों को बढ़ावा देते हैं। पैसे लगाते हैं। निस्संदेह ऐसी फिल्मों का चलना देश के दर्शकों की संवेदनात्मक स्तरीयता भी जाहिर करता है।


अधिकांश दर्शकों की पसंद से आगे बढ़ें तो कुछ दर्शक स्तरीय, गंभीर और नवीन प्रयोगों की फिल्में पसंद करते दिखेंगे। वैसे ही फिल्मों के सुधि दर्शक की संख्या भी कम है। फिर भी उनकी संख्या इतनी हो चुकी है कि किसी फिल्म को हिट की कैटेगरी में ला देते हैं। उनका प्रिय अभिनेता आयुष्मान खुराना है। ऐसे दर्शकों की वजह से ही ‘आर्टिकल 15’, ‘बाला’, ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’, ‘बंबरिया’, ‘नक्काश’, ‘सोनी’, ‘सोनचिड़िया’, ‘मर्द को दर्द नहीं होता’, ‘हामिद’, ‘फोटोग्राफ’, ‘सुपर 30’, ‘जजमेंटल है क्या’, ‘सेक्शन 375’, ‘द स्काई इज पिंक’, ‘झलकी, ‘सांड की आंख’ जैसी फिल्में कमोबेश व्यवसाय कर रही हैं। वास्तव में ‘नए हिंदुस्तान’ के आकाश में ऐसी फिल्में टिमटिमा रही हैं, यही संतोष है।

यही सुकून देता है कि सब कुछ नष्ट नहीं हुआ है। उम्मीद बाकी है। इनमें से कुछ फिल्मों ने स्वस्थ मनोरंजन किया तो कुछ फिल्मों ने दर्शकों को जागृत और सचेत किया। कुछ ने हमें जिंदगी के गैर जरूरी समझे जा रहे पहलुओं के प्रति संवेदनशील किया। आधुनिक समाज की चुनौतियां और समस्याएं परतदार हो चुकी हैं। देश के नागरिक उनसे विभिन्न स्तरों पर जूझ रहे हैं। उनके इस संघर्ष और द्वंद्व को फिल्मों में रोचक और हल्के-फुल्के अंदाज में परोसा जा रहा है।

‘आर्टिकल 15’, ‘मर्द को दर्द नहीं होता’, ‘सोनी’, ‘हामिद’ और ‘सांड की आंख’ 2019 के भारत को दर्शाती उल्लेखनीय फिल्में हैं। इनमें देश के जन-गण की चिंता, आकांक्षा और जीत को देखा जा सकता है। ‘तान्हाजीः द अनसुंग हीरो’ के साथ आई दीपिका पादुकोण की ‘छपाक’ का उल्लेख जरूर ही होगा। इस फिल्म ने एसिड अटैक के प्रति दर्शकों को जागरूक किया। दर्शक/पाठक यह न भूलें कि किसी भी कारण से इस फिल्म के विरोध में गए लोग कहीं न कहीं सामाजिक जिंदगी में ऐसे ‘एसिड अटैकर’ ही हैं। वे ऐसी फिल्मों की भावना के खिलाफ हैं।

हिंदी सिनेमा भारत की सोच, मीमांसा और चिंता को फिल्मों के माध्यम से बखूबी चित्रित कर रहा है। वह हमारी विविधता का सही चित्रकार है। आज का फिल्मकार अपने समय से निरपेक्ष नहीं है। फूहड़ से लेकर गंभीर फिल्मों तक में उसकी सामाजिक सक्रियता देखी जा सकती है। दरअसल, देश के विविध आयामी छटा और दशा के अनुरूप ही फिल्में बन रही हैं। हमेशा की तरह सार्थक हस्तक्षेप कम रहा।

पहले सार्थक हस्तक्षेप के साथ में सरकारी एजेंसियों की सहयोगात्मक भूमिका रहती थी। लेकिन वर्तमान सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह हाथ खींच लिए हैं। प्रगतिशील मूल्यों और परिवर्तनकामी फिल्मों में उनकी कोई रुचि नहीं है। सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में ओटीटी प्टलेफॉर्म के आने से एक नई राह मिली है। अब फिल्में वितरक, प्रदर्शक और थिएटरों की मोहताज नहीं रह गई हैं। वे इन प्टलेफार्म से सीधे दर्शकों के बीच पहुंच रही हैं। समय के साथ देश के दर्शक भी नए विकल्प के साथ आगे बढ़ रहे हैं। हम ‘गंदी बात’ का जिक्र तो करते हैं, लेकिेन ‘लैला’ को भूल जाते हैं। ‘लैला’ 2050 के भारत की भयावह तस्वीर और सच्चाई पेश करती है।

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