अब घर-घर में होगा फर्स्ट डे-फर्स्ट शो, फिल्म देखने के लिए सिनेमाघर जाना नहीं रहेगा जरूरी

इस विकल्प के बावजूद हम जानते हैं कि भारतीय सिनेमा में रुचि-अभिरुचि फिल्म स्टार और खासकर लोकप्रिय स्टार्स की वजह से होती है। अगर चोटी के लोकप्रिय स्टार की फिल्में ‘फर्स्ट डे, फर्स्ट शो’ में उपलब्ध नहीं होंगी, तो दर्शक आरंभिक उत्साह के बाद उदासीन हो जाएंगे।

फोटोः सोशल मीडिया
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अजय ब्रह्मात्मज

सिनेमा देखने का शौक बहुत तेजी से फैल रहा है। अब जरूरी नहीं रह गया है कि सिनेमा देखने के लिए सिनेमाघर ही जाएं। पहले टीवी और बाद में वीडियो के जरिए यह घर-घर में पहुंचा। फिर मोबाइल के आविष्कार के बाद यह हमारी मुट्ठी में आ चुका है। उंगलियों के स्पर्श मात्र से हमारे स्मार्ट फोन पर फिल्में चलने लगती हैं। हम कहीं भी और कभी भी सिनेमा देख सकते हैं।

एक दिक्कत यह रही है कि किसी भी फिल्म के रिलीज के दो महीनों (कम से कम आठ हफ्तों) के बाद ही हम घर में उस फिल्म को देख सकते हैं। पिछले दिनों खबर आई कि अब दर्शकों को आठ हफ्तों का इंतजार नहीं करना होगा। अगर सब कुछ योजना के मुताबिक चलता रहा, तो बगैर सिनेमाघर गए दर्शक ‘फर्स्ट डे, फर्स्ट शो’ देख सकेंगे।

पिछले दिनों जियो टेलीकॉम के सर्वेसर्वा ने अपनी कंपनी की जीबीएम में घोषणा की कि 2020 के मध्य तक वे अपने उपभोक्ताओं को ‘फर्स्ट डे,फर्स्ट शो’ की सुविधा दे देंगे। दरअसल, जियो ब्रॉडबैंड की विस्तार योजनाओं की दिशा में यह पहल की जा रही है। दावा है कि पूरी तरह से एक्टिव होने के बाद जियो ब्रॉडबैंड अपने उपभोक्ताओं को बेहिसाब फिल्में देखने की सुविधा देगा। इसमें सबसे बड़ी सुविधा ‘फर्स्ट डे,फर्स्ट शो’ की होगी।

हम सभी जानते हैं कि देश में सिनेमाघरों की संख्या लगातार कम हुई है। इससे संबंधित चिंताएं और बहसें तो सुनने को मिलती हैं, लेकिन टूट रहे सिंगल स्क्रीन की भरपाई नहीं हो पा रही है। शहरों में मेट्रो में मल्टीप्लेक्स तो हैं, लेकिन उनकी प्रवेश दरें (टिकट) इतनी महंगी हैं कि आम दर्शक चाहने के बावजूद फिल्में नहीं देख पाते। नतीजा यह होता है कि वे फिल्में देखने के अवैध तरीकों का उपयोग करते हैं, छोटे शहरों और कस्बों की तो यह वास्तविक मजबूरी है। बड़ी से बड़ी फिल्में भी छोटे शहरों और कस्बों में नहीं पहुंच पाती। उन्हें अपने आसपास के जिला शहरों में जाकर फिल्में देखनी पड़ती है।

जाहिर सी बात है कि यात्रा व्यय की वजह से इन फिल्मों को देखने का खर्च बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में ज्यादातर दर्शक 10-20 रुपये में पायरेटेड फिल्म खरीदते हैं और आपस में बांटकर देखते हैं। मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु जैसे मेट्रो शहरों में भी फिल्म की रिलीज के दिन ही लोकल ट्रेन, मेट्रो ट्रेन और पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफर कर रहे शहरी आराम से मोबाइल पर ताजा फिल्में देख रहे होते हैं। बेरोकटोक यह सब चल रहा है।


फिर भी निर्माताओं के लिए थिएटर बहुत बड़ा सहारा है। फिल्मों के हिट-फ्लॉप का पैमाना बॉक्स ऑफिस ही है। फिक्की की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में भारतीय फिल्मों का कुल कारोबार 175 अरब अमेरिकी डॉलर था, जिसमें से 75 प्रतिशत कमाई थिएटर के जरिए आई थी। पिछले कुछ सालों में डिजिटल प्लेटफॉर्म तेजी से बढ़े हैं; दर्शकों की फिल्म देखने की प्रवृत्ति में बदलाव आ रहा है। इसके अलावा कुछ दर्शकों के लिए परदे का आकार ज्यादा मायने नहीं रखता। वे सिंपल मोबाइल के रसीदी टिकट साइज के परदे पर भी फिल्म देखने का आनंद उठा लेते हैं। इन सबके लिए ‘फर्स्ट डे,फर्स्ट शो’ किसी लॉटरी से कम नहीं होगी।

पिछले दिनों पीवीआर, आईनॉक्स और कार्निवाल मल्टीप्लेक्स चेन ने आधिकारिक विज्ञप्ति जारी की। विज्ञप्ति में आसन्न संकट के साथ फिल्मों के सामूहिक दर्शन के आनंद की वकालत की गई है। बताया गया है कि समूह में ही फिल्म देखी जानी चाहिए। थिएटर की तकनीकी सुविधाओं से फिल्म के सौंदर्य, रस, दृश्य, आदि का भरपूर आस्वादन लिया जा सकता है। इन तथ्यों से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन अभाव में जी रहा दर्शक फिल्म की तकनीकी खूबियों से अधिक दृश्य और संवादों तक ही सीमित रहता है। उसके लिए संवादों के जरिए उद्घाटित हो रही कहानी ही पर्याप्त होती है।

सिनेमाघरों में जाकर फिल्में देख रहे दर्शकों में बहुत कम ही मानक प्रोजेक्शन से परिचित होते हैं। मेट्रो से लेकर छोटे शहरों तक में सिनेमाघरों के मालिक प्रोजेक्शन की क्वालिटी में कटौती कर मामूली पैसे बचाते हैं। क्वालिटी से अपरिचित दर्शक खराब साउंड और प्रोजेक्शन से ही आनंदित हो जाता है। कमियों और सीमाओं के बावजूद दर्शक यूट्यूब और दूसरे यू स्ट्रीमिंग प्लेटफार्म से प्रसारित शो और फिल्में देख कर क्वालिटी के प्रति सजग हो रहे हैं, उनके पास फिल्में देखने की सुविधाएं नहीं पहुंच पा रही हैं। अगर उन्हें फाइबर के जरिए ब्रॉडबैंड के माध्यम से एचडी क्वालिटी की वीडियो और 5.1 ऑडियो सम्पन्न सिनेमा मिलेगा, तो वे क्यों न टूट पड़ेंगे? अब कमाई में कटौती की आशंका बढ़ी है, तो मल्टीप्लेक्स मालिकों को दर्शकों की चिंता सताने लगी है। वे उन्हें आनंद के तरीके समझाने और बताने लगे हैं।

असल दुविधा, मुश्किल और चिंता इस बात की होगी कि कितने निर्माता-निर्देशक ‘फर्स्ट डे, फर्स्ट शो’ स्कीम के लिए अपनी फिल्में देने के लिए राजी होंगे? इन फिल्मों के प्रसारण अधिकार का मूल्य निर्धारण कैसे होगा? अभी तक फिल्म के प्रचार, फिल्म के स्टार और फिल्म के कारोबार की संभावना के आधार पर सारी चीजें तय होती रही हैं। अब पहले की तरह टेरिटरी के आधार पर मूल्य निर्धारण नहीं होता। अभी तो केवल कारोबार की संभावना के आधार पर स्क्रीन की संख्या तय की जाती है। यह 500 से 5000 के बीच कुछ भी हो सकती है। प्रतिदिन के कलेक्शन के आधार पर फिल्म के हिट या फ्लॉप का निर्धारण होता है।


‘फर्स्ट डे, फर्स्ट शो’ का अधिकार देने के पहले किस आधार पर पैसे तय किए जाएंगे? अभी तक का घोषित-अघोषित नियम है कि थिएटर रिलीज के आठ हफ्तों के बाद ही टीवी, डिजिटल, वीडियो और सेटेलाइट आदि के प्रसारण अधिकार दिए जाएं। ‘राजमा चावल’ और ‘लव पर स्क्वायर फीट’ जैसी फिल्में सीधे स्ट्रीमिंग प्लेटफार्म पर आईं। उनके प्रति दर्शकों का उत्साह थोड़ा कम ही दिखा। ओटीटी प्लेटफॉर्म ने अपने मिजाज के अनुरूप वेब सीरीज का मीडियम विकसित कर लिया है। वहां आठ हफ्ते के बाद फिल्में भी आ जाती हैं, जिन्हें दर्शक अपनी सुविधा से देख लेता है।

‘फर्स्ट डे, फर्स्ट शो’ की संभावना ने नियम, पाबंदी और दूसरों अवरोधों को तोड़ने की एकबारगी उम्मीद दे दी है। दर्शक हर लिहाज से फायदे में रहेगा। परेशानी प्रदर्शकों की बढ़ रही है और निर्माता असमंजस में है। मनोरंजन के कारोबारी और विशेषज्ञ कोई राह निकाल ही लेंगे। नई तकनीक को रोका नहीं जा सकता। सिनेमा पर ऐसे अस्थायी संकट आते रहे हैं। टीवी आया तो सिनेमा खत्म हो रहा था। वीडियो सिनेमा के लिए मौत के फंदे की तरह आया था। डिजिटल क्रांति के बाद सिनेमा के दम घुटने की बातें की जाने लगी।

फिर भी हम देख रहे हैं कि कारोबारी और दर्शक अपने लिए राह निकाल लेते हैं और सिनेमा सरवाइव कर रहा है। नई संभावना के मध्य यह भी कहा जा रहा है कि अगर फिल्में मिलने में दिक्कतें हुई, तो ब्रॉडबैंड कंपनी खुद ही निर्माता-निर्देशकों को फिल्में बनाने का ऑफर देंगी और साल भर का कैटलॉग तैयार कर लेंगी। इस विकल्प के बावजूद हम जानते हैं कि भारतीय सिनेमा में रुचि-अभिरुचि फिल्म सितारों और खासकर लोकप्रिय सितारों की वजह से होती है। अगर चोटी के लोकप्रिय स्टारों की फिल्में ‘फर्स्ट डे, फर्स्ट शो’ में उपलब्ध नहीं होंगी, तो दर्शक आरंभिक उत्साह के बाद उदासीन हो जाएंगे।

देखना यह है कि मनोरंजन की इस रस्साकशी में कौन विजयी होता है? दर्शक तो हर हाल में फायदे में रहेगा। उसे कम फीस देकर अधिक फिल्में देखने को मिलेंगी। ऊपर से ‘फर्स्ट डे, फर्स्ट शो’ का बोनस मिल गया, तो हर शुक्रवार सुहाना और गुलजार हो उठेगा। यह बहुत दूर की संभावना है, लेकिन यह हो भी सकता है कि देश में साप्ताहिक अवकाश का दिन रविवार के बजाय शुक्रवार हो जाए, क्योंकि नई फिल्में शुक्रवार को घर-घर में उपलब्ध होंगी। सिनेमा घर में आ जाएगा, तो सिनेमाघर जाने की जहमत कौन उठाएगा?

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Published: 31 Aug 2019, 8:13 PM