फिल्म इंडस्ट्री को बदनाम करने की 'भगवा' साजिश का दिख रहा असर! लंबी कोशिशों का फल है बॉलीवुड की मौजूदा स्थिति

केंद्र सरकार और भाजपा की अप्रत्यक्ष कोशिशों को सुशांत की संदिग्ध मौत के बाद एक मजबूत टेक मिला। याद करें तो पुलिसिया जांच पर संदेह और उसे हत्या बताने के पीछे एक खास समूह सक्रिय हुआ। उनमें कुछ भाजपाई नेता और समर्थक थे। चैनलों को भी सरकार का यह सुर अच्छा लगा।

फोटो: सोशल मीडिया
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अजय ब्रह्मात्मज

इन दिनों आप फोन पर दोस्तों-रिश्तेदारों से बात करें या अपनी बिल्डिंग में शाम में टहलने निकलें या अपनी गली के परिचित दुकानों से सामान खरीद ने जाएं तो हर जगह से एक ही सवाल पूछा जाता है कि आप तो फिल्मों पर लिखते हैं। देखिए, फिल्म इंडस्ट्री का क्या हाल है? इतनी गंदी और बुरी इंडस्ट्री में आप काम करते हैं? लोगों के मन में यह जिज्ञासा और धारणा है कि फिल्म इंडस्ट्री के ज्यादातर लोग नशेबाज हैं, ‘एंटी-इंडियन’ हैं, हिंदू और हिंदुत्व की बात नहीं करते। यह मुसलमानों की इंडस्ट्री है। सभी व्यवहार से व्यभिचारी हैं। अच्छा हुआ कि इसकी सफाई हो रही है। अभी सब पकड़े जाएंगे। एक बहुत ही लोकप्रिय नैरेटिव बन गया है कि फिल्म इंडस्ट्री एक ऐसा स्वायत्त अड्डा है जिसके अपने तौर-तरीके, नियम- कानून और दांव-पेच हैं। यह इंडस्ट्री‘राष्ट्रहित’ में काम नहीं करती।

फिल्मअभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत के बाद पहले तो नेपोटिज्म और डिप्रेशन की बातें आईं। उसके बाद हत्या की बात चली। मुंबई पुलिस की जांच पर संदेह किया गया। बहुत संगठित तरीके से सुशांत को न्याय दिलाने की मुहिम चली। मामले को सीबीआई को देने की मांग बढ़ी। पटना में एफआईआर दर्ज होने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने केंद्र सरकार से अनुशंसा की। केंद्र की हरी झंडी मिलने के बाद सीबीआई नेत्वरित कार्रवाई की और पूरा मामला अपने हाथों में ले लिया। यह अलग बात है कि दो महीने गुजर चुके हैं और अभी तक कोई नतीजा नहीं आया है। अब सुशांत का परिवार भी सवाल करने लगा है। ऐसे संकेत मिलेहैं कि यह हत्या का मामला नहीं है। हां, ड्रग्स का एंगल खुला है और उसकी नई-नई गिरहें खुलती जा रही हैं। कुछ गिरफ्तारियां भी हुई हैं और कुछ लोकप्रिय अभिनेत्रियों से पूछताछ भी हुई है। यह धारणा मजबूत की जा रही है कि फिल्म इंडस्ट्री के लोकप्रिय चेहरों का बड़ा हिस्सा ड्रग्स और दूसरी बुरी गतिविधियों में शामिल है।

गौर करें और गंभीरता से सोचें तो यह कुछ दिनों और महीनों का मामला नहीं है। यह एक लंबी कोशिश का गुणन फल है जो वर्तमान सत्ता और उसमें मौजूद राजनीतिक पार्टी भाजपा वर्षों से सोच और कर रही है। हमेशा से सत्ता और सतारूढ़ राजनीतिक पार्टी लोकप्रिय संस्कृति के माध्यमों पर निगाह रखती है और चाहती है कि उसकी सोच और राजनीति को कला के लोकप्रिय माध्यमों में इस्तेमाल किया जाए। नई रणनीति बनती है। इसी वजह से सारी नियुक्तियां बदली जाती हैं। हमने देखा है कि भाजपा की सरकार ने फिल्मों से संबंधित संस्थाओं में कैसे अयोग्य व्यक्तियों को बिठाया। सत्ता पर काबिज होने के बाद से ही संघ परिवार और अन्य संगठित समूह फिल्मों में हम खयाल व्यक्तियों की तलाश में जुट गए। कुछ पहले से दक्षिणपंथी स्वभाव और विचारों के थे। वे आगे आए और मुखर हुए। कुछ सत्ता के करीब रहने की चाहत या अनन्य लाभ से फैंस से पार चले गए। इस चाहत और दबाव के बावजूद सत्ता और उसकी पार्टी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी राह सुगम नहीं कर पा रही थी क्योंकि क्रिएटिविटी अपने आप में सेक्युलर गतिविधि है। आप रचने के साथ वंचित, शोषित और हाशिये के व्यक्तियों के समर्थन में चले ही जाते हैं। फिल्मों में भी यह दिखाई पड़ता है। हिंदी फिल्में अपनी शैली में रुढ़िवादी, परंपरावादी और हिंदू बहुल मनोवृत्ति से परिचालित रही हैं लेकिन हमेशा एक समूह प्रगतिशील, प्रयोगवादी और जनहित में रहा है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की मोटेतौर पर सेक्युलर इमेज रही है। अब तो भाजपा के हिमायती कहने लगे हैं कि फिल्म इंडस्ट्री को राष्ट्रवादी और हिंदुत्ववादी हो जाना चाहिए।

तमाम कोशिशों के बादहम देखते हैं कि वर्तमान सरकार की छह सालों की मौजूदगी के बावजूद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री मुख्य रूप से दर्शकों की रुचि और चलन के मुताबिक फिल्में बना रही है। पिछले छह सालों में ऐसी कोई फिल्म नहीं आई है जो स्पष्ट रूप से भाजपा के राजनीतिक विचारों को लेकर चलती हो। हां, कुछ फिल्मों में ‘राष्ट्रवाद के नवाचार’ से प्रेरित और प्रभावित बातें और क्लाइमेक्स जोड़े गए। ‘न्यूइंडिया’ की बात भी की गई। ऐसी फिल्मों में कथित राष्ट्रवादी आक्रामकता और वर्तमान सरकार की पक्षधरता की झलक मिलती है। घोषित रूप से दो फिल्में ऐसी जरूर आईं- एक तो ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ और दूसरी ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’। लेकिन इन दोनों को दर्शकों ने ना पसंद कर दिया। हिंदी फिल्में अभी तक वर्तमान राजनीति का संवाहक नहीं बन पा रही हैं और यह बात सत्ता और सरकार को बहुत पसंद नहीं आ रही है। इन दिनों तो फिल्म इंडस्ट्री में कुछ गुर्गे रखे गए हैं जो इंडि विजुअल को कन्विंस करते हैं। प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर संदेश करवाते हैं। यहां तक कि संदेश के शब्द भी लिख कर देते हैं।

फिल्म इंडस्ट्री और केंद्र सरकार के संबंधों को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखें तो पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समय से हिंदी फिल्मों का एक तबका राष्ट्र निर्माण की भावनाओं से नेहरू के सपनों को फिल्मों में रख रहा था। सिनेमा के इस दौर को अकादमिक क्षेत्र में नेहरू युग भी कहा जाता है। फिल्म इंडस्ट्री की हस्तियों से नेहरू के निजी संबंध थे। वे उन्हें आदर-सम्मान देते थे और भारतीय फिल्म के विकास के लिए नेहरू ने व्यवस्थित प्रयास किए। उन्हीं दिनों फिल्मों से संबंधित संस्थाएं सरकारी मदद से स्थापित की गईं जिनमें सीबीएफसी, फिल्म फाइनेंस कॉरपोरेशन (एनएफडीसी) फिल्म इंस्टीट्यूट, फिल्म फेस्टिवल-जैसे संस्थानों और आयोजनों का नाम लिया जा सकता है। नेहरू इस माध्यम के महत्व और प्रभाव को अच्छी तरह जानते थेऔर उन्होंने इसे विश्वस्तर पर लाने के जरूरी प्रयास किए।

नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री का भी फिल्मों से लगाव रहा। उन्होंने तो मनोज कुमार की ‘शहीद’ देखने के बाद उन्हें अपने नारे‘जय जवान जय किसान’ पर एक फिल्म बनाने की बात कही। मनोज कुमार उनकी बातों से इस कदर प्रेरित हुए कि दिल्ली से मुंबई लौटने के दरमियान ही ट्रेन में उन्होंने‘उपकार’ फिल्म की कहानी तैयार कर ली। ‘उपकार’ के बाद मनोज कुमार की सभी फिल्मों में हम राष्ट्र प्रेम और भारतीयता की बातें देखते हैं। वह इतने मशहूर हुए कि उन्हें ‘भारत कुमार’ भी कहा जाने लगा। लाल बहादुर शास्त्री के बाद इंदिरा गांधी के दौर में भी फिल्मों से नाता बना रहा। फिर जनता पार्टी के दौर में भी फिल्म फिल्मी हस्तियों की सक्रियता राजनीति में बनी रही। फिल्म इंडस्ट्री और केंद्र सरकार का नरम- गरम रिश्ता चलता रहा। फिल्म इंडस्ट्री के प्रति कोई स्पष्ट और खास रवैया नहीं दिखता।

अब अगर वर्तमान समय की बात करें तो भाजपा के सत्ता रूढ़ होने के बाद इस संबंध में तेजी से परिवर्तन और तनाव आए। शुरू में यह अधिक क्लियर नहीं था लेकिन 2015 में अवार्ड वापसी के दौर में जब फिल्मी हस्तियों ने अपने अवार्ड वापस किए और उसकी चारों ओर चर्चा हुई। अंतरराष्ट्रीय स्टार पर भाजपा सरकार की छवि धूमिल हुई तो फिल्म इंडस्ट्री को लेकर सरकार के कान खड़े हुए। असहिष्णुता के खिलाफ बोलने और अपने विचार रखने वाली फिल्मी हस्तियों को ट्रोल किया गया। उन्हें सरकारी विज्ञापनों और आयोजनों से अलग किया गया। स्पष्ट संदेश दिया गया कि अगर आप हमारे सुर में नहीं बोलेंगे तो ऐसे विरोधों का सामना करना पड़ेगा। तभी से सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी ने फिल्म इंडस्ट्री को भेदने और काबू करने की एकाग्र कोशिशें आरंभ की। हम खयाल फिल्मी हस्तियों को जुटाने की प्रक्रिया तेज हुई। केंद्र सरकार और भाजपा की अप्रत्यक्ष कोशिशों को सुशांत की संदिग्ध मौत के बाद एक मजबूत टेक मिला। याद करें तो पुलिसिया जांच पर संदेह और उसे हत्या बताने के पीछे एक खास समूह सक्रिय हुआ। उनमें कुछ भाजपाई नेता और समर्थक थे। चैनलों को भी सरकार का यह सुर अच्छा लगा। उन्हें दोहरा फायदा दिखा। एक तो हां में हां हो गई और दूसरे टीआरपी मिली। सोच-समझकर एक नैरेटिव गढ़ा गया और फिल्म इंडस्ट्री को बदनाम करने की इरादतन कोशिश तेज कर दी गई। फिलहाल इसमें उन्हें सफलता मिलती दिख रही है।

एक चीज तो स्पष्ट है कि जैसे अभी फिल्म इंडस्ट्री के क्रिएटिव दिमाग खामोश और निष्क्रिय हैं, उससे सत्ता और उसके समर्थक अपने नैरेटिव में कामयाब दिख रहे हैं। संयोग कुछ ऐसा है कि कोविड-19 के प्रभाव से सारी फिल्मी गतिविधियां ठप हैं। सभी कोविड-19 से डरे हुए हैं और माना यह जा रहा है कि फिल्म इंडस्ट्री वर्तमान सरकार की आक्रामक खोजबीन से डर गई है। दूसरी तरफ, संसद में जिस तरीके से बातें उठीं और उसके बाद एक धड़ा बहुत एक्टिव हुआ तो मान लिया गया की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का बंटवारा हो गया है- राजनीतिक कारणों से। सच्चाई यह है कि एक ही पक्षबोल और बयान देरहा है। दूसरा पक्ष बिल्कुल खामोश है और यह खामोशी ही सांकेतिक प्रतिरोध और विरोध है।

ताजा हाल यह है कि पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक बड़ी घोषणा की। वह उत्तर प्रदेश के नोएडा इलाके में फिल्म सिटी की स्थापना करना चाहते हैं। उन्होंने आनन- फानन में कुछ फिल्मी मेहमानों को बुलाया और उनके सामने अपने विचार रखे जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा, “वास्तव में हम जिस समाज में, जिस संस्कृति में और जिस देश में निवास करते हैं, उसके बारे में कितना योगदान दे पा रहे हैं? और उसको अपने अंतःकरण से स्वीकार करते हुए भी कि हम अपने लिए तो कर पा रहे हैं... लेकिन कहीं-न-कहीं कोई चूक जरूर हो रही है। कुछ कारणों से जो अपेक्षा इस इंडस्ट्री से, वह कहीं-न-कहीं हम मिस कर रहे हैं। एक अवसर हमें मिलेगा कि हम फिर से इस को आगे बढ़ाएंगे।’ ‘फिल्म इंडस्ट्री से ऐसी कौन सी अपेक्षाथी जो मिस हो रही है...’- इस वक्तव्य में वर्तमान सरकार और उसकी पार्टी की मंशा पहली बार आधिकारिक रूप से जाहिर हुई है। यह सिलसिला अभी नहीं थमेगा। घेरने, काबू करने और बदनाम करने के नए पैंतरे सामने आएंगे।

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