सलमान खान की ‘भारत’ में सिर्फ सलमान खान हैं, भारत तो नजर ही नहीं आता

‘भारत’ आदमी बनाम भारत देश में आदमी ही फोकस में रहा है। ऐसा लगता है कि निर्देशक खुद अपने गढ़े गए नायक के वशीभूत हैं। हो सकता है कि वह किरदार तो नहीं कलाकार के इशारों पर पर चला हो। उसका परिणाम क्या हुआ, एक बेहतरीन फिल्म का साधारण भारतीय संस्करण दर्शकों के बीच पहुंचा।

फोटो: सोशल मीडिया
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अजय ब्रह्मात्मज

ईद के मौके पर अली अब्बास जफर निर्देशित सलमान खान की फिल्म ‘भारत’ रिलीज हुई। पिछले कुछ सालों से सलमान खान ने खुद की फिल्मों के लिए ईद रिजर्व कर दी है। वह सबसे पहले अपनी आगामी फिल्म की घोषणा करने के साथ ही उसकी रिलीज ईद के दिन मुकम्मल कर देते हैं।

फिल्म इंडस्ट्री का रिवाज और सलमान खान का लिहाज रखते हुए कोई और पॉपुलर स्टार उनसे टकराने की कोशिश नहीं करता। इस साल ईद फिल्मों के रिलीज के निश्चित दिन शुक्रवार से दो दिन पहले बुधवार को आ गई, इसलिए फिल्म उसी दिन रिलीज कर दी गई। वीकेंड पांच दिनों का हो गया। उम्मीद थी कि फिल्म का बंपर कारोबार होगा। फिल्म का पहले दिन का कारोबार 42.3 करोड़ रहा, तो ट्रेड पंडित भविष्यवाणियां करने लगे कि फिल्म तीन दिनों में ही 100 करोड़ का कामयाब आंकड़ा पार कर लेगी, लेकिन फिर अगले दो दिनों तक फिल्म फिसलती रही और 100 करोड़ पार करने में उसे चार दिन लग ही गए। नतीजा यह हुआ कि पहले दिन के रिकॉर्ड तोड़ कारोबार के बावजूद फिल्म ‘लड़खड़ा’ गई। फिर भी यह सलमान खान की 14वीं 100 करोड़ी फिल्म है, जिनमें से दो 200 करोड़ और तीन 300 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी हैं।

किसी भी पॉपुलर स्टार के स्टारडम की बढ़त और बचत के लिए ये आंकड़े बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। हम सभी जानते हैं कि इस होड़ में खान त्रयी (आमिर, शाहरुख और सलमान) में शाहरुख पिछड़ चुके हैं। पिछले साल तीनों की फिल्मों ने दर्शकों को निराश किया था। इस साल सलमान खान ने ‘रेस 3’ की तुलना में स्थिति सुधार ली है। बाकी दोनों खान की फिल्में इस साल रिलीज नहीं हो रही हैं। सलमान खान ने बढ़त ले ली है, लेकिन वह आज भी खुद से पिछड़े हुए हैं।

‘भारत’ का ही एक संवाद है...उम्मीद दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है। ‘भारत’ इस बार उम्मीद से कमतर रही। उसकी वजहें हैं। यह फिल्म लोकप्रियता और विषय प्रियता के द्वंद्व में उलझ गई। पारंपरिक दर्शक निराश हुए और कुछ अलग की आस लगाए सुधिदर्शक संतुष्ट नहीं हुए। दोनों की असंतुष्टि का असर फिल्म की सफलता और सराहना पर पड़ा। ‘भारत’ सलमान खानऔर अली अब्बास जफर की जोड़ी की सबसे कमजोर फिल्म सिद्ध हुई। इसे ‘सुल्तान’ और ‘टाइगर ज़िंदा है’ की कामयाबी और तारीफ नसीब नहीं हुई।


सबसे पहले बता दें कि भारत 2014 में आई कोरियाई फिल्म ‘कुक जेसिजंघ’ की हिंदी रीमेक है। यह फिल्म अंग्रेजी सबटाइटल के साथ इंटरनेशनल सर्किट में सराही जा चुकी है। अंग्रेजी में इसका नाम ‘ओड टु माय फादर’ है। अली अब्बास जफर ने हिंदी रीमेक का नाम ‘भारत’ रखा। भारत इस फिल्म के नायक का नाम है और यह फिल्म भारत देश के 63 सालों की इतिहास गाथा पेश करने का दावा भी करती है। ‘भारत’ का टैगलाइन है...एक आदमी और उसके देश की कहानी। फिल्म के टाइटल में भाषा की वजह से आए फिल्म के फोकस में हुए बदलाव पर गौर करें। मूल कोरियाई फिल्म का टाइटल एक स्थान को इंगित करता है। फिल्म में उस स्थान का खास इमोशनल कनेक्ट है।

‘भारत’ में नायक फिल्म के उस भाव के लिए बोलता भी है...हमारे और बाबूजी के वादे के बीच की सबसे बड़ी कड़ी था- हिंद राशन स्टोर। मूल फिल्म में हिंद राशन स्टोर का नाम कुक जेसिजंघ (इंटरनेशनल मार्केट) है। अंग्रेजी में इसका टाइटल ‘ओड टु माय फादर’ रखा गया। फिल्म में बाप-बेटे के रिश्ते का महत्व देखते हुए यह टाइटल उपयुक्त है। हिंदी में रीमेक करते समय स्थान और रिश्ते के महत्व को दरकिनार कर दिया गया। फिल्म का टाइटल नायक के नाम पर ‘भारत’ रख दिया गया। आदमी भारत और उसके देश भारत में नामों की समानता का रचा गया रूपक फिल्म में सोच के हिसाब से व्यक्त नहीं हो पाया। फिल्म देख चुके दर्शक मानेंगे कि भारत में आदमी महत्वपूर्ण हो गया है और देश कहीं पीछे छूट गया है।

सलमान खान और अली अब्बास जफर की तीनों फिल्मों में नायक से फिल्म का टाइटल रखा गया है। ‘सुल्तान’, ‘टाइगर जिंदा है’ और अब ‘भारत’। जाहिर सी बात है कि दोनों के लिए फिल्म की कथा और कथ्य से अधिक महत्व कथानायक का रहा है। अली अब्बास जफर अपने नायक यानी सलमान खान को फिल्म में अधिकतम स्पेस (फुटेज) देते हैं। उनकी अदा, अंदाज और अभिव्यक्ति की सीमा और सामर्थ्य के अनुरूप दृश्य विधान करते हैं। सहयोगी कलाकार और हीरोइन भरपाई और रौनक के लिए होते/होती हैं। सामान्य तौर पर हीरो की प्रमुखता के साथ ही फिल्में फैमिली वैल्यू, शिष्टाचार, हल्के-फुल्के प्रसंग, सहज डांस स्टेप्स और धड़कता गीत-संगीत रहता है।

अली अब्बास जफर की फिल्मों के गीत इरशाद कामिल ही लिखते हैं। इम्तियाज अली की तरह वह अली अब्बास जफर के मन और मिजाज को अच्छी तरह समझते हैं। इन सारी खूबियों और सीमाओं में फिल्म कभी दर्शकों को ज्यादा पसंद आती है, तो कभी कम पसंद आती है। ‘भारत’ कम पसंद आई है।


अली अब्बास जफर ने मूल फिल्म की तरह ही नायक को देश के कॉन्टेक्स्ट में रखा है। कोरियाई फिल्म में 1950 से फिल्म आरंभ होती है। दक्षिण कोरिया के अस्तित्व में आने और राष्ट्र निर्माण तथा राष्ट्रवाद की भावना के तहत अपने ही देश के एक हिस्से से उखड़े और दूसरे हिस्से में आकर बसे नागरिक के विछोह, प्रतीक्षा और पुनर्मिलन की भावुक कहानी दर्शकों को द्रवित करती है। अली अब्बास जफर ने भारत में फिल्म की अवधि बढ़ादी है।

1947 के पार्टीशन से लेकर 2010 तक की इस फिल्म में देश के इतिहास को कुछ घटनाओं और व्यक्तियों से जोड़ा गया है। पार्टीशन, नेहरू का निधन, देश में फैली बेरोजगारी, 1983 का वर्ल्ड कप, 90 के दशक में उभरे शाहरुख खानऔर सचिन तेंदुलकर जैसे दो सुपरस्टार, उसी दशक के आरंभ में वित्त मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा घोषित लिबरलाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन से देशमें आए भारी बदलाव और हर फील्ड में हुई तरक्की का उल्लेख है। लेखक और निर्देशक ने भारत-पाकिस्तान युद्ध, बाबरी मस्जिद का ध्वंस, भगवा राजनीति का उदय आदि ऐतिहासिक घटनाक्रमों को साफ छोड़ दिया है। जरूरी नहीं है कि सारे घटनाक्रम फिल्म के नायक और निर्देशक के लिए महत्वपूर्ण हों, लेकिन दर्शक और समीक्षक के लिए उन्हें नजरअंदाज या दरकिनार करने को समझना महत्वपूर्ण हो जाता है।

मूल फिल्म में देश और नायक के बीच अन्योन्याश्रित संबंध बनता है। ‘भारत’ का नायक देश से असंपृक्त रहता है। वह घटनाओं का उल्लेख अवश्य करता है, लेकिन उनसे प्रभावित होता नहीं दिखता है। सचाई यह है कि हिंदी फिल्मों के लेखक और निर्देशक की व्यावसायिक आकांक्षा और स्टार सिस्टम की चौहद्दी ही उनकी सामाजिक और राजनीतिक समझ और उसके इस्तेमाल के आड़े आ जाती है। ‘भारत’ में नायक और अन्य चरित्रों की टिप्पणियां वास्तव में प्रकारांतर से लेखक और निर्देशक का मंतव्य और समझ जाहिर कर देती हैं।

देश के विभाजन के बारे में पूछने पर नायक बताता है... कुछ समझदार लोगों ने एक कमरे में बैठकर डिसाइड किया कि अगर हमारे देश के बीच एक लकीर खींची जाए, तो लोग शायद ज्यादा खुश रहेंगे। यही लेखक और निर्देशक की इतिहास और पार्टीशन की समझदारी की सीमा है। थोड़ा गहरे उतरकर पंक्तियों की ध्वनि सुनें, तो उनमें वर्तमान सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी के स्वर की अनुगूंज सुनाई देगी।


भारत 2010 में ही ‘नया भारत’ की घोषणा कर देता है। पिता से किए गए वादे और पारिवारिक नैतिकता के बावजूद ‘भारत’ का नायक हिंदी फिल्मों का छिछोरा नायक ही है। उसकी भाषा में विभाजन और परिवार से विछोह का अवसाद नहीं है। वह अधिक पढ़ा-लिखा नहीं है, लेकिन जिंदगी के थपेड़ों और अनुभवों ने भी उसे शिष्ट व्यवहार और भाषा की तमीज नहीं दी है। वह भद्दे मजाक करता है और फूहड़ जबान बोलता है। उसके मुहावरे और उदाहरण हिंदी फिल्मों के टपोरी नायकों से उन्नत नहीं हैं। कहीं न कहीं सलमान खान की लोकप्रिय छवि के दायरे में ही पूरी फिल्म रहती है।

हम सभी जानते हैं कि सलमान खान सीमित एक्सप्रेशन के एक्टर हैं। वह बेहद पॉपुलर जरूर हैं और दर्शकों का व्यापक समूह उनकी खास अदाओं का दीवाना है। फिर भी वह अपनी छवि की कैद में जकड़ गए हैं। दूसरा, असफलता का डर उन्हें निर्देशकों को प्रयोग करने से रोकता है। पुराने निर्देशकों के साथ सलमान खान काम नहीं करते। युवा निर्देशकों को उनकी धौंस सहनी पड़ती है। सलमान खान के जानकार दबी जुबान से कहते रहे हैं कि वह अपनी कामयाबी के लंबे अनुभव के तर्क से सभी को चुप कर देते हैं।

हम देख रहे हैं कि कमोबेश अपनी सोच में वह सफल हैं। भले ही कुछ सालों के बाद उनकी कामयाब फिल्में भुला दी जाएं, लेकिन फिलहाल उनकी तूती बोल रही है। ‘भारत’ आदमी बनाम भारत देश में आदमी ही फोकस में रहा है। ऐसा लगता है कि निर्देशक खुद अपने गढ़े गए नायक के वशीभूत हैं। हो सकता है कि वह किरदार तो नहीं कलाकार के इशारों पर पर चला हो। उसका परिणाम क्या हुआ, एक बेहतरीन फिल्म का साधारण भारतीय संस्करण दर्शकों के बीच पहुंचा।

अगर आप बेहतरीन फिल्मों के दर्शक हैं, तो अवश्य मूल कोरियाई फिल्म देखें। हिंदी फिल्मों के दर्शक निर्देशक और स्टार के विचलन को समझें।

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