बड़े-छोटे पर्दे पर जासूसी कथाओं का मौसम, भारत-पाक तनाव के बीच ‘विजय गाथाओं’ से रोमांचित हो रहे दर्शक

हिंदी फिल्मों के इतिहास के पन्ने पलटकर देखें, तो 1968 में आई फिल्म ‘आंखें’ के समय से जासूसी फिल्में दर्शकों को पसंद आती रही हैं। ‘आंखें’ में तत्कालीन हालात बयान करते संवाद आज भी प्रासंगिक लगते हैं। पर, 51 साल बाद भी हालात नहीं सुधरे, बल्कि खराब हुए हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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अजय ब्रह्मात्मज

देश भर के सिनेमाघरों में भारी भीड़ के साथ चल रही सिद्धार्थ आनंद की ‘वॉर’ मुख्य रूप से जासूसी फिल्म है। कबीर और खालिद के हैरतअंगेज कारनामों की यह रोमांचक फिल्म है। कबीर बागी हो जाता है। खालिद को जिम्मेदारी दी जाती है कि वह उसे खोज कर ‘मार डाले’। खालिद ने कभी कबीर से ही गुर सीखे थे। वह कबीर को गुरु मानता था। अब उसी गुरु से उसका मुकाबला है। खालिद की बैक स्टोरी है। उसके पिता ने देश से गद्दारी की थी। अब उसे परिवार की ‘इज्जत’ भी वापस लानी है। उसके लिए अपनी देशभक्ति दिखाने का यह बड़ा मौका है।

‘वॉर’ आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर रची गई कहानी है। भारत के जांबाज जासूस आतंकवादियों के ठिकानों पर पहुंचकर उन्हें समाप्त करने का साहस और जोश रखते हैं। कबीर और खालिद की यह कहानी देश की रक्षा के लिए समय रहते आतंकवादियों के मंसूबों को विफल करने की पहलकदमी की वजह से दर्शकों में विजय का एहसास कराती है। फिल्म देखते समय आम दर्शक फिल्म के प्रमुख किरदारों की स्फूर्ति और आक्रामक मुद्राओं से जोश में भर जाता है। ऊपर से ‘नेशनलिज्म’ का नशा तारी होता है। यकीनन ‘वॉर’ की कामयाबी में ऋतिक रोशन और टाइगर श्रॉफ के परफेक्ट एक्शन सीक्वेंस हैं, लेकिन उसकी थीम भी दर्शकों की अभिरुचि को आधार देती है। यही वजह है कि ‘वॉर’ की जासूसी कथा दर्शकों को लुभा रही है।

सचमुच, बड़े और छोटे पर्दे पर जासूसी का मौसम आ गया है। भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ने के साथ दर्शक रोमानी और काल्पनिक विजय गाथाओं में पूरी रुचि ले रहे हैं। वे ‘उरी’ पसंद करते हैं। दशकों से भारत पर मंडराते आतंकवाद के साए और घुसपैठ ने देश के नागरिक/दर्शकों को सचेत करने के साथ जिज्ञासु भी बना दिया है। पर्दे पर नायकों द्वारा आतंकवादी सरदारों के सफाए से उन्हें दोगुनी आत्मिक खुशी मिलती है। बीते महीनों में ‘राजी’ और ‘रोमियो अकबर वॉल्टर’ में हमने भारतीय जासूसों की सच्ची और साहसी कहानी तथा उनकी सफलता देखी। ‘वॉर’ भी उसी पृष्ठभूमि की फिल्म है। इसमें एक्शन का एक्स्ट्रा विस्तार है, जिसे हिंदी फिल्मों के पॉपुलर स्टार ऋतिक रोशन और टाइगर श्रॉफ ने पूरे प्रभाव के साथ निभाया है।

हिंदी फिल्मों के इतिहास के पन्ने पलटकर देखें, तो 1968 में आई रामानंद सागर की फिल्म ‘आंखें’ के समय से जासूसी पृष्ठभूमि की फिल्में दर्शकों को पसंद आती रही हैं। ‘आंखें’ में तत्कालीन वस्तुस्थिति को बयान करते संवाद वर्तमान में भी प्रासंगिक लगते हैं। पिछले 51 सालों में ये स्थितियां सुधरने के बजाय और बदतर हुई हैं। नायक के पिता बताते हैं, ‘बड़ी-बड़ी ताकतें हिंदुस्तान की डेमोक्रेसी और प्रजातंत्र को खत्म करना चाहती हैं। उन्होंने हिंदुस्तान के चारों तरफ जाल फैला रखा है। हथियार सप्लाई कर रहे हैं।’


इसी फिल्म में वह आगे कहते हैं, ‘हमें मालूम है कि हथियार किस मुल्क से आते हैं?’ तब संकेत मात्र था। मुल्क का नाम नहीं लिया गया था। अब मुल्क का नाम भी लिया जाता है और ‘न्यू इंडिया’ में घर में घुसकर मारने की बात की जाती है। बेधड़क पाकिस्तान का उल्लेख किया जाता है। प्रचारित सर्जिकल स्ट्राइक के बाद फिल्मों, खबरों और शहरों-कस्बों की बैठकों में धड़ल्ले से पाकिस्तान का जिक्र खलनायक की तरह होता है। पाकिस्तान की कमजोर हालत देखकर ऐसी बातों और किस्सों में अतिरिक्त खुशी मिलती है। फिल्में और वेबसीरीज इसी का लाभ उठा रही हैं।

51 सालों के अंतराल पर आई ‘आंखें’ और ‘वॉर’ को आगे-पीछे देखें तो एक्शन और अप्रोच में जमीन आसमान का अंतर दिखेगा। ‘आंखें’ और उसके बाद की अनेक फिल्मों में जासूसी के साथ रोमांस, एक्शन और गाना-बजाना भी रहता था। आज भी इन्हीं मसालों का इस्तेमाल होता है। बस समय के साथ उनकी मात्राओं में फर्क आ गया है। ‘वॉर’ में रोमांस और गाने-बजाने से अधिक फोकस एक्शन पर है। निर्देशक सिद्धार्थ आनंद को दोनों जासूसों की भूमिकाओं के लिए सक्षम अभिनेता मिले हैं, तो उनका सदुपयोग वाजिब रहा। कुछ समीक्षकों ने यह भी रेखांकित किया कि दोनों लोकप्रिय अभिनेताओं की सुडौल देहयष्टि दर्शकों को नयन सुख भी दे रही है। फिल्मों का यह नया सौंदर्यबोध है, जो पर्दे पर देह दर्शन की पुरानी धारणा बदल रहा है। कैमरा नायिकाओं के बदन से खिसक कर नायकों की देह पर टिक रहा है।

बड़े पर्दे पर इसी साल ‘रॉ’ और ‘वॉर’ का आनंद उठा रहे दर्शकों को छोटे पर्दे पर भी जासूसी की खुराक परोसी जा रही है। ओटीटी प्लेटफॉर्म ‘अमेजॉन’ और ‘नेटफ्लिक्स’ पर 15 दिनों के अंदर दो जासूसी वेबसीरीज आए। दोनों ही देखे और सराहे जा रहे हैं। उनकी बातें हो रही हैं।

राज और डीके निर्देशित ‘द फैमिली मैन’ और रिभ दासगुप्ता निर्देशित ‘बार्ड ऑफ ब्लड’ एक्टिंग, लोकेशन, कहानी, प्रोडक्शन डिजाइन और प्रस्तुति के लिहाज से आला दर्जे की वेबसीरीज का फील दे रही हैं। अभी तक विदेशों की वेबसीरीज से भारतीय दर्शक जासूसी कथाओं की खुराक पूरी कर रहे थे। अब उन्हें अपनी भाषा में देश के किरदारों को देखने का मौका मिल रहा है। वे परिचित स्थितियों में मिशन पर निकले हैं और कामयाब हो रहे हैं। हिंदी फिल्मों का प्रचलित मेलोड्रामा भी इनमें भरपूर है। उसके साथ तनाव ढीला करने के लिए कॉमेडी का ट्रैक भी चलता रहता है।

‘द फैमिली मैन’ में मनोज वाजपेयी पारिवारिक जिम्मेदारियों और नौकरी के दायित्व के बीच उलझे मध्यवर्गीय जासूसी किरदार में हैं। नायक का दैनंदिन जीवन देश के किसी भी छोटे, मझोले और बड़े शहर के वेतनभोगी नौकरीशुदा मध्यवर्गीय कर्मचारी की दास्तान लगती है। वही अभाव और मुश्किलें... बीवी की खिच-खिच, बच्चों की शैतानियां और घर खरीदने के लिए कर्ज की चिंताओं के बीच देश की रक्षा की जिम्मेदारी भी। जिसे परिवार और दोस्तों से शेयर भी नहीं किया जा सकता। मनोज वाजपेयी ने इस किरदार को बखूबी निभाया है। उन्हें शरीब हाशमी, प्रियामणि और निखिल माधव जैसे सहयोगी कलाकारों का पूरा सपोर्ट मिला है।


‘द फैमिली’ मैन की कहानी बलूचिस्तान, अफगानिस्तान-पाकिस्तान के बॉर्डर, कश्मीर, तालिबान, आईएसआई, आईएसआईएस आतंकवादी संगठन और मुस्लिम आतंकवाद को समेटती है। ‘बार्ड ऑफ ब्लड’ की भी यही जमीन है। इसमें देश के तीन जासूस इमरान हाशमी, विनीत कुमार सिंह और शोभिता धुलिपाला को हम खतरनाक मुकाम में पाते हैं। वे एक असंभव मिशन को पूरा करने में लगे हैं। इस सीरीज में हमें कृति कुल्हाड़ी, जयदीप अहलावत और दानिश खान जैसे कुछ समर्थ कलाकार भी देखने को मिले हैं।

‘बार्ड ऑफ ब्लड’ बिलाल सिद्दीकी की इसी नाम की किताब पर आधारित है। कथाभूमि मुख्य रूप से बलूचिस्तान और पाकिस्तान-अफगानिस्तान का बॉर्डर है। ‘वॉर’ की कथाभूमि भी यही है। वास्तव में भारत के पड़ोस का यह उत्तर पश्चिमी इलाका देश के विभाजन के बाद से ही कमोबेश अस्थिर, अशांत और उपद्रवी रहा है। उसके राजनीतिक और ऐतिहासिक कारण भी हैं, लेकिन आम दर्शकों को इतिहास के पन्नों से क्या मतलब? उन्हें तो रोमांचक आनंद आ रहा है। उनके नायक आतंकवादियों को पछाड़ रहे हैं। दर्शकों के आनंद का सबूत है कि सात घंटे के ‘द फैमिली मैन’ और पांच घंटे के ‘बार्ड ऑफ ब्लड’ के साथ ‘वॉर’ के ढाई घंटे मिला दें तो साढ़े चौदह घंटे के स्पाई थ्रिलर में डूबे हुए हैं।

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