शिटपोस्टिंगः ऐसी पुरानी फिल्मों का जश्न, जिन्हें सिनेमा इतिहास में भी जगह न मिले

बॉलीवुडशिटपोस्ट्स ने ‘बहिष्कार’ के दौर में नवाजुद्दीन सिद्दीकी के सेक्रेड गेम्स वाले चरित्र के बहाने एक मीम में उन्हें एक ट्रोल के रूप में पेश किया जो बताता है कि किस तरह सुबह नींद से जागना, नहाना, बायकाट करना और फिर सो जाना ही उसकी जिंदगी हो गई है।

फोटोः सोशल मीडिया
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नम्रता जोशी

राहुल भट्टाचार्य (बदला हुआ नाम) बॉलीवुड के स्ट्रगलर लेखक हैं। दिन-रात एक कर नेटवर्क बनाने की जुगत में हैं। दिल्ली का यह लड़का नब्बे के दशक वाले मुख्यधारा के सिनेमा दिग्गजों यश चोपड़ा, सुभाष घई, करण जौहर, राम गोपाल वर्मा और अब्बास मस्तान को देखते हुए, जहन में उनकी मूर्तियां गढ़ते जवान हुआ लेकिन लॉकडाउन के संकट में इसका असल जुनून हवा हो गया।

फिर उसने नई राह तलाशी। ‘बॉलीवुडशिटपोस्ट्स’ नाम से इंस्टटाग्राम अकाउंट बनाया और अपेक्षाकृत कम बढ़िया या औसत दर्जे वाली फिल्में, टीवी शोज शोकेस करने लगा। फाईनेंसियल टाइम्स ने इस पर टिप्पणी की “शिटपोस्टिंग ऐसा ऑनलाइन मंच है जो अपनी संदर्भहीन और फूहड़ सामग्री से किसी भी चर्चा को बड़े आराम से पटरी से उतारती है और इसके लिए आम तौर पर ‘फोटोशॉप्ड मीम’ का सहारा लेती है।

पिछले हफ्ते बॉलीवुडशिटपोस्ट्स ने कुछ ऐसा किया जो तनावग्रस्त बॉलीवुड को मुस्कुराने का बहाना देने वाला था। ‘बहिष्कार’ के दौर में इसने नवाजुद्दीन सिद्दीकी के सेक्रेड गेम्स वाले चरित्र के बहाने एक मजाकिया मीम में उन्हें एक ट्रोल के रूप में पेश किया जो बताता है कि किस तरह सुबह नींद से जागना, नहाना, बायकाट करना और फिर सो जाना ही उसकी जिंदगी हो गई है। राहुल के इस इंस्टा प्रयास के पीछे ‘फिल्मों के अजब-गजब’ को मंच देना है। राहुल मार्क हार्टले की डाक्यूमेंटरी ‘नॉट क्ववाइट हॉलीवुड’ और आस्ट्रेलिया के बी ग्रेड, कम बजट वाले ‘ओजप्लायटेशन’ सिनेमा से खासे प्रभावित हैं जिसके मूल में हॉरर और हल्की-फुल्की कॉमेडी है।

ऐसा करने वाले राहुल अकेले नही हैं। इंटरनेट के आभासी आकाश पर ऐसे तमाम लोग डेरा डाले मिलेंगे। ट्वविटर और इंस्टाग्राम पर दिखने वाला ‘बॉलीलिरिक्स’ खराब फिल्मी गानों के शो-केस के तौर पर चर्चित है। शायद सलमान खान की राधे का ‘कोई बने बैड तो मैं उसका भी डैड’ जैसी लाइनें इनकी प्रेरणा है।


लेकिन फिर फेसबुक पर ‘आई लव ट्रैशी (कचरा) हिंदी मूवीज’ जैसा लोकप्रिय ग्रुप भी है जो मिथुन चक्रवर्ती को अपना ‘संत-संरक्षक’ और ‘गुंडा’ को अपना ‘बाइबिल’ मानता है। इसका दर्शन बहुत साफ है और फेसबुक पेज पर दर्ज भी: “अगर आप कम दिमाग खाने वाली, बेसिरपैर की, बी ग्रेड, कचरा या कैसी भी हिन्दी फिल्म देखना पसंद करते हैं तो यह ग्रुप आपके लिए है। और अगर आपने ‘आतंक ही आतंक’, ‘दरियादिल’, ‘फ्री एंट्री’, ‘जुल्म की हुकुमत’, ‘खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान’ देख रखी हैं तो हम आपको ग्रुप के मॉडरेटर राइट्स तत्काल देने में कोई कोताही नहीं करेंगे।”

यहां ‘कचरा’ की परिभाषा बहुत साफ है: “कचरा हमारे लिए एक क्लिशे है। मतलब कोई चीज इतनी बुरी हो कि वाकई अच्छी लगने लगे… सफेद जूते, खलनायक, अजीबोगरीब संवाद, रोती हुई माएं, तकिया कलाम… इसके कुछ उदाहरण हैं। कुछ इतना उबाऊ जिसमें किसी की कोई दिलचस्पपी न हो।”

बारह साल से ज्यादा पुराने इस ग्रुप में कंपनियों के सीईओ, आईआईएम स्नातक, इंजीनियर, फिल्मों में किसी भी तौर से रुचि रखने वाले और भांति-भांति के तमाम अन्य लोग हैं। समूह के संस्थापक सदस्य और एडमिन में से एक पटकथा लेखक वैभव विशाल कहते हैं: एक जैसा सोचने वालों के इस छोटे से समूह ने अपनी ही स्टाइल में जिंदगी जीना शुरू किया और हर बीतते दिन के साथ इसका आकार बड़ा होता गया।”

इन पन्नों, साइटों और हैंडल से परे भी कुछ लोग हैं जो इस पॉपुलर कल्चर की तलाश और संग्रह में जुटे हैं। प्रज्ञान मोहंती के ट्वविटर पर तो पॉपुलर सिनेमा के बारे में काफी कुछ उपलब्ध है जो फिल्मी अध्ययन करने वालों के लिए एक अच्छा प्लेटफार्म बन चुका है।


क्वींस यूनिवर्सिटी, किंग्सटन की एसोसियेट प्रोफेसर अदिति सेन को तो फिल्मों में प्रदर्शित वस्तुओं और प्रॉपर्टी से इतना प्यार है कि उनके दो टम्ब्लर (माइक्रो ब्लॉगिंग साइट) पर इनके बारे में बहुत कुछ मिल जाता है। सत्यजीत रे और उत्तम कुमार की फिल्मों वाले परिवेश में बड़ी हुई अदिति ने, पता नहीं कब, बॉलीवुड के बी-ग्रेड सिनेमा से दोस्ती कर ली और बाबू, पापी पेट का सवाल है, डाकू सहित रामसे बंधुओं की ड्रैकूला जैसी घटिया हॉरर फिल्में उनकी रुचियों में शामिल हो गईं।

फिल्मों में पागलपन सेलेब्रेट करने का भी तरीका होता है। बस, कंटेंट को ‘शिटपोस्टिंग’ और ‘कचरा’ मानकों पर ‘खरा’ उतरना चाहिए! लेकिन यह सब कुछ भी चाहा और पोस्ट कर देना नहीं है। इसका भी एक अनुशासन है और कोई भी तस्वीर या पोस्टर लगाने या पोस्ट करने के साथ ही उनकी पूरी जानकारी और उसे पोस्ट करने का तर्क देना होता है। वैभव कहते हैं: “यह उस दौर के बारे में है जब हम बड़े हो रहे थे, वह मासूमियत, वे लमहे और यादें जिन्हें हम ‘बकवास’ कहते हैं।”

इस सारी सिनेमाई मौज-मस्ती और जुनून के मूल में इरादा एक खास तरह के सिनेमा का उत्सव मनाने का है जिसे अन्यथा सिनेमा के इतिहास में जगह न मिलती। राहुल कहते हैं: “यह सिनेमा के इतिहास के एक बंद अध्ययाय को विश्वसनीयता और सम्मान दिलाने के बारे में है।”

आखिर इन बी-ग्रेडर्स में खास क्या है? राहुल कहते हैं: “उन फिल्मों में मजेदार आइडियाज हैं। इनके निर्माताओं का जुनून काबिले तारीफ था।” आज के व्यवस्थित, कॉरपोरेट सिनेमा में यह जुनून ही तो नहीं दिखता। चीजें सपाट और उबाऊ हैं। राहुल की नजर में ‘गुंडा’ एक बेहतरीन, टारंटिनो (अमेरिकी फिल्मकार) की किसी फिल्म जैसी है। इसका क्रियान्वयन फूहड़ या खराब हो सकता है लेकिन यही पात्र टारंटिनो के हाथ लग जाते तो नतीजे जादुई हो सकते थे।

मिथुन और हाल के दिनों में बॉबी देओल खराब फिल्मों के कारण ही कल्ट आइकॉन (दर्शक विशेष के चहेते) बन गए। अदिति कहती हैं: “गुंडा एक बड़ा टर्निग पाइंट था, यह नई लकीर खींचने वाली कल्ट फिल्म थी।”


वास्तव में मिथुन चक्रवर्ती की ‘ऊटी’ फिल्मों (अपने होटल व्यवसाय के चक्कर में वे वहीं एक शेड्यूल में शूट करते थे) को देखें तो सारी की सारी एक जैसी थी- गुंडों से मारामारी और उन्हें मार देना। राहुल कहते हैं: “लेकिन हर बार अलग सोचने की चुनौती थी।” और वह कामयाब रहे। अनायास नहीं है कि वैभव को चांडाल और जल्लाद शानदार लगती हैं।

अदिति को मौज-मस्ती और विचारों का आदान-प्रदान पसंद है लेकिन इस ऑनलाइन उत्सव में उन्हें कुछ कमी लगती है। उन्हें लगता है कि इसमें आम दर्शक और उसकी मासूम भगीदारी के लिए वैसी जगह नहीं है जैसी होनी चाहिए। इसके बजाय यह आम दर्शक के सौंदर्यबोध की बात करता है लेकिन इसकी परख अपने शहरी चश्मे से करता है। ताज्जुब से कहती हैं: इसमें हंसी तो हो सकती है, लेकिन क्या सहानुभूति भी है?

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