बढ़िया स्टोरी और डायलॉग के साथ ‘बौने’ शाहरुख ने कर दिया ‘ज़ीरो’ में जादू

फिल्म जीरो की कहानी उन किरदारों की है जिनकी शारीरिक कमजोरी दरअसल सामान्य समाज की भीतरी कमजोरियों का प्रतीक है। हम सभी परफेक्ट नही हैं, लेकिन अपनी कमजोरियों के बावजूद जब हम प्रेम करते हैं तो वह हमारे अंदर के नायक की अच्छाई और भलमनसाहत को जगाता है।

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प्रगति सक्सेना

पिछले साल ‘हैरी मेट सेजल’ के बॉक्स आफिस पर धड़ाम होने के बाद शाहरुख खान ने इस साल ‘जीरो’ के साथ शानदार वापसी की है। यही शाहरुख खान की खासियत है। जब भी ऐसा लगने लगता है कि अब किंग खान के दिन लदने वाले हैं, वो कुछ ऐसा कर जाते हैं कि एक बार फिर उनकी तारीफ होने लगती है।

‘जीरो’ के हर सीन में निर्देशक की मेहनत नजर आती है। तकनीकी स्तर पर हीरो को हर फ्रेम में बौना दिखाना काफी चुनौतीपूर्ण रहा होगा। निर्देशक आनंद एल राय ने सफलतापूर्वक इस चुनौती का सामना किया है। फिल्म एक बार फिर ये साबित करती है कि अगर स्टोरी और संवाद अच्छे हों तो ‘एसआरके’ पर्दे पर जादू कर सकते हैं।

मगर बहुत ज्यादा उम्मीद ना रखें। है तो ये एक विशुद्ध हिंदी रोमांटिक फिल्म ही। लेकिन किरदार कुछ अलग हैं। हालांकि हीरो अपने इशारे से आसमान में तारा तो गिरा सकता है, लेकिन वो एक बौना है और तमाम किस्म की कमजोरियां भी हैं उसमें। बौना होने की वजह से अपने परिवार और बाहर वालों के ताने सुन-सुन कर बउवा सिंह अक्खड़, स्वार्थी और निकम्मा तो है, लेकिन उसमें अपने ही ऊपर हंसने की काबिलियत है। वह सपने देखता है और यही सब बातें उसे खास बनाती हैं। अपनी कमजोरियों को बउवा सिंह अपने बाप के पैसे से मिटाने की कोशिश करता है।

बउवा सिंह प्यार करने लगता है एक साइंटिस्ट से जो सेरिब्रल पाल्सी की शिकार है। उसे शादी के दिन छोड़ कर भागता है एक फिल्म स्टार की खातिर जो खुद बार-बार प्रेम में धोखा खा कर भीतर से टूटी हुई है। बउवा सिंह का सबसे अच्छा दोस्त भी नजर से कमजोर है और हमेशा टार्च साथ लेकर चलता है।

ये कहानी उन किरदारों की है जिनकी शारीरिक कमजोरी दरअसल सामान्य समाज की भीतरी कमजोरियों का प्रतीक है। हम सभी परफेक्ट नही हैं, लेकिन अपनी कमजोरियों के बावजूद जब हम प्रेम करते हैं तो वह हमारे अंदर के नायक की अच्छाई और भलमनसाहत को जगाता है।

किरदार दिलचस्प हैं और कहानी और भी दिलचस्प हो सकती थी, लेकिन हिंदी फिल्में अक्सर स्टोरी बिल्डअप करने में ही इतना वक्त जाया कर देती हैं कि कहानी उबाऊ हो जाती है। फिल्म की गति भी कहीं-कहीं धीमी पड़ने लगती है।

बउवा सिंह के दोस्त के रोल में जीशान अयूब खूब जमे हैं। कैटरीना का रोल फिल्म में छोटा है, लेकिन ठीक-ठाक है। हालांकि, सेरिब्रल पाल्सी से पीड़ित एक साइंटिस्ट के रोल में अनुष्का शर्मा काफी कमजोर दिखती हैं, लेकिन उनकी मेहनत झलकती है।

मेरठ के बउवा सिंह की ठेठ जबान बोलते नफीस शाहरुख शुरुआत में कुछ अजीब लगते हैं, लेकिन धीरे-धीरे वह एक चालू शरारती और मतलबी लेकिन क्यूट बउवा सिंह के तौर पर प्यारे लगने लगते हैं। फिल्म के संवाद चुस्त हैं, बल्कि जब फिल्म उबाऊ होने की कगार पर आने लगती है तो ये संवाद ही उसे फिर पटरी पर ले आते हैं। फिल्म का संगीत ठीक-ठाक है। एक गीत ‘मैं रोज रोज तन्हा’ के अलावा किसी गीत में मौलिकता नहीं नजर आती। कुल मिला कर यह फिल्म एक दिलचस्प रोमांटिक कॉमेडी है जिसे एक बार देखना तो बनता है।

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