फिल्मी दुनिया और राजनीति का रिश्ता जितना पुराना है, उतनी ही पुरानी है मोहभंग और खटास की कहानी

नेताओं के मुकाबले सिनेमा वालों में छल प्रपंच कम होता है। वे अभिनय के खिलाड़ी तो होते हैं, लेकिन राजनीति के नहीं। कई मामलों में वे चीजों को फेस वैल्यू पर लेने के आदी होते हैं। राजनीति में ऐसा नहीं होता और इसीलिए ज्यादातर सिनेमा वाले इसे संभाल नहीं पाते।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

बीजेपी सांसद और अभिनेता परेश रावल ने इस बार चुनाव लड़ने से मना कर दिया है। उनका कहना है कि उन्होंने जिस पार्टी का समर्थन किया है, उसी का नैतिक समर्थन करते रहेंगे, लेकिन अब चुनाव नहीं लड़ेंगे। उन्होंने इसके पीछे निजी कारणों का हवाला दिया है।

आमतौर पर, ऐसे मामलों में ‘निजी कारण’, दरअसल, रिश्तों में आई खटास, उम्मीद के विपरीत बनी परिस्थितियां और मोहभंग वगैरह होता है। परेश रावल के साथ ऐसा नहीं हुआ होगा, इसका कोई कारण नहीं दिखता। लेकिन फिलहाल, वह उस पार्टी या नेताओं के खिलाफ कुछ भी ज्यादा बोल पाने की स्थिति में नहीं होंगे जिनके गुण वह अभी तक गाते फिरते रहे हैं।

हिंदी सिनेमा और राजनीति के रिश्ते जितने पुराने हैं, उतनी ही पुरानी है इन दोनों के बीच मोहभंग और खटास की कहानी। अमिताभ बच्चन से शुरुआत करें। वह सांसद बने, लेकिन बाद में राजनीति से तौबा कर ली। वैसे, बच्चन के आलोचक मानते हैं कि बच्चन खुद बड़े राजनीतिक हैं और हर उस राजनीतिक दल या नेता से बना कर रखते हैं जिनसे उनको फायदे की उम्मीद है। भले ही, मुंबई में शिवसेना हो, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी हो या केंद्र में बीजेपी!

जिन कुछ फिल्मी सितारों ने राजनीति को गंभीर काम समझा, उनमें सुनील दत्त सबसे आगे थे। सुनील दत्त ने जब तक राजनीति की, बड़ी गंभीरता से की। इस दौरान, उन्होंने न के बराबर फिल्में की। मुंबई के अपने संसदीय क्षेत्र में लगातार काम किया। बड़े लोकप्रिय रहे। केंद्रीय मंत्रालय भी जिम्मेदारी से संभाला। लेकिन राजनीति से दुखी वह भी हुए। दत्त साहब को जानने वाले कहते हैं कि अपने आखिरी दिनों में उनका भी राजनीति से मन खट्टा हो चुका था।

जिन फिल्मी सितारों ने राजनीति को सिर्फ एक टाइम पास समझा, उनमें गोविंदा सबसे आगे कहे जा सकते हैं। अपनी राजा बाबू की फिल्मी छवि के अनुरूप ही गोविंदा राजनीति में भी राजा बाबू ही बने रहे। हालांकि, गोविंदा ने मुंबई में एक बड़े और घाघ नेता को हराकर संसद में प्रवेश किया था। लेकिन संसद में सिर्फ उनका शरीर पहुंचा, आत्मा बॉलीवुड में ही अटकी रही। न तो गोविंदा को अपने संसदीय क्षेत्र के लोगों से कोई मतलब था और न ही पार्टी के हितों से।

नतीजा यह हुआ कि पार्टी ने भी जल्दी समझ लिया कि इनकी राजनीतिक गाड़ी ज्यादा लंबी चलेगी नहीं। हां, राजनीति से गोविंदा को एक नुकसान यह जरूर हुआ कि सिनेमा वालों ने भी उन्हें गंभीरता से लेने से मना कर दिया। फिल्में मिलनी बंद हो गईं। दो नावों पर सवारी हो नहीं पाई। गोविंदा ने अब राजनीति से संन्यास ले लिया है और फिल्मों पर मन और ध्यान लगाना शुरू कर दिया है।

अक्सर आप कुछ भी बकवास करने वाले नेताओं के मुंह से सिनेमा वालों के लिए ‘नाचने गाने वाले’ जैसे संबोधन सुनते होंगे। सिनेमा के बारे में नेताओं की आम धारणा भी यही है। सिनेमा उनके लिए सिर्फ मनोरंजन है। सिनेमा को एक गंभीर विधा के तौर पर वे नहीं देख सकते। उनके अंदर इतनी तमीज नहीं है। लेकिन उन्हें मालूम है कि सिनेमा वाले न केवल भीड़ खींच सकते हैं, बल्कि भीड़ को वोट में भी तब्दील कर सकते हैं। किसी बड़े नेता की मिट्टी पलीद करनी हो, तो किसी बड़े लोकप्रिय अभिनेता या अभिनेत्री को उसके सामने खड़ा कर दो।

राजेश खन्ना के सामने खड़े लाल कृष्ण आडवाणी जैसे दिग्गज नेता भी हिल गए थे। अखिलेश यादव के खिलाफ भोजपुरी स्टार निरहुआ को खड़ा करने का बीजेपी का फैसला भी यही दिखाता है। निरहुआ खूब भीड़ बटोर रहे हैं। उधर मुंबई में एक और अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर भी भीड़ खींच रही हैं।

राजेश खन्ना दिल्ली से सांसद बने। संसद गए, लेकिन बाद में चमक खोने के बाद दिल्ली के एक मोहल्ले में किराए के मकान में कई महीने गुजारने के बाद वह मुंबई लौट गए और राजनीति से तौबा कर ली। उनके सहयोगी रहे अभिनेता विनोद खन्ना ने भी राजनीति की, लेकिन उनके अंदर भी धीरे-धीरे इसके प्रति बेरुखी आ रही थी। बतौर सांसद, अपने वक्त और संसद, दोनों ही जगहों में उनकी उपस्थिति में हो रही कमी से पता चलने लगा था कि अब वह भी राजनीति को आराम देने के मूड में हैं। लेकिन नियति ने उन्हें हमेशा के लिए आराम दे दिया।

आप कुछ भी कह लीजिए, नेताओं के मुकाबले सिनेमा वालों में छल प्रपंच कम होता है। वे अभिनय के खिलाड़ी तो होते हैं, राजनीति के नहीं। कई मामलों में वे चीजों को फेस वैल्यू पर लेने के आदी होते हैं। राजनीति में ऐसा होता नहीं। वहां सिर्फ राजनीति चलती है। ज्यादातर सिनेमा वाले इसे संभाल नहीं पाते। वे ‘पावर’ की तलाश में आते हैं, ‘पावरलेस’ होकर लौट जाते हैं।

हां, यह भी उतना ही सही है कि कुछ ऐसे फिल्मी सितारे होते हैं, जिन्हें देख कर कहा जा सकता है कि वे क्यों राजनीति में आए, कहना मुश्किल है। रेखा को ले लीजिए। गिनी चुनी बार संसद आईं और चली गईं। धर्मेंद्र बाकायदा चुनाव जीत कर संसद में आए लेकिन शुरू से लगा कि वह बेवजह, शायद किसी दवाब में आ गए हैं। वह सीधे-सादे सरल स्वभाव के व्यक्ति हैं। राजनीति में मिसफिट होकर रह गए। लौट गए।

एक बात काबिले गौर है। सिनेमा की कुछ महिलाओं का प्रदर्शन कई मामलों में अपने पति से बेहतर रहा। चाहे वे जया बच्चन हों , हेमा मालिनी हों या किरण खेर। जया प्रदा भी अभी तक टिकी तो हैं कम से कम। सुनील दत्त के अलावा, एक और अभिनेता जिन्होंने गंभीरता से राजनीति की, उनमें शत्रुघ्न सिन्हा भी एक हैं। इस बार, उनका उनकी पुरानी पार्टी से मोहभंग हुआ है, लेकिन यह राजनीति से मोहभंग नहीं है। एक व्यक्ति विशेष से है। पटना से चुनाव लड़ रहे शत्रुघ्न सिन्हा इस बार भी अपने सामने खड़े एक केंद्रीय नेता रवि शंकर प्रसाद को कड़ी टक्कर देंगे, यह उम्मीद सभी लगा रहे हैं।

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