आज देश में वैकल्पिक नैरेटिव के लिए ब्रेख्त की जरूरत, नाटकों से हिटलर की तानाशाही को दी थी चुनौती

बीसवीं शताब्दी के नाटककारों में ब्रेख्त बड़ा नाम हैं। उन्होंने राष्ट्रवाद के नाम पर नाजीवाद का झूठ उजागर किया था। तानाशाही के खिलाफ प्रतिरोध की आवाजें हमेशा उनकी तकनीकों का इस्तेमाल करती हैं, ताकि राष्ट्रवाद के नाम पर चल रहे सत्तावाद को खत्म किया जा सके।

फोटोः सोशल मीडिया
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गुंजन सिन्हा

यह सवाल मौजूं है कि जिस तरह की आज राजनीति है, समाज को जिस तरह एक खास दिशा की ओर ढकेला जा रहा है, उसके खिलाफ फिल्मी दुनिया के कुछ चुनींदा लोग तो कभी-कभार बोलते हैं, लेकिन ऐसी कोई फिल्म क्यों नहीं आ रही जो लोगों के सामने ऑल्टरनेटिव नैरेटिव प्रस्तुत करे। हाल में आई फिल्म ‘आर्टिकल 15’ के बाद यह बात खास तौर से महसूस की जा रही है। आयुष्मान खुराना की यह फिल्म जाति-व्यवस्था पर गहरे तक चोट करती है और पूरी फिल्म के दौरान सिनेमा हॉल में दर्शक कुर्सी से चिपका रहता है।

मुश्किलें तो हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि पहले इस तरह की कोशिशें नहीं हुईं। पुणे के फिल्म एवं टेलीविजन इंस्टीट्यूट से निकले कई लोगों ने करीब चार दशक पहले तक इस तरह के प्रयोग किए। बाद में उन लोगों ने अपने पैर इसलिए पीछे खींच लिए क्योंकि उन्हें अपनी फिल्मों के दर्शक कम मिले। एक संदर्भ से इसे समझा जा सकता है। कला फिल्मों के दौर में एक यादगार फिल्म थी-‘दामुल’। इसके निर्देशक प्रकाश झा ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उनका उद्देश्य दर्शकों को भावनात्मक रूप से दूर करना था। उनमें बेचैनी पैदा करने के लिए क्लोज शॉट्स न लेकर कैमरे इधर-उधर घूमते रहते थे। इस शिकायत पर कि अब वह ‘दामुल’ जैसी फिल्में क्यों नहीं बनाते, इस पर प्रकाश झा ने कहा, “मैं आज भी ‘दामुल’ जैसी फिल्में बना सकता हूं। जितना खर्च ‘राजनीति’ जैसी फिल्म की एक दिन की शूटिंग में होता है, उतने में पांच ‘दामुल’ बन सकती हैं, लेकिन मैं फिल्में अपने लिए नहीं, आपके लिए, दर्शकों के लिए बनाता हूं।”

फिल्म एवं टेलीविजन इंस्टीट्यूट से तब निकले मणि कौल, कुमार साहनी, सईद अख्तर मिर्जा और केतन मेहता जैसे फिल्म निर्माताओं-निर्देशकों ने कई अच्छी फिल्में दीं। इस प्रसंग में ‘भुवन शोम’, ‘मृगया’ (मृणाल सेन), ‘मेघे ढाका तारा’ (ऋत्विक घटक), ‘उसकी रोटी’ (मणि कौल) इत्यादि के नाम लिए जा सकते हैं। इन तीन फिल्मों ने तो 1969 में उल्लेखनीय सफलता पाई थी: ‘सारा आकाश’ (बासु चटर्जी), ‘उसकी रोटी’ (मणि कौल) और ‘भुवन शोम’ (मृणाल सेन)। उस दौर को इस वक्त याद करने का खास कारण है। जिन फिल्मों की ऊपर चर्चा की गई है, उनमें ब्रेख्तियन स्टेज क्राफ्ट का प्रत्यक्ष प्रभाव है। यह विचार करने का विषय है कि क्या उसका उपयोग कर ऑल्टरनेटिव नैरेटिव वाली फिल्में आज बनाई जा सकती हैं?

बीसवीं शताब्दी के नाटककारों में बर्तोल्त ब्रेख्त सबसे बड़ा नाम हैं। उन्होंने अपनी नाट्य प्रतिभा से अपने हम वतन हिटलर की तानाशाही को चुनौती दी। उस समय भारत भी ब्रिटिश शासन का गुलाम था इसलिए ब्रेख्त भारतीय फिल्म निर्माताओं के लिए प्रेरणा बन गए। उनका अप्रत्यक्ष प्रभाव भारतीय सिनेमा पर बरकरार है। एकाधिकारवाद के माहौल में ब्रेख्त फिर प्रासंगिक लगने लगे हैं- किसी दमघोंटू माहौल में हवा के ताजा झोंके की तरह। ब्रेख्त ने राष्ट्रवाद के नाम पर नाजीवाद का झूठ उजागर किया।


तानाशाही के बरखिलाफ प्रतिरोध की आवाजें हमेशा ब्रेख्त की तकनीकों का इस्तेमाल करती हैं, ताकि राष्ट्रवाद के नाम पर चलाए जा रहे सत्तावाद को खत्म किया जा सके। साहित्यिक संवाद के सभी रूप ब्रेख्त से प्रभावित हुए। भारतीय सिनेमा और थियेटर में भी उनकी सशक्त अनुगूंज रही। उनसे प्रेरित भारतीय प्रस्तुतियों की कुछ विशेषताएं हमारी गुलामी की विरासत से जुड़ी हैं और कुछ तानाशाही के प्रतिरोध की भावना से। सिर्फ विदेशी उपनिवेशवाद ही तानाशाही नहीं होती। ब्रेख्त घरेलू तानाशाही का भी विरोध करते हैं।

उपनिवेशवाद और उसका प्रतिरोध- ये दोनों मानव इतिहास की जुड़वां विशेषताएं हैं। दोनों मानव के मूल चरित्र में हैं। इन्हीं दोनों के प्रतिनिधि हैं- अडोल्फ हिटलर और बर्तोल्त ब्रेख्त। हिटलर निर्मम उपनिवेशवाद का प्रतीक है। उसी के हम वतन ब्रेख्त उपनिवेशवाद-विरोध की सबसे मजबूत आवाज हैं। नाजीवाद विरोध सह नहीं सकता था, इसलिए ब्रेख्त को एक देश से दूसरे देश भागना पड़ता था। तानाशाह समाज की मुख्य व्यवस्थाओं को ध्वस्त करता है और फिर उन्हें अपने हिसाब से बनाता है। कुछ व्यवस्थाएं आदेश मानने को मजबूर की जाती हैं, कुछ व्यवस्थाएं लोगों का भ्रम बनाए रखती हैं कि उनके हितों की रक्षा की जाएगी। लोग मानते हैं कि न्यायपालिका और भगवान उनकी रक्षा करेंगे। एक खास पैटर्न पर सोचने के लिए उनका ब्रेन वाश किया जाता है। ऐसे में लोगों को यह समझा पाना मुश्किल होता है कि उनकी अपनी सोच और भाषा सहित पूरी प्रणाली उनके खिलाफ तानाशाह का हित साधती है। तब किसी विद्रोह को शक्ल या शब्द दे पाना कठिन होता है।

ब्रेख्त जैसे नाटककार के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती थी। इस चुनौती का सामना करने के लिए ब्रेख्त उपहास को हथियार बनाते हैं। उपनिवेशवाद और उसके प्रतिरोध को उन्होंने सबसे मुखर आवाज अपने अमर प्रहसन ‘कॉकेशियन चाक सर्कल’ में दी है। ‘कॉकेशियन चाक सर्कल’ औपनिवेशिक न्यायपालिका का मजाक है। इसके लिए उन्होंने 14वीं सदी की चीनी कहानी को आधार बनाया। अलग कालखंड, अलग भूगोल-संस्कृति के नाटक को रूपांतरित कर ब्रेख्त ने उपनिवेशवाद के सर्वकालिक स्वरुप को चित्रित किया।

उनका न्यायाधीश अजदक पारंपरिक आजाद न्यायाधीश नहीं है। उपनिवेश में न्यायाधीश एक जोकर है। उससे न्याय की आशा बेकार है। अजदक तो मजाक का पात्र है ही, उससे न्याय की उम्मीद करने वाले भी मजाक का ही पात्र हैं। ब्रेख्त अदालतों में इस्तेमाल की जाने वाली उसी भारी भरकम बनावटी गरिमा वाली भाषा का प्रयोग करते हैं। इस तरह वह उसके नकलीपन और अर्थहीनता को उघेड़कर रख देते हैं। वह न कोई नारेबाजी करते हैं और न क्रांति लाने की बात करते हैं। सिर्फ इतना करते हैं कि मूर्खताओं, घटिया आधारहीन उम्मीदों और व्यवस्था के नकलीपन को उजागर कर देते हैं। अपने असहाय दर्शक को अपनी मूर्खता भरी उम्मीद पर हंसना सिखाते हैं। यह हंसी दर्शक के अजाने ही उसकी ताकत बनती है। वहीं न्यायाधीश होने के साथ अजदक खुद भी दलित है। वह शोषक व्यवस्था में मामूली पुर्जा है। अपना अदनापन उसे मालूम है। उसकी यही बेबसी दर्शक को सोचने को बाध्य करती है।


यही बेबसी और अपने हास्यास्पद अदनेपन का एहसास अजदक को भारत के आम आदमी से जोड़ता है। ‘अजदक’ भारत में सबसे ज्यादा बार प्रस्तुत नाटकों में एक है और इसकी वजहें हैं। राजनीतिक आजादी के बाद भी कई उपनिवेशवाद भारत में हैं- जाति, वर्ण, सामंती प्रजातंत्र, क्रोनी पूंजीवाद, अपराधी-प्रजातंत्र जैसी आंतरिक अव्यवस्थाएं। इन अव्यवस्थाओं के खिलाफ अभिव्यक्ति के लिए ब्रेख्त एक सशक्त प्रेरणा स्रोत तब बने, जब भारतीय फिल्म उद्योग का उद्देश्य धन कमाना नहीं था। मणि कौल, कुमार साहनी, सईद अख्तर मिर्जा, केतन मेहता, प्रकाश झा जैसे लोगों ने कदम तो बढ़ाए लेकिन व्यापारिक सफलता न मिलने के कारण सातवें दशक में शुरू समानांतर सिनेमा या कला सिनेमा नौवें दशक के अंत तक मुख्यधारा के सिनेमा में विलीन हो गया। इस विलयन के साथ ब्रेख्त का प्रभाव भी अप्रत्यक्ष होता गया, लेकिन उसने भारतीय कला को सींचना जारी रखा है। उनका असर इप्टा के नाटकों में बरकरार है।

वैसे, यह भी लगता है कि हिंदी क्षेत्र के दर्शकों को अभी ब्रेख्तियन तकनीकों और उनके राजनीतिक संदेश समझने के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता है। बांग्ला और मराठी सिनेमा में ब्रेख्त को लेकर अधिक उत्साह रहा। इस मामले में अद्भुत काम कन्नड़ नाटककार गिरीश कर्नाड का रहा है। ‘ययाति’ और ‘हयवदन’ जैसे उनके नाटक एक ओर भारत के पौराणिक कथानक का आधुनिक रूपांतरण हैं, वहीं ब्रेख्त के मंचीय शिल्प और राजनीतिक संदेश से भी अनुप्राणित हैं।

कई अन्य उदाहरणों से स्पष्ट है कि गैर हिंदी दर्शक ब्रेख्त और कला फिल्मों के प्रति अधिक ग्रहणशील रहे। वैसे, हिंदी में भी कई फिल्में बनीं जो ब्रेख्त से प्रभावित थीं। लेकिन इनमें अधिकांश गैर हिंदी निर्देशकों द्वारा निर्देशित थीं। उदाहरणार्थ, ब्रेख्त जैसे स्पष्ट अकेलेपन के साथ एमएस सथ्यू की फिल्म ‘गरम हवा’ (1975) विभाजन के बाद मुसलमानों की असुरक्षा दर्शाती है। शानदार अभिनय, संवेदनशील यथार्थ और निपुण निर्देशन ने ब्रेख्त के असर वाली कई फिल्मों को औपनिवेशिक विरासत के खिलाफ जबर्दस्त बयान बना दिया। यह अफसोस की बात है कि ब्रेख्त सीधे तौर पर याद नहीं किए जा रहे जबकिअभी उनकी सख्त जरूरत है।

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Published: 23 Nov 2019, 7:16 PM
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