अपना मुहावरा साधने में असफल नजर आ रहीं हैं वेब सीरीज, गाली, सेक्स और हिंसा के अलावा कुछ भी नहीं

वेब सीरीज ‘मिर्जापुर 2’ की कथाभूमि मुख्य रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश है। गाली, सेक्स और हिंसा इस वेब सीरीज की सतह पर तैरती और दिखती सच्चाइयां हैं। जिनमें समीक्षक उलझे हुए हैं। यह सतह पीटने की तरह है। जरूरत है, सतह के नीचे की हलचल और अंतरधाराओं को समझने की।

फोटो: सोशल मीडिया
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अजय ब्रह्मात्मज

चर्चित और विवादास्पद ‘मिर्जापुर 2’ की चर्चा, आलोचना और निंदा मुख्य रूप से गाली, हिंसा और सेक्स को लेकर हो रही है। यकीनन इनकी मात्रा दूसरी वेब सीरीज की तुलना में कुछ ज्यादा और नियोजित है। ‘मिर्जापुर’ और ‘मिर्जापुर 2’ की कथा भूमि मुख्य रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश है। पर इस बार कहानी के एक सिरे ने बिहार के सिवान जिले में प्रवेश किया है।

लखनऊ, जौनपुर, बलिया, गोरखपुर और अब सिवान के किरदार इस सीरीज की मुख्य कहानी में कुछ जोड़ते हुए अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं। अधिकांश पुरुष किरदारों के साथ कुछ महत्वपूर्ण महिला किरदार भी हैं। पुरुष सत्तात्मक समाज में सिर उठा रही और अपना महत्व पहचान रही ये महिलाएं कुछ नया उद्घाटित कर रही हैं। संकेत दे रही हैं। वे वाचाल नहीं हैं लेकिन मूकदर्शक और गोटियां मात्र भी नहीं हैं। उनके हाथों में भी पिस्तौल आ चुकी है। जरूरत पड़ने पर उन्हें गोली चलाने में भी कोई झिझक नहीं होती। हां, वे पुरुषों की तरह गलियां नहीं देतीं लेकिन गुस्से से उबल रही हैं। मौका मिलने पर पलट कर बोलती हैं और मुखर भी हो जाती हैं। साजिश रचने में वे कमतर नहीं हैं। सामाजिक प्रक्रिया में महत्वपूर्ण स्थानों पर न होते हुए भी उनकी चालबाजी बदलने और पलटने में अहम भूमिका निभाती है।

गाली, सेक्स और हिंसा इस वेब सीरीज की सतह पर तैरती और दिखती सच्चाइयां हैं, जिनमें समीक्षक उलझे हुए हैं। यह सतह पीटने की तरह है। जरूरत है, सतह के नीचे की हलचल और अंतर धाराओं को समझने की। यह वेब सीरीज पिछले 20 सालों में उत्तर भारतीय समाज खास कर उत्तर प्रदेश और बिहार में आए लक्षण और परिवर्तन को बखूबी जाहिर करती है। राजनीति और अपराध एक-दूसरे के सहारे इन इलाकों में तेजी से फले और फूले हैं। परस्पर लाभ के इस गठबंधन में समाज की पारंपरिक चूलें हिल गई हैं। नई शक्तियां उभर आई हैं। जातीय समीकरण में आए बदलाव से नए संबंध और स्वार्थ विकसित हुए हैं। अपराध को राजनीतिक प्रश्रय मिला है और राजनीति अपराध के असर का चुनावी लाभ उठाने में नहीं हिचकती। यह वेब सीरीज उत्तर भारत के सामाजिक, राजनीतिक और जातीय समीकरण को रोचक और मनोरंजक तरीके से पेश करती है। पूरी सीरीज में पूर्वांचल का सांस्कृतिक पहलू नदारद है। भजन-कीर्तन, गाना-बजाना, पूजा-नमाज दस एपिसोड में न तो दिखाई पड़ता है और न सुनाई पड़ता है। यह कैसा भारतीय समाज है? हम सभी जानते हैं कि उत्तर भारत के सामाजिक जीवन में धार्मिक विचार और व्यवहार का क्या महत्व है।

पहले सीजन से आगे अब कहानी में मिर्जापुर की गद्दी का संघर्ष सामने आ गया है। कालीन भैया उर्फ अखंडा नंद त्रिपाठी का अवैध कारोबार फैला और बढ़ा है लेकिन उसमें नए खिलाड़ी भी उभर आए हैं। धीरे-धीरे वे अपना हिस्सा हासिल कर रहे हैं और कालीन भैया की ताकत काट रहे हैं। कालीन भैया की दोहरी मुसीबत और चुनौती है। कालीन भैया का बिगड़ैल और उदंड बेटा मुन्ना जल्दी-से-जल्दी गद्दी हासिल करने की कोशिश में गलतियां करता जाता है। पिता उसकी मूर्खता से परेशान रहते हैं। मिर्जापुर समेत पूरे पूर्वांचल पर वह अपनी पकड़ मजबूत करना चाहते हैं और इस चाहत में वह सत्ताधारी पार्टी और मुख्यमंत्री से राजनीतिक सांठ गांठ बढ़ाते हैं। इसमें वह बेटे का इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकते। विवश और निरुपाय बेटा उनके आदेशों और हिदायतों की हद में रहते हुए भी अपनी नादानी, मनमानी और जिद की वजह से मुश्किलें पैदा करता रहता है। घरेलू फ्रंट पर उलझे अखंडानंद त्रिपाठी के बाहरी दुश्मन अपनी चालों में कामयाब होकर धीरे-धीरे उनकी तरफ बढ़ रहे हैं। बदले और गद्दी हासिल करने की भावना से उनमें आक्रामकता है। चाल चलने में भी वह आगे रहते हैं। कालीन भैया की पकड़ ढीली हो रही है।

त्रिपाठी और पंडित परिवार आमने-सामने हैं। पंडित परिवार के गुड्डू पंडित की निगाह मिर्जापुर की गद्दी पर है। वह बदले की भावना से भी उबल रहा है। उसे कोई जल्दबाजी नहीं है। वह कालीन भैया के बेटे की तरह उतावला और हड़बड़िया नहीं है। वह सोच-समझकर ही अगला कदम बढ़ाता है और शायद ही असफल रहता है। गोलू उसका सहयोग कर रही है, ‘मिर्जापुर 2’ की यह किरदार अध्ययन की मांग करती है। बदली स्थितियों में वह चंबल की उन महिला डकैतों की तरह ही है जो आहत होकर बदले की भावना से गन उठा लेती हैं। अखंडा नंद त्रिपाठी की दूसरी पत्नी श्वसुर द्वारा शारीरिक रूप से शोषित होने का बदला लेती है तो दर्शकों का दिल दहल जाता है। उस दृश्य में घर की नौकरानी का गंडासी देना औरतों में पल रहे गुस्से को जाहिर करता है।

इस सीरीज में सभी नेगेटिव किरदार हैं। हिंदी में बन रही अंडरवर्ल्ड की फिल्मों की तरह माफिया सरगना बनने की चाहत में हो रही हिंसा में हत्या और गोलियों की गिनती का मतलब नहीं रह जाता। हिंदी वेब सीरीज इन फिल्मों के साथ ही विदेशी अपराध सीरीज की सीधी नकल करते दिख पड़ते हैं। दृश्य संरचना से लेकर चरित्रों की प्रस्तुति तक में यह छाप दिखाई पड़ती है। समस्या यह है कि वेब सीरीज अपना मुहावरा नहीं साध पा रहे हैं। आठ साल पहले 2012 में दो खंडों में आई अनुराग कश्यप की फिल्म‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ सभी अपराध सीरीज के लिए बाइबिल बन चुकी है। चुनी गई इनकी कहानियां और किरदार भी ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के सामान कस्बाई हैं, तो चरित्रों के मन-मिजाज और बात-व्यवहार में वैसी ही हिंसा, भाषा और मंशा दिखाई देती है। वेब सीरीज की कहानियों का फलक और विस्तार खींचकर लंबा किया जा रहा है ताकि उन्हें 8-10 एपिसोड तक बढ़ाया जा सके और अगले सीजन के बीज छोड़े जा सकें। ‘मिर्जापुर 2’ जहां खत्म होती है, वहां संकेत है किकालीन भैया बाख जाएंगे और अब पंडित और त्रिपाठी परिवार के वर्चस्वकी लड़ाई में यादवों की भी भागीदारी होगी। मुन्ना भैया की हत्या के बाद उनकी राजनीतिक पत्नी का अगला छल भी बहुत कुछ निर्धारित करेगा।

वेब सीरीज की फोटोग्राफी में धूसर रंगों और मटमैले परिवेश के सृजन से प्रभावतो बढ़ जाता है लेकिन इसमें उत्तर भारत की हरियाली गायब हो जाती है। पूरे पूर्वांचल में फैली इस वेब सीरीज के 10 एपिसोड की कहानी में कोई बगीचा और फुलवारी नहीं दिखी है। पूर्वांचल के परिवेश की कोई झलक नहीं मिलती। वेब सीरीज में दिखाए गए कस्बों और शहरों के मास्टर शॉट संकेतात्मक हैं। कैमरा किरदारों को उनके परिवेश के साथ नहीं पेश करता। हिंदी की वेब सीरीज की यह बड़ी कमी है। उन्हें प्रचारित तो रीयलिस्टिक चित्रण के तौर पर किया जाता है लेकिन सब कुछ सेट और लोकेशन की हद में ही रहता है।

किरदारों की भाषा की भिन्नता पर कतई ध्यान नहीं दिया गया है। सिवान के त्यागी और मिर्जापुर के आसपास के त्रिपाठी और पंडित किरदारों की भाषा और गाली एक-सी है। यहां तक मुसलमान किरदार केवल नाम से ही मुसलमान हैं। हां, पंकज त्रिपाठी, रसिका दुग्गल, कुलभूषण खरबंदा, अली फजल, दिव्येंदु शर्मा, राजेश तैलंग, श्वेता त्रिपाठी, अमित स्याल, विजय वर्मा, ईशा तलवार आदि कलाकारों ने अपने किरदारों को अच्छी तरह निभाया है। वे सभी व्यक्तिगत तरीके से बेहतर परफॉर्म करते नजर आते हैं। किसी फिल्मया सीरीज में अगर चरित्रों के अभिनय और परफॉरमेंस में सामंजस्य हो तो उसका प्रभाव ज्यादा होता है तथा दृश्य अर्थपूर्ण और प्रभावशाली हो जाते हैं। इस सीरीज से ऐसे दृश्यों के उदहारण नहीं निकले जा सकते हैं जहां दो चरित्रों की भिन्नता या संगति उल्लेखनीय हो। शूटिंग की शैली और शेड्यूल से यह सामंजस्य और समेकित प्रभाव आता है

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