39 साल के बाद भी अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है

नई ‘अल्बर्ट..’ का नायक राजनीतिक रूप से सजग और सचेत है। उपभोक्तावादी समाज में सभी के बिकाऊ हो जाने से भी उसे तकलीफ है कि हर कोई अपनी कीमत तय कर रहा है और मोल-भाव कर ज्यादा वसूलकर बिक जाना चाहता है। उसे लगता है कि सिस्टम के दीमकों का सफाया कर दिया जाए, तो शायद...

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया
user

अजय ब्रह्मात्मज

हाल में रिलीज हुई सौमित्र रानाडे की ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ फिल्म वास्तव में 1980 में आई सईद अख्तर मिर्जा की इसी नाम की फिल्म से प्रेरित और प्रभावित है। लेकिन यह उस फिल्म की रिमेक नहीं है। निर्देशक सौमित्र रानाडे ने अपने किरदार जरूर पुरानी फिल्म से लिए हैं, लेकिन उनका परिवेश आज का है। परिस्थितियां आज की हैं। हालांकि कुछ नए किरदार भी शामिल हो गए हैं।

अच्छी बात ये है कि सईद अख्तर मिर्जा इस फिल्म के उद्देश्य और निर्वाह से सहमति रखते हैं। वह मानते हैं कि सौमित्र रानाडे की फिल्म के मूल में उनकी फिल्म जरूर है, लेकिन सौमित्र ने इसे नया रूप और स्वर दिया है। 1980 में आई सईद अख्तर मिर्जा की ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ का अल्बर्ट मोटर मैकेनिक था। मिल मजदूर के बटे अल्बर्ट की जान-पहचान अपने गैराज में नियमित आने वाले मोटर मालिकों से रहती है। वह उनकी मंहगी गाड़ियों में घूमता है। उनकी गाड़ियां घर भी पहुंचा आता है। लंबे समय तक वह इस भ्रम में रहता है कि उसकी पूछ होती है और वह उनकी तरह ही है।

फिल्म में मुंबई के मिल मजदूरों की हड़ताल और उससे बन रही जटिल स्थितियां हैं। अल्बर्ट का भाई डोमिनिक आवारा हो चुका है और अपराध की दुनिया में प्रवेश कर रहा है। बहन जॉन ईमानदारी से अपना काम करती है। अल्बर्ट की प्रेमिका स्टेला है। अपने खिन्न स्वभाव और झुंझलाहट की वजह से अल्बर्ट और स्टेला में खटपट चलती रहती है। वह बार-बार स्टेला से नाराज होता है और फिर माफी मांगता है। फिल्म के आखिरी दृश्यों में अल्बर्ट को एहसास होता है कि वह समाज के कुलीन वर्ग से अलग है। पिता के संघर्ष में ही उसका भविष्य और हक है।

आज की फिल्म का नायक भी अल्बर्ट है। उसकी प्रेमिका भी स्टेला है। दोनों के प्रेम में यहां भी खटपट चलती रहती है। पुरानी फिल्म की तरह नया अल्बर्ट भी घर बसाना चाहता है। तभी पिता के साथ हुई ज्यादती से उसका समाज से मोहभंग होता है। वह आवेश में खास े कदम उठा लेता है। सिस्टम को दीमक की तरह चाट रहे सूर्यकांत और जगताप (भ्रष्ट छुटभैये नेताओं) को मारकर वह अपने तई कुछ दुरुस्त करना चाहता है।

इस प्रयास में वह मुंबई से गोवा तक की यात्रा करता है। इस सफर में एक हिटमैन ड्राइवर की तरह उसके साथ है। दोनों की बातचीत से हमारे समय की नंगई और कड़वी सच्चाई उभरती रहती है। फिल्म वर्तमान की अनेक समस्याओं से टकराती हुई आगे बढ़ती है। हालांकि दोनों फिल्मों का कंटेंट अलग है। 39 सालों के अंतराल में दोनों निर्देशकों की समझ और सोच से यूथ की मनोदशा और उत्तेजना में फर्क दिखाई पड़ता है। फिर भी मूल भाव एक ही है। अपने माहौल से मोहभंग और उसकी वजह से पैदा हुआ गुस्सा। इस गुस्से और नाराजगी की पृष्ठभूमि और समय अलग हैं। किरदारों का ध्येय भी अलग है। पुरानी फिल्म में विसंगतियों के एहसास के साथ मजदूरों की लड़ाई के साथ सहानुभूति और एक हद तक भागीदारी भी है।

नई फिल्म में मजदूर सिरे से गायब हैं। नए अल्बर्ट के सामने भ्रष्ट और बिकाऊ समाज है, जिसमें हर कोई जोड़-तोड़ कर रहा है और बिकने के लिए तयार है, किसी के पास कोई सवाल नहीं है, सभी जी रहे हैं और जीने के जुगाड़ में लगे हैं, नया अल्बर्ट अपने समय के अव्यक्त गुस्से का प्रतिनिधि किरदार है। वह मुखर और सक्रिय है। अपनी संवेदनशीलता में वह अतिवादी कदम उठाता है।

सईद अख्तर मिर्जा और सौमित्र रानाडे की फिल्मों में भारी फर्क है। सईद अख्तर मिर्जा की फिल्म 1980 में आई थी। उस दौर में देश में माइनॉरिटी बिल लाने की बात चल रही थी। मुंबई में मिल मजदूरों की हड़ताल चल रही थी। खुद अल्बर्ट मिल मजदूर का बेटा था और मानता था कि स्ट्राइक तो गुंडों का काम है। मजदूरों की हड़ताल से दुरूह और लाचार स्थिति में फंसे पिता को करीब स देखने और समझने के बाद उसकी राय बदलती है। यह फिल्म एम एस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ के करीब पहुंचती है। उस फिल्म में नायक मिर्जा (बलराज साहनी) को एहसास होता है कि देश में रहने और अपने हकों की लड़ाई लड़ने में ही भलाई है।

फिल्म के अंत में वह सड़क पर उतर एक जुलूस का गवाह बनता है। 1980 की ‘अल्बर्ट...’ के अंत में मजदूरों का मशाल जुलूस निकल रहा है और फिल्म समाप्त होती है। दरअसल, सईद अख्तर मिर्जा वामपंथी रुझान के प्रतिबद्ध फिल्मकार हैं। उन्होंन अपनी चेतना के अनुसार अल्बर्ट के मानस को दिशा दी। उसे वर्गीय चेतना से लैस किया। पुरानी ‘अल्बर्ट...’ में राजनीतिक स्वर मुखर नहीं है। उसमें सामाजिकता है। वह माइनॉरिटी वर्ग का है। उसकी वर्गीय पहचान का भी संकट है। स्थितियों पर काबू न कर पाने पर वह गुस्सा करने लगता है। स्टेला का स्कर्ट पहनना और अरविंद की लोलुपता और मोटर मालिकों की उदासीनता, उसे परेशान करती है। उसके जीवन में ये सारी विरोधी बातें एक साथ चल रही होती हैं।

नई ‘अल्बर्ट..’ का नायक राजनीतिक रूप से सजग और सचेत है। उपभोक्तावादी समाज में सभी के बिकाऊ हो जाने से भी उसे तकलीफ है कि हर व्यक्ति अपनी कीमत तय कर रहा है और मोल-मलाई कर ज्यादा राशि वसूलकर बिक जाना चाहता है। नए अल्बर्ट को लगता है कि सिस्टम के दीमकों का सफाया कर दिया जाए, तो शायद... उसे ठीक-ठीक नहीं मालूम की निदान क्या है? यह कंफ्यूजन आज का सच है, क्योंकि विकल्प सीमित और निष्क्रिय हैं।

राजनीति का लोकप्रिय स्वर विध्वंसक होने के बावजूद समाज को आकर्षित कर रहा है। यही वजह है कि भविष्य से बेफिक्र समाज तात्कालिक निदान और उसके आह्वान से आलोड़ित हो गया है। ऊपर से देशभक्ति का जुनून विरोधियों को आसानी से देशद्रोही चिन्हित कर देने भर से आह्लादित हो जाता है। नई ‘अल्बर्ट...’ को न तो अपेक्षित सराहना मिल पाई और न ही कामयाबी। आम दर्शकों की इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई पड़ी। ईमानदार मंशा के बावजूद सौमित्र दर्शकों को थिएटर तक नहीं ला सके। इसकी एक वजह कलाकारों का चयन भी है।

पुरानी ‘अल्बर्ट...’ में कला फिल्मों के अग्रणी कलाकारों की तिगड़ी (नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटील और शबाना आजमी) थी। नई ‘अल्बर्ट...’ के नायक मानव कौल और नायिका नंदिता दास की लोकप्रियता कम है। सौरभ शुक्ला परिचित कलाकार हैं, पर उनकी भूमिका हाशिये पर थी। दूसरे, महिला किरदारों में नंदिता दास के उपयोग का प्रयोग दर्शकों की समझ में नहीं आया। सौमित्र रानाडे को लगता है कि आज की स्थिति अधिक अंधेरे में है। उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं। निराशा ने घेर रखा है और समाज भ्रमित सक्रियता में खोखला हो रहा है। सईद मिर्जा की राय में सौमित्र का प्रयास राजनीतिक है। वह युवकों की नाराजगी को अलग स्तर पर ले जाकर व्यक्त कर रहे हैं।

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia