यूपी के हर जिले में अब भी हैं कई विकास दुबे, जिनकी ओर देखने की जुर्रत भी नहीं करती यूपी पुलिस

पिछले तीन दशकों से प्रदेश में एक क्षेत्रीय पार्टी की सरकार बनने पर कुछ खास जातियों के अपराधियों का वर्चस्व होता है, तो दूसरी में दूसरी जातियों के। बीजेपी सरकार में भी यही हाल है। कुछ लोग हर सरकार में बने रहते हैं और वैसा ही अब भी हो रहा है। विकास दुबे इस बात का एक छोटा-सा उदाहरण रहा है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया

कानपुर में आठ पुलिसकर्मियों की हत्या कर फरार हो जाने के बाद उज्जैन में अपनी गिरफ्तारी सुनिश्चित कराने वाले विकास दुबे को पुलिस ने 9 जुलाई को जिस तरह मुठभेड़ में मार गिराया, उससे संभवतः किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। यूपी के वरिष्ठ पुलिस अफसर अमिताभ ठाकुर ने तो 8 जुलाई की रात ही ट्वीट कर दिया थाः “विकास दूबे का सरेंडर हो गया। हो सकता है, कल वह यूपी पुलिस की कस्टडी से भागने की कोशिश करे, मारा जाए। इस तरह विकास दूबे चैप्टर क्लोज हो जाएगा।”

वही हुआ भी। दरअसल, उसने जिस तरह उज्जैन में सरेंडर किया था या वहां जिस प्रकार उसकी गिरफ्तारी हुई थी, उससे पुलिस महकमे में ठगे जाने का अहसास था और वह बदला लेने की ताक में भी था। अमिताभ ठाकुर तो नहीं, पर यूपी के एक वरिष्ठ पुलिस अफसर ने 8 जुलाई की रात ही नवजीवन से कहा था, ’इसमें शक नहीं कि यूपी पुलिस के लिए यह बड़ी शर्मिंदगी है कि विकास दुबे उज्जैन पहुंच गया और उसने वहां सुविधा से आत्मसमर्पण कर दिया। दुबे जिंदा कानपुर पहुंच गया, तो वह पुलिस के लिए उससे भी बड़ी शर्मिंदगी होगी। वह यूपी सीमा में घुसे, तो पुलिस को उसे खत्म कर देना चाहिए।’

और 9 जुलाई की सुबह ऐसा ही हुआ। वैसे, भले ही विकास दुबे को मार डालने के तरीके पर दो-चार दिन काफी चर्चा होती रहेगी, असली सवाल अपनी जगह कायम रहेंगे- क्या यूपी में अपराधियों का राज इसी तरह चलता रहेगा? मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सिर्फ उन अपराधियों से ही निजात पाने की कोशिश करते रहेंगे जो उनके, उनकी सत्ता और उनकी पार्टी- बीजेपी के लोगों के लिए मुसीबत बन गए हैं?

दरअसल, पुलिस-अपराधी-राजनीतिज्ञ की यह सांठगांठ यूपी में गहरी जड़ें जमा चुका है। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने लखनऊ में कहा भीः “महाराज जी किसी अपराधी को न छोड़ने का दावा तो करते हैं, पर उन्हें भी पता है कि हर जिले में दो-चार विकास दुबे हैं जिनकी ओर आंख उठाकर देखने की हिम्मत भी कोई पुलिस वाला नहीं कर सकता।” गोरखनाथ पीठ के महंत से यूपी के मुख्यमंत्री बने योगी आदित्यनाथ अपने को ’महाराज जी’ नाम से ही संबोधित किया जाना पसंद करते हैं। वह लगातार पांच बार सांसद रहे हैं। दबंग हैं और प्रदेश की नस-नस से वाकिफ हैं।

यह गठजोड़ सब दिन प्रभावी

कांशीराम जब अपनी राजनीति के शीर्ष पर थे और मायावती उनकी लेफ्टिनेंट थीं, उस वक्त बहुजन समाज पार्टी के लोग नारे लगाते थेः तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार। ये तीन प्रतीक थे- तिलक ब्राह्मणों के लिए, तराजू बनियों और तलवार राजपूतों के लिए। बाद में, मायावती ने अपने दम पर सत्ता में आने की कोशिश के क्रम में इन वर्गों, खास तौर से ब्राह्मणों को अपने साथ लाने का पुरजोर प्रयास किया और वह मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने में सफल भी इसी वजह से हुईं।

ब्राह्मण यूपी में करीब दस प्रतिशत हैं, लेकिन हर पार्टी उन्हें लुभाने की कोशिश इसलिए करती है क्योंकि सबको लगता है कि यह वर्ग जनचर्चा की दशा-दिशा को प्रभावित करता है और कई क्षेत्रों में वोट को किसी खास पार्टी की तरफ मोड़ने में उसकी अच्छी-खासी भूमिका निभा सकता है। विकास दुबे को ही लें। कानपुर देहात के करीब एक दर्जन ब्राह्मण-बहुल गांवों में उसकी दबंगई के कई निशान अब भी हैं।

उसने 2001 में राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त श्रम निबंधन बोर्ड चेयरमैन संतोष शुक्ला की पुलिस थाने में घुसकर हत्या की। फिर, उसी साल उसने एक स्थानीय इंटरमीडियट कॉलेज के मैनेजर और एक केबल ऑपरेटर की हत्या की। इसके बाद पहले वह ग्राम प्रधान और बाद में, जिला पंचायत का सदस्य चुना गया। बाद में, उसने खुद राजनीति करना छोड़ दिया और उसकी पत्नी चुनाव लड़कर जीतती रही।

यहां यह बात भी जानने लायक है कि वह भी राजनीति का मौसम विज्ञानी था- वह बीएसपी और समाजवादी पार्टी में रहा और इन दिनों बीजेपी में था। वह प्रधानी के चुनाव लड़वाने लगा था। उसका रुतबा इस तरह समझिए- वह बीस लोगों को प्रधानी के चुनाव तो जितवा ही देता था। विधानसभा चुनाव में इतने वोट किसी एक व्यक्ति को मिले, तो वह विधायक बन सकता है। उसके खिलाफ 60 मामले दर्ज थे। वह गुंडा कानून के तहत तीन बार गिरफ्तार किया जा चुका था। लेकिेन यूपी सरकार द्वारा घोषित की गई 63 खूंखार अपराधियों की सूची तो छोड़िए, कानपुर जिले के टाॅप 10 गुंडों की लिस्ट में भी उसका नाम नहीं था।

विकास की कितनी हनक थी, इसका अंदाजा मंत्री का दर्जा प्राप्त बीजेपी नेता संतोष शुक्ला की शिवली थाने में घुसकर हत्या करने के मुकदमे के हश्र से लगाया जा सकता है। संतोष के भाई मनोज शुक्ला का कहना हैः “घटना के वक्त 25 पुलिस वाले वहां मौजूद थे। सुनवाई के वक्त एक के बाद एक सभी ने घटना का प्रत्यक्षदर्शी होने की बात से मना कर दिया। यहां तक कि इस मामले की जांच करने वाला अधिकारी भी अपनी ही रिपोर्ट की कई बातों से मुकर गया। और विकास आराम से दोषमुक्त करार दे दिया गया।”

इलेक्शन वॉच के नाम से जाने जाने वाले एसोसिएशन ऑफ डेमाक्रेटिक रिफाॅर्म्स ने पाया है कि 2017 में विधानसभा चुनाव लड़ने वाले एक तिहाई उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड थे। उनके खिलाफ जो मामले दर्ज थे, उनमें हत्या, बलात्कार और जबरन धन वसूली के भी मामले थे। पुलिस-अपराधी-राजनीतिज्ञ सांठगांठ का ही परिणाम है कि अपराधी जानते हैं कि आपराधिक वारदातों, खास तौर से धन उगाही में किसी किस्म की परेशानी होने पर पुलिस और राजनीतिज्ञ किसी-न-किसी तरह उसकी मदद में खड़े हो जांएगे।

जातिगत समीकरण का महत्व

पिछले तीन दशकों में इस गठजोड़ ने कई रंग देखे हैं। एक क्षेत्रीय पार्टी की सरकार बनने पर कुछ खास जातियों के अपराधियों का वर्चस्व होता है, तो दूसरी क्षेत्रीय पार्टी की सरकार बनने पर दूसरी खास जातियों का। बीजेपी सरकार में भी यही हाल है। पर कुछ लोग सभी तरह की सरकारों में महत्वपूर्ण बने रहते हैं और वैसा ही अब भी हो रहा है। विकास दुबे इस बात का एक छोटा-सा उदाहरण रहा है।

योगी सरकार का दावा है कि उसने तमाम बड़े अपराधियों को जेल के अंदर रखा हुआ है। लेकिेन यह सब सिर्फ नाम के लिए है। उगाही के लिए या तो ये लोग खुद जेलों से ही या फिर, बाहर बेखौफ घूम रहे उनके गुर्गे किसी को भी धमका देते हैं। यह रोजाना हो रहा है और इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होता। जेल में रहना या सड़क पर दिखना बस नाम को ही है।

इसलिए सिर्फ इतना ही जानना बहुत है कि कौन-कौन किस जेल में हैंः उमेश राय उर्फ गौरा राय (रामपुर केंद्रीय जेल), मुख्तार अंसारी (पंजाब), अतीक अहमद (गुजरात की साबरमती जेल), खान मुबारक (लखनऊ), मोहम्मद सलीम (फतेहगढ़), मोहम्मद रुस्तम (कानपुर), बबलू श्रीवास्तव (बरेली), बृजेश कुमार सिंह (वाराणसी), सुभाष सिंह ठाकुर (फतेहगढ़), ध्रुव कुमार सिंह (बलिया), मुनीर (दिल्ली की मंडोली जेल)।

यूपी पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) ने बड़े अपराधियों की जो सूची तैयार की है, उनमें से कई लोग अब भी कभी यहां-वहां दिख जाते हैं या उनके किसी शहर में रहने की सूचना जब-तब मिलती रहती है। इस सूची में कई नाम हैं जो जब-तब काली सुर्खियों में बने रहते हैं, जैसेः लल्लू यादव, अजय सिंह उर्फ अजय सिपाही, रमेश सिंह काका और विधान पार्षद संजीव द्विवेदी। इस तरह की सूची इतनी लंबी है कि आपको लगेगा कि आप कोई परीक्षा परिणाम सूची देख रहे हैं!

(रश्मि सहगल के इनपुट के साथ)

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