अमृतकाल के पहले बजटीय मंथन में मेहनतकश निम्न और मध्यवर्ग के हिस्से तो विष ही आया है, सारा अमृत तो धनाड्य के नाम है

अमृत काल के इस पहले बजट मंथन से मेहनतकश, गरीब और वंचितों के नसीब में विष आया है। अब उन्हें अपने नसीब बदलने के लिए 25 साल मोदी @ 100 का इंतजार करना पड़ेगा, क्योंकि सारा अमृत तो धनाड्य वर्ग के नाम कर दिया गया है।

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राजेश रपरिया

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने कार्यकाल का चौथा बजट पेश करते हुए अपने सामंत के स्तुतिगान में जितनी मेहनत की है, उतनी मेहनत उन्होंने मूल अवधारणाओं के अनुसार बजट बनाने में की होती, तो उन्हें वेतनभोगी, किसान, गरीब और मध्यवर्ग के कल्याण की सुध लेने का वक्त मिल गया होता। पेश बजट में कुल प्राप्तियों में 2 लाख करोड़ रुपये की बढ़ोतरी का अनुमान नरेंद्र मोदी सरकार ने लगाया है, उसमें से एक धेले की राहत वेतनभोगी, छोटे करदाताओं, किसान, गरीब और वंचितों को नहीं दी है।

देश में कृषि के बाद सबसे ज्यादा रोजगार कंस्ट्रक्शन क्षेत्र देता है, उसको कोई राहत या प्रोत्साहन देने में कोई रुचि वित्त मंत्री ने नहीं दिखाई। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि रोजगार की समस्या के प्रति मोदी सरकार कितनी गंभीर है। वंचित तबके की उन कल्याणकारी योजनाओं के खर्च में भी कटौती इस बजट में की गई है जिसका ढोल सबसे ज्यादा मोदी पीटते हैं। अमृत काल के इस पहले बजट में मोदी सरकार ने देश की मेहनतकश आबादी को ठेंगा दिखाने में कोई हिचक नहीं दिखाई है। इससे मोदी के भारत @100 की झांकी का अंदाजा लगाया जा सकता है।

इस बजट में सबसे ज्यादा निराशा वेतनभोगी वर्ग को हुई है जो पूरी ईमानदारी से अपना टैक्स अदा करता है। आंकड़े बताते हैं कि 2019 से ही महंगाई ने सिर उठा रखा है। पेट्रोल-डीजल की बेहिसाब कीमत वृद्धि से केंद्र सरकार का खजाना तो लबालब भरा है लेकिन इससे मेहनतकश आबादी की क्रय शक्ति कम हो गई है। महंगाई और महंगे इलाज के कारण 6 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं। इनमें बड़ी संख्या मध्यवर्ग के लोगों की है।

पेश बजट में छोटे करदाताओं के प्रति मोदी सरकार की निर्ममता अक्षम्य है। 2014-15 से आयकर छूट की सीमा ढाई लाख रुपये सालाना पर अटकी हुई है जबकि रोजमर्रा की तमाम चीजें 100 फीसदी तक महंगी हो चुकी हैं। पिछले वित्त वर्ष में पेट्रोल-डीजल की बेहिसाब कीमत वृद्धि ने मेहनतकश जनता की जेब पर जो डाका डाला है, उसकी भरपाई करने की भी कोई जरूरत वित्त मंत्री ने नहीं समझी। खाद्य तेलों, दालों, सब्जियों और ईंधन (पेट्रोल-डीजल, गैस) की बेहिसाब महंगाई के बाद भी आय कर मुक्त सीमा नहीं बढ़ाई है जबकि 2014 में बीजेपी ने आय कर मुक्त सीमा को पांच लाख रुपये सालाना करने की मांग की थी। इसी प्रकार आय कर अधिनियम की धारा 80-सी के तहत भी 2014-15 से छूट में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है। ऐसा लगता है कि मोदी सरकार और बीजेपी को राजनीतिक रूप से मध्यवर्ग के वोटों की कोई जरूरत नहीं रह गई है जिनके समर्थन से बुरे दिनों में बीजेपी अपने पैरों पर खड़ी रह पाई थी।


सब जानते हैं कि कोविड के महंगे इलाज के कारण लाखों परिवार कर्ज में डूब गए हैं। इसका अंदाजा देश में सोना गिरवी रखकर कर्ज लेने वालों की संख्या में अचानक हुई वृद्धि से लगाया जा सकता है। पर स्वास्थ्य खर्चों के बोझ से राहत दिलाने की कोई घोषणा इस ‘अमृत’ बजट में नहीं की गई है। आयकर की धारा 80-डी में स्वास्थ्य बीमा खरीदारी की सीमा को भी नहीं बढ़ाया गया है जबकि स्वास्थ्य बीमा कोविड-19 के दौरान खासे महंगे हो गए हैं। कम-से-कम मोदी सरकार स्वास्थ्य बीमा खरीद पर लगने वाले 18 फीसदी वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) को कम या समाप्त कर राहत दे सकती थी या पांच लाख रुपये तक स्वास्थ्य बीमा खरीदने वालों के लिए प्रीमियम को कम करने के उपक्रम मोदी सरकार कर सकती थी, जो निम्न और मध्यवर्ग के लिए बड़ी राहत साबित हो सकती थी। पर मोदी सरकार के बजट रूपी सागर मंथन से मेहनतकश जनता के हिस्से में विष ही आया है और अमृत धनिक वर्ग के हिस्से में।

देश में रोजगार की स्थिति मोदी राज में दिन-प्रतिदिन भयावह होती जा रही है। मोदी सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकार भी रोजगार के सवाल पर बजट पेश होने के बाद होने वाली प्रेस कांफ्रेंस में मुंह छुपाते नजर आते हैं। फिर भी देश में सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले क्षेत्र कृषि और कंस्ट्रक्शन को राम भरोसे छोड़ दिया गया है जो अब तक सरकारी निर्णयों और नीतियों की मार से उबर नहीं पाए हैं।

वित्त मंत्री ने बताया है कि आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत आगामी पांच वर्षों में 60 लाख नौकरी सृजन की उम्मीद है। लेकिन इसका कोई पक्का खाका उन्होंने नहीं बताया कि कब, कहां और कितने रोजगार सृजित होंगे। उल्लेखनीय है कि देश में हर साल 70-80 लाख युवा रोजगार की सूची में जुड़ जाते हैं।

कृषि में सरकारी खरीद की प्रावधान राशि किसानों को मायूस करने वाली है। उसे पिछले साल के खर्च से कम कर दिया गया है। उर्वरक सब्सिडी के मद में कटौती की गई है जबकि उर्वरकों की कीमतों में आग लगी हुई है। खाद्य और सार्वजनिक वितरण के मद में खासी कटौती कर दी गई है। बिजली के बढ़े हुए खर्च को देखते हुए पूरी उम्मीद थी कि किसान सम्मान निधि को 6 हजार सालाना से बढ़ाकर 10-12 हजार सालाना अवश्य किया जाएगा। पर इसकी उम्मीद खत्म हो गई है क्योंकि इस खर्च में महज 500 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी की गई है।

इसी प्रकार खाद्य पदार्थों के लिए कीमत स्थिरीकरण फंड को 2020-21 के बजट प्रावधान 2700 करोड़ से घटाकर 1500 करोड़ रुपये कर दिया गया है। 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का हर सुबह ढोल पीटने वाली सरकार ने पेश बजट में उसका नाम तक नहीं लिया। यह मोदी सरकार की नाकामी का उद्घोष है।


कंस्ट्रक्शन उद्योग देश का दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है। यह नोटबंदी, फिर जीएसटी और उसके बाद कोविड-19 की असहनीय मार से अब तक उबर नहीं पाया है। इस क्षेत्र में वित्त वर्ष 2017 में 6.9 करोड़ रोजगार थे जो 2021 में घटकर 5.3 करोड़ रह गए। पर क्षेत्र को राहत या प्रोत्साहन देने की कोई पहल इस ‘अमृत’ बजट में नहीं दिखाई देती है। यदि वित्त मंत्री का कोमल हृदय आय कर की धारा 24 और 80-सी में मकान खरीदारों के लिए और लाभ और छूट बढ़ातीं, तो खरीदारों की संख्या में वृद्धि होती, कंस्ट्रक्शन उद्योग में नई जान पड़ सकती थी और उन लाखों श्रमिकों की दुआएं भी मिलतीं जो इस अपनी जीविका से हाथ धो बैठे थे।

कोविड-19 महामारी के कारण करोड़ों-करोड़ मजदूरों ने शहर से अपने गांवों की ओर पलायन किया था, उसके दारुण दृश्यों की याद अब भी मन को विचलित कर देती है। तब गांवों में आए इन मजदूरों को एक बड़ी संख्या के लिए महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना पालनहार साबित हुई थी। अब भी बड़ी तादाद में ये मजदूर शहर नहीं लौटे हैं। ऐसे में मजदूरों की पालनहार इस योजना के खर्च में पिछले साल के संशोधित अनुमान से 25 हजार करोड़ रुपये की कटौती करना एक राक्षसी कृत्य ही माना जाएगा। इससे ग्रामीण रोजगार, मांग और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा जो एक अरसे से खस्ता हालत में है।

कुल मिलाकर अमृत काल के इस पहले बजट मंथन से मेहनतकश, गरीब और वंचितों के नसीब में विष आया है। अब उन्हें अपने नसीब बदलने के लिए 25 साल मोदी @ 100 का इंतजार करना पड़ेगा।

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