हर दरवाजे पर सुनाई दे रही है आर्थिक संकट की दस्तक, लेकिन सरकार बैठी है हाथ पर हाथ धरे

बीते तीन साल से देश की अर्थव्यवस्था पर संकट के काले बादल मंडरा रहे थे, और अब इनका असर तेज़ी से जमीन पर नजर आने लगा है। देश की विकास दर पिछले 6 साल के निचले स्तर को छूते हुए 5 फीसदी पर पहुंच गई है।

फोटो: सोशल मीडिया
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राहुल पांडे

अब सरकारी तौर पर साबित हो गया है कि बीजेपी की आर्थिक नीतियों ने देश की अर्थव्यवस्था को रसातल में पहुंचा दिया है। सरकार के पास बड़ी-बड़ी बातें कहने के नए-नए नारे तो हो सकते हैं, लेकिन इन्हें दुरुस्त कैसे करना है, इसकी उसे हवा नहीं है। चर्चा है कि सरकार ब्याज दरें घटाकर कंजम्पशन यानी उपभोग को बढ़ावा देने की कोशिश करेगी, लेकिन समस्या तो यह है कि लोगों की आमदनी नहीं बढ़ रही है।

बीते तीन साल से देश की अर्थव्यवस्था पर संकट के काले बादल मंडरा रहे थे, और अब इनका असर तेज़ी से जमीन पर नजर आने लगा है। देश की विकास दर पिछले 6 साल के निचले स्तर को छूते हुए 5 फीसदी पर पहुंच गई है। इन आंकड़ों को देखकर किसी भी सरकार के हाथ पैर फूल जाते, बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों को सिर जोड़कर बैठना पड़ता, समय लगाना पड़ता और किस्मत रहती तो कोई रास्ता निकलता। लेकिन फिलहाल इस सबके आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे।


मोदी सरकार 2014 में आर्थिक विकास को पंख देने के वादे के साथ सत्ता में आई थी। लेकिन अपने ही विरोधाभासों के सामने उसके दावे ध्वस्त हो रहे हैं। मध्यवर्गीय भारतीयों को जीडीपी के ये आंकड़े डरा रहे हैं। इस वर्ग के सामने अपनी नौकरी बचाए रखने और जीवनयापन चलाए रखने की चुनौती है। हालात ऐसे हैं कि अब तो कट्टर बीजेपी समर्थक भी कहने लगे हैं कि इस सरकार ने अर्थव्यवस्था का भट्टा बैठा दिया।

बात सिर्फ इतनी नहीं है। स्थिति और भी विस्फोटक है, क्योंकि जीडपी के नंबर संकेत दे रहे हैं कि हालात बद से बदतर होने वाले हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था कि स्थिति इन दिनों उस गंभीर मरीज की तरह है जिस पर दवा ने असर करना बंद कर दिया हो। मोदी सरकार ने दावा किया कि महंगाई को काबू करना उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है, लेकिन 6 साल गुजरने के बाद हर किसी को समझ आने लगा है कि क्या यह सही कदम था।


सरकार ने अपने आखिरी दांव के तौर पर आरबीआई से 1.76 लाख करोड़ रुपए ले लिए हैं। लेकिन इससे बाकी चीज़ें होना तो दूर, सरकार की वित्तीय घाटा तक पूरा नहीं हो पाएगा। सरकार के पास अब विकल्प बचे ही नहीं है। इसीलिए बैंक विलय जैसे ऐलान हो रहे हैं। इन सब ऐलानों से हो सकता है कि दो-चार दिन के लिए शेयर बाजार में बहार आ जाए, लेकिन दीर्घकाल में इसके विपरीत असर होने वाले हैं।

जीडीपी के आंकड़ों को गहराई से समझें तो तो सच्चाई सामने आ जाती है। देश में मैन्युफैक्चरिंग यानी विनिर्माण और कृषि क्षेत्र की विकास दर को देखें तो, पता चलता है कि अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने वाले ये दोनों इंजन सुस्त पड़े हैं।

विनिर्माण यानी मैन्युफैक्चरिंग की विकास तक पहली तिमाही में 0.6 फीसदी पहुंच गई है, जबकि इसी तिमाही में पिछले साल यह 12.1 फीसदी थी। कृषि क्षेत्र की विकास दर भी 5.1 से गिरकर 2 फीसदी पर पहुंच गई है। इसका सीधा अर्थ है कि हमारे कारखाने नहीं चल रहे और पहले से तैयार माल गोदामों में पड़ा है। किसान अपनी फसल को वाजिब दाम पर बेचने के लिए तरस रहा है, क्योंकि उसे सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मूल्य तक नहीं मिल रहा।

मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की सुस्ती खतरे की घंटी है। 11.5 फीसदी की गिरावट सामने आते ही सरकार की नींद उड़ जानी थी, लेकिन बीजेपी सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ है। इसके पास विकल्प ही कितने हैं। कर्ज को सस्ता कर मांग बढ़ाने की कोशिश कर सकती है सरकार, लेकिन इसका असर होने में संशय है क्योंकि लोग कुछ भी खरीदने से पहले सौ बार सोच रहे हैं। ऊंची कीमतों वाले सामानों की तो हालत ही बुरी है, नतीजतन एफएमसीजी कंपनियां परेशान हैं।


देश से निर्यात भी संघर्ष के दौर में है। जुलाई माह में निर्यात में 2.25 फीसदी की वृद्धि हुई है, वह भी तब जबकि रुपया बीते 6 सप्ताह में करीब 3.5 फीसदी कमजोर हुआ है। जून 2019 में निर्यात में 9.71 फीसदी की गिरावट आई थी और अप्रैल-जुलाई तिमाही में इसमें 0.37 फीसदी की गिरावट है। इसका तो यही अर्थ है कि विदेशी दौरों से भले ही पीएम मोदी की छवि चमकती हो, निर्यात में कोई उछाल नहीं हो रहा।

सरकार की परेशानियों की शुरुआत कृषि क्षेत्र से हुई, जो काफी लंबे अर्से से संकट का सामना कर रहा है। जीएसटी आने के बाद बीज, खाद, डीज़ल, बिजली आदि के दाम तेजी से बढ़े हैं, जबकि किसानों की आमदनी घटी है। हालांकि किसानों के लिए सरकार ने 6000 रुपए की योजना तो शुरु की है, लेकिन इसका फायदा तभी है जब किसान खुद भी अच्छा कमा रहे हों। वैसे भी 500 रुपए महीने में किसका क्या हो सकता है?

अब हालात ऐसे हैं कि सरकार के पास किसानों का कर्ज माफ करने के लिए पैसा नहीं है। और चूंकि चुनाव हो चुके हैं, इसलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने जाने की भी संभावना कम ही दिखती है। ऐसे में देश की करीब आधी आबादी वाले किसानों को वित्त मंत्री की योजना में कुछ हाथ लगने के आसार गौण हैं।

लेकिन संकट की बात यह है कि सरकार ने किसान सम्मान निधि योजना से छूट गए 5.8 करोड़ किसानों को योजना में शामिल करने के काम की रफ्तार कम कर दी है। इससे भले ही सरकार के करीब 26,500 करोड़ बच जाएं, लेकिन ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुस्ती बढ़ जाएगी।


इन सारे संकेतों के बावजूद सबसे बड़ी समस्या यह है कि सरकार ये सब मामने को तैयार नहीं दिखती, क्योंकि इसे पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था को वापस रास्ते पर लाने का तरीका ही नहीं मालूम है।

सरकार आरबीआई से कहलवा रही है कि यह सिर्फ तात्कालिक चरण है और कुछ समय में रफ्तार पकड़ जाएगी। लेकिन जब तक अर्थव्यवस्था रफ्तार पकड़ेगी, तब तक बहुत से लोगों की नौकरियां जा चुकी होंगी, छात्र स्कूल छोड़ चुके होंगे और किसानों का संकट और गहरा चुका होगा। इस समय हर दरवाजे पर आर्थिक संकट की दस्तक अब जोर-जोर से सुनाई दे रही है।

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