देश के उद्योग-व्यापार को तबाह करने वाला है आरसीईपी समझौता, आत्मघाती होगा मोदी सरकार का कदम

आंकड़े बताते हैं कि 2017-18 में क्षेत्रीय समझौते के देशों के साथ देश का व्यापार घाटा 105 अरब डॉलर रहा था। यह कुल घाटे का 65.1 फीसदी है। ऐसे में, मोदी सरकार का कहना कि आरसीईपी में शामिल होने के बाद भारत का निर्यात बढ़ेगा और आर्थिक स्थिति मजबूत होगी हस्यास्पद है।

फोटोः सोशल मीडिया
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एस राहुल

इसी नवंबर के पहले सप्ताह में होने वाली आसियान बैठक में दुनिया के 16 देशों के बीच एक समझौता होने जा रहा है। इसे क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी ( आरसीईपी) कहा जाता है। इससे 16 देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौता हो जाएगा। भारत भी इस समझौते पर हस्ताक्षर करने जा रहा है। वैसे तो दो देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौता होना कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन यह समझौता इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस समझौते में चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड- जैसे देश शामिल हैं जिनसे यदि भारत ने मुक्त व्यापार शुरू कर दिया तो अंजाम वाकई आत्मघाती हो सकता हैं।

क्या है आरसीईपीः आरसीईपी दरअसल आसियान देशों और उनके छह मुक्त व्यापार साझेदारों के बीच प्रस्तावित मुक्त व्यापार एवं निवेश व्यवस्था है। इस वार्ता में आसियान देशों में ब्रुनेई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम शामिल हैं। उसके छह मुक्त व्यापार साझेदार ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, जापान, कोरिया और न्यूजीलैंड हैं। इसकी शुरुआत 2012 में हुई थी, लेकिन इसकी शर्तों को देखते हुए यूपीए सरकार ने इससे दूरी बना ली थी। लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद इसमें दोबारा से भारत सरकार ने रुचि दिखाई और इस पर अंतिम सहमति की दहलीज तक पहुंच चुकी है।

आरसीईपी समझौते के मुताबिक, इन 16 देशों के बीच में एक इंटिग्रेटेड मार्केट बनाया जाएगा जो इन देशों में आपसी व्यापार को आसान करेगा। इससे इन देशों में एक-दूसरे के उत्पाद और सेवाएं आसानी से उपलब्ध हो सकेंगे। इस समझौते में उत्पाद और सेवाओं, निवेश, आर्थिक और तकनीकी सहयोग, विवादों के निपटारे, ई-कॉमर्स, बौद्धिक संपदा और छोटे-बड़े उद्योग शामिल होंगे।

इस समझौते की सबसे बड़ी चिंता चीन है। इसमें शामिल होने के बाद भारत को चीन को भी मुक्त व्यापार की छूट देनी पड़ेगी। इससे चीन के साथ व्यापार घाटा और बढ़ जाएगा। चीन के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 2018 में भारत का व्यापार घाटा 57.86 अरब डॉलर (भारत के अनुसार, 63.1 अरब डॉलर) तक पहुंच गया, जो 2017 में 51.72 अरब डॉलर था। पिछले साल दोनों देशों के बीच कुल व्यापार 95.54 अरब डॉलर का था।

आर्थिक जानकारों का मानना है कि आरसीईपी में आने के बाद यह घाटा और बढ़ जाएगा। इसलिए वे सलाह दे रहे हैं कि आरसीईपी समझौते के अंदर ही भारत को चीन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड पर आयात शुल्क लगाने का अधिकार अपने पास रखना चाहिए।


हालांकि, चीन और भारत के बीच बढ़ रहा व्यापारिक घाटा चिंता का विषय तो है ही, दिलचस्प पहलू यह भी है कि आरसीईपी में शामिल चार देशों (कंबोडिया, फिलीपींस, सिंगापुर और वियतनाम) को छोड़कर अन्य देशों के साथ भी भारत का व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है। आंकड़े बताते हैं कि साल 2017-18 में क्षेत्रीय समझौते के देशों के साथ हमारे देश का व्यापार घाटा 105 अरब डॉलर का रहा था। बीते साल भारत का कुल व्यापार घाटा 161.4 अरब डॉलर का था। इस हिसाब से क्षेत्रीय समझौते के देशों के साथ हमारा घाटा कुल घाटे का 65.1 फीसदी है। ऐसे में, नरेंद्र मोदी सरकार का यह तर्क हास्यास्पद लगता है कि आरसीईपी में शामिल होने के बाद भारत का निर्यात बढ़ेगा और आर्थिक स्थिति मजबूत होगी।

परेशानी का सबबः अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी केयर के मुताबिक, भारत की निर्यात विकास दर 2019 के पहले आठ महीनों में 11.8 प्रतिशत से घटकर 1.4 प्रतिशत पर आ गई है। अगर यह गिरावट जारी रही तो भारत का व्यापार घाटा और बढ़ेगा क्योंकि भारत दूसरे देशों को निर्यात करने से ज्यादा खुद आयात करेगा। इस समझौते का सीधा असर ऐसे भी देख सकते हैं कि इस समझौते के बाद जिस तरह भारत की कंपनियों को एक बड़ा बाजार मिलेगा, वैसे ही दूसरे देशों की कंपनियों को भी भारत जैसा बड़ा बाजार मिलेगा। ऐसे में चीन समेत सभी दूसरे देश सस्ती कीमत पर अपने सामान भारतीय बाजार में बेचना शुरू करेंगे। इससे भारतीय उत्पादकों को परेशानी होगी।

इसका एक उदाहरण बांग्लादेश है। भारत और बांग्लादेश के बीच मुक्त व्यापार का समझौता है। इसके चलते बांग्लादेश में बनने वाला कपड़ा सस्ती दरों पर भारत में उपलब्ध होता है और भारतीय कपड़ा उद्योग को बहुत नुकसान हो रहा है। दूसरी बड़ी समस्या रोजगार पर पड़ने वाला असर है, क्योंकि बड़ी संख्या में रोजगार प्रदान करने वाले कपड़ा उद्योग में करीब 10 लाख लोगों का रोजगार खत्म हो गया।

दरअसल, अमेरिका के साथ व्यापारिक युद्ध से चीन को बहुत घाटा हो रहा है। इसे पूरा करने के लिए चीन की नजर भारत सहित दूसरे बाजारों पर है। चीन जल्दी से जल्दी इसकी भरपाई के लिए आरसीईपी समझौते पर सहमति बनाना चाहता है। यही वजह है कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारत आकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुलाकात की। इसमें क्या बात हुई, पता नहीं लेकिन इस बैठक के बाद आरसीईपी पर भारत की तत्परता चिंतित करने वाली है।


आरसीईपी के मुताबिक, भारत यदि आयात शुल्क-सीमा शुल्क को शून्य करता है, तो भारत सरकार को करों से महरूम होना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में बहुत संभावना है कि सरकार जीएसटी की दर बढ़ाकर अपने राजस्व घाटे को कम करने की कोशिश करेगी। यहां यह उल्लेखनीय है कि भारत सरकार के कुल राजस्व में से लगभग 17 प्रतिशत हिस्सा आयात शुल्क से हासिल होता है। बात केवल चीन की नहीं है। किसानों की चिंता न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया के साथ होने वाले डेयरी समझौते को लेकर भी है। अगर न्यूजीलैंड से डेयरी क्षेत्र को लेकर समझौता हो जाता है तो देश का डेयरी उद्योग चौपट हो जाएगा।

दरअसल, मात्र 48 लाख की आबादी वाला न्यूजीलैंड में लगभग 10 हजार किसान रोजाना लगभग 10 मिलियन मीट्रिक टन (एमएमटी) दूध का उत्पादन करते हैं और वे अपने कुल उत्पादन का 93 प्रतिशत निर्यात करते हैं। अगर न्यूजीलैंड मात्र पांच प्रतिशत दूध भी निर्यात करता है तो यह भारत के प्रमुख डेरी उत्पादों- जैसे, दूध पाउडर, मक्खन, पनीर आदि के उत्पादन के 30 प्रतिशत के बराबर होगा। इसी तरह आस्ट्रेलिया भी अपने दूध का लगभग 60 फीसदी निर्यात करता है। ये दोनों देश इतना सस्ता दूध निर्यात करते हैं कि यदि भारत में यह दूध आने लगा तो भारत के किसान इसका मुकाबला नहीं कर पाएंगे। यहां तक कि अमूल जैसी को-ऑपरेटिव संस्था ने भी सरकार को बता दिया है कि इससे दूध की को-ऑपरेटिव संस्था बर्बाद जो जाएगी।

कृषि क्षेत्र की ही तरह देश का लगभग हर क्षेत्र इस समझौते से प्रभावित होगा। खासकर, छोटे कारोबार जो पहले ही नोटबंदी और जीएसटी से पीड़ित हैं, उन पर व्यापक असर पड़ेगा। हां, इतना जरूर है कि सरकार अपने कुछ खास उद्योग समूह का ध्यान रखने में जुटी है। इस समझौते में डाटा लोकलाइजेशन, अर्थात ग्राहकों के निजी विवरण को सदस्य देशों से बाहर ले जाने संबंधी प्रावधान है। जानकार मानते हैं कि सरकार इसमें ऐसे प्रावधान करना चाहती है जिससे एक खास टेलीफोन कंपनी को नुकसान न हो।

आरसीईपी में यह प्रावधान भी है कि बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों के पास ये अधिकार होंगे कि उन्हें स्थानीय कानूनों के तहत स्थानीय अदालतों में चुनौती न दी जा सके। ये प्रतिष्ठान किसी भी परिस्थिति में देश की सरकारों के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरणों में प्रकरण दर्ज करवा सकेंगे। इससे स्थानीय अदालतें इन कॉरपोरेट्स के सामने पंगु हो जाएंगी।

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