गांधी जी की सात्विकता और पंडित नेहरू की दुर्लभ उदारवादिता ही प्रेरणा है ‘संडे नवजीवन’

प्रिय पाठकों, 14 अक्टूबर से हर सप्ताह ‘संडे नवजीवन’ आपके हाथ में होगा। फिलवक्त गणतंत्र खुद चल कर जनता तक पहुंचेगा इसकी संभावना नज़र नहीं आती, इसलिये हमारी भरपूर कोशिश रहेगी कि ‘संडे नवजीवन’ की मार्फत जनता गणतंत्र को पास से देखेगी, और इसे मज़बूत बनाये रखने में खुद उनका जो लाभ छिपा है, उसको समझेगी।

फोटो : नवजीवन
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मृणाल पाण्डे

आज से सौ साल पहले गांधी जी ने अपने शांतिमय असहयोग और स्वराज्य के दर्शन को भारत के आम जन तक पहुंचाने के लिये ‘नवजीवन’ नामक साप्ताहिक निकालना शुरू किया। 1919 से शुरू हुआ यह प्रकाशन पहले गुजराती का था, पर हिंदी भाषी जनता की विशाल तादाद देखते हुए जल्द ही इसका हिंदी संस्करण भी छपने लगा।

गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए भी ‘यंग इंडिया’ नाम से साप्ताहिक निकालते रहे थे, और उनको यह दिख रहा था कि भारत जैसे विशाल देश में कोई भी बड़े जनाधारवाला आंदोलन उसी वक्त सफल हो सकता है जब तक उस देश की सामान्य जनता असहयोग और शांति के सिद्धांतों को भली तरह न समझ ले। उसके लिये जनभाषा से जुड़ना ज़रूरी है, जिसके लिये उनकी राय में हिंदुस्तानी उपयुक्त थी।

19 अगस्त,1921 में ‘नवजीवन’ के हिंदी संस्करण के संपादकीय में बापू ने अपने (गुजराती से अनूदित) पाठकों को बताया कि जिस हिंदुस्तानी भाषा को करोड़ों हिंदू-मुस्लिम बोल सकते हों, वही अखिल भारतवर्ष की सामान्य भाषा हो सकती है, और उनमें तब तक एक दु:ख था, जब तक ‘नवजीवन’ का हिंदुस्तानी संस्करण न निकाला गया। बापू ने यह भी स्पष्ट किया कि पाठकों को हिंदुस्तानी भाषा का प्रचार नहीं, ‘शांतिमय असहयोग का प्रचार ही इसका उद्देश्य समझना चाहिये।’

अंग्रेज़ सरकार ने अखबार की भव्य सफलता से आतंकित हो कर इसके सभी संस्करणों पर साल भर के भीतर पाबंदी लगा दी, और बापू जेल भेज दिए गए। लेकिन, बापू के जेल से रिहा होते ही 1924 में ‘नवजीवन’ दोगुने उत्साह से फिर उठ खडा हुआ। इस बीच जेल से भी पाठकों से अंतरंग रिश्ता कायम कर चुके बापू ने, पाठकों की अदालत में घोषणा की, कि जनता की और उनके सहयोगियों की कृपा से उनका यह प्रयास घाटे पर चलने वाला फितूरी अखबार नहीं, बल्कि कम समय में ही अपने पैरों पर खड़ा और अपना खर्च वहन कर असहयोग आंदोलन के लिये धन जुटाने वाला प्रकाशन बन गया है।

‘स्वराज्य प्राप्त करने के लिये केवल शांत और सच्चे सिपाहियों की ज़रूरत है, और सच्चे काम के लिये कभी पैसे की तंगी नहीं हो सकती।’ बापू ने लिखा। उनका यह विचार इस 14 अक्टूबर 2018 को ‘संडे नवजीवन’ नाम से पाठकों को केंद्र में रखते हुए दोबारा छापे जा रहे इस साप्ताहिक अखबार के लिये भी मार्गदर्शक बना हुआ है। पिछले कुछ समय में कई वजहों से देश में भय और मुनाफा दुहने का एक माहौल बन गया है। प्रिंट या डिजिटल जगत का विरला ही प्रकाशन आज निजी हित स्वार्थों से ऊपर उठ कर सिर्फ पाठकों के हित को लक्ष्य में रखते हुए खबरों को जमा और पेश करने में समर्थ दिखता हो।

पर भारत के भाषाई मीडिया में कुछ पेशेवर पत्रकारों की कोशिशों से अभी भी बहुत कुछ बचा हुआ है, जो भारतीय लोकतंत्र और मीडिया दोनों की साख को बहाल कर सकता है। हम उसी जमात से जुड़े आज़ादी के तुरंत बाद की पीढ़ी के लोग हैं। हमारी पीढ़ी को कोई बने बनाये अखबार या डिजिटल खबरिया पोर्टल ब्रह्मा की नाभि से निकले कमल की तरह रेडीमेड नहीं मिले। उनको राज समाज और खुद हम सबकी बरसों की ठोका पीटी ने ही वह मौजूदा आकार दिया है. जिसे आज की नई पीढ़ी देख पढ़ रही है।

आज से सौ बरस पहले के ‘नवजीवन’ में भी बापू ने लिखा था कि “नवजीवन को हिंदी में प्रकाशित करना कठिन काम है, तथापि मित्रों के आग्रहवश और साथियों के उत्साह से नवजीवन (गुजराती ) का हिंदी अनुवाद निकालने की धृष्ठता मैं करता हूं।“

लिहाज़ा बिना बड़े लाभ लोभ के हमारे वरिष्ठ बंधुगण तब भाषाई पत्रकारिता के पेशे से जुड़े और आज भी जुड़ रहे हैं। उस वक्त का धनिक वर्ग हमारे प्रकाशनों को खुद नहीं पढ़ता था। बस राय जानने के लिये कभी कभार मालिक अनुग्रहपूर्वक अपने घर के नौकर चाकरों या चायखानों, रेलवे स्टालवालों से ‘फीडबैक’ ले लिया करते थे। कोई हिंदी अखबार तब दस लाख का जादुई आंकड़ा नहीं पार कर सका था और हिंदी अखबारों के संस्करण भी उंगलियों पर गिने जा सकते थे।

राजनीति की ही तरह हमारी उस सिरफिरी मीडिया पीढ़ी में भी हर तरह के वर्गभेद, लिंगभेद थे। उनके टूटने, नई तरह से बनने, हर किसम की दलगत जोड़-तोड़, हंगामी चुनावों, धरनों, प्रदर्शनों, अभिव्यक्ति पर लगी पाबंदियों और उनके टूटने के हम लोग चश्मदीद गवाह रहे हैं। पर इतने सालों से समवेत भोगे हुए सुख दु:ख का भाईचारा और सबसे तेज़ चैनल की टैग लाइन के शब्दों में ‘सबकी खबर लेने के साथ सबको खबर देने’ का उत्साह अब भी हमारी जमात के नये पुराने अनेक लोगों में बचा हुआ है। सच, सपाट सच बोलने की इस गांधी- धृष्ठता के आज भी अपने मज़े हैं।

सीमित संसाधनों और लघुकाय टीम वाले ‘संडे नवजीवन’ अखबार में संपादक नाम का जीव एक पर्यावरण और मौजूदगी की तरह है, किसी सेना का कड़क सख्ती से संचालन करने वाले जनरल की तरह नहीं। अगर आगे जाकर यह अखबार हमारे सपनों का साप्ताहिक अखबार बन सका तो इसकी पहली वजह यही होगी कि हममें से किसी ने भी यहां अपनी मेहनत का खाता अलग से नहीं खोला है। हमारी प्रेरणा गांधी जी की सात्विकता और उनके आदेश से इसे फिर पुनर्जीवित करने वाले नेहरू जी की दुर्लभ उदारवादिता और परिहास रसिकता है।

सेंसरशिप से भरे वक्त में आज यह अजूबा लगता है कि कभी कोई प्रधानमंत्री नेहरू की तरह कार्टूनिस्ट शंकर पिल्लै से कहे कि ‘तुम मुझे कतई मत बख्शना, (डोंट स्पेयर मी) शंकर ! हमारा विगत उम्मीद है हमको भी हिंदी पत्रकारिता का एक अन्य जलनखोर या आत्ममुग्ध खलीफा बनने से निरंतर रोके रखेगा। और, आत्मविश्वासी स्वतंत्रता सेनानियों के संस्कार हमको दीनता, विपन्नता और परनिंदा के उन दुर्गुणों से दूर रखेंगे जो तमाम प्रचार और अनुदान पाए हुए सरकारी हिंदी और उसके प्रकाशनों को दीन हीन बनाये रखता है ।

फिलवक्त गणतंत्र खुद चल कर जनता तक पहुंचेगा इसकी कोई संभावना नज़र नहीं आती, इसलिये हमारी भरपूर कोशिश रहेगी कि ‘संडे नवजीवन’ की मार्फत जनता गणतंत्र को पास से देखेगी, और इसे मज़बूत बनाये रखने में खुद उनका जो लाभ छिपा है, उसको समझेगी। दिनांक 6 अप्रैल 1924 के नवजीवन के दोबारा उठ खड़े होने पर गांधी जी ने जो लिखा था, हमारी राय में वह आज के पाठकों के लिये भी उतना ही महत्व रखता है :

“पाठको, आप ‘नवजीवन’ को अपना शौक पूरा करने के लिये नहीं पढ़ते, बल्कि यह जानने के लिये पढ़ते हैं कि देश में जो यज्ञ हो रहा है उसमें आपका स्थान कहां है? यदि ‘नवजीवन’ के पाठक अपना कर्तव्य अच्छी तरह समझ लें तो आप यह निश्चित मानें कि स्वराज्य हस्तामलकवत् (हथेली पर रखे आंवले की तरह आपके हाथ में) है।“

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