जेएनयू के कुलपति के खिलाफ शिक्षक संघ की जन सुनवाई एक जरूरी पहल

जेएनयू शिक्षक संघ ने तीन दिनों तककुलपति प्रो जगदेश कुमार के खिलाफ जन सुनवाई का आयोजन किया। शिक्षक संघ का आरोप था कि कुलपति ने संस्थान के नियम, नैतिकता, संस्कृति की धज्जियां उड़ा दी हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
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अविनाश कुमार

जेएनयू शिक्षक संघ ने तीन दिनों तक जेएनयू के कुलपति प्रो जगदेश कुमार के खिलाफ जन सुनवाई का आयोजन किया। शिक्षक संघ का आरोप था कि कुलपति ने अपने कार्यकाल में संस्थान के नियम, नैतिकता, संस्कृति की धज्जियां उड़ा दीं। उन्होंने विश्वविद्यालय के उन बुनियादी मूल्यों को भी तहस-नहस कर दिया जिनकी वजह से जेएनयू देश के अग्रणी संस्थानों मे शामिल हो पाया और उन उद्देश्यों को प्राप्त कर पाया जिसके लिए इसका निर्माण हुआ था। विश्वविद्यालय के संवैधानिक नियमों के निरंतर उल्लंघन के अलावा कुलपति के खिलाफ कई गंभीर आरोप थे: शिक्षक चयन प्रक्रिया की ईमानदारी को कमजोर कर विश्वविद्यालय के बुनियादी चरित्र को खत्म करना; छात्रों को उच्च शिक्षा और शोध के लिए विश्वविद्यालय में दाखिला लेने से रोकना; केन्द्रीय शैक्षणिक संस्थान अधिनियम 2006 और संवैधानिक वैधता प्राप्त सकारात्मक कार्यवाही (Affirmative action) का उल्लंघन; उन शिक्षकों का मानसिक दोहन जिन्होंने इन चीजों का विरोध किया; लोकतंत्र पर हमला और निरंकुशता को बढ़ावा; जेएनयू की यौन-शोषण विरोधी नीति को खत्म करना जो जेएनयू समुदाय के संघर्ष और व्यापक नारीवादी आंदोलन के बाद हासिल किया गया था; छात्रों के बीच डर के माहौल का निर्माण करना और एक ऐसी स्थिति बनाना जिसकी वजह से जेएनयू का एक छात्र लापता हो गया और उसकी रक्षा करने में असफल रहना।

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जेएनयू के इतिहास के 5 दशकों में यह पहली बार है जब किसी कुलपति को जन अदालत का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए इस बात को समझना जरूरी है कि ऐसी स्थिति का निर्माण कैसे हुआ जिसमें शिक्षकों और छात्रों ने उनके नेतृत्व में भरोसा खो दिया। जनवरी 2016 में प्रो कुमार की नियुक्ति के बाद जब विश्वविद्यालय ने एक जबरदस्त चरित्र-हनन अभियान का सामना किया तो कुछ लोग चाहते थे कि इसे उनके अनुभवहीनता के परिणाम के तौर पर देखा जाए और उनको यहां जमने और अपनी क्षमता दिखाने का मौका दिया जाए। लेकिन उन घटनाओं का करीब से परीक्षण करने पर जो उस समय और उसके बाद के महीनों में घटीं, उन शक्तियों के साथ कुलपति की मिलीभगत साफ हो जाती है जो इसलिए जेएनयू को खत्म करना चाहते हैं क्योंकि यह बुनियादी रूप से आलोचनात्मक विचारों को समर्थन देता है, उन्हें रचता है और उनकी इजाजत देता है।

इसमें कोई शक नहीं कि जेएनयू उन कुछ संस्थानों में है जिन पर आजादी के बाद के भारत को नाज है। जेएनयू में शिक्षकों और छात्रों द्वारा किए गए शोध की प्रतिष्ठा पूरे विश्व में है। तत्कालीन कुलपति के जेएनयू आने से पहले तक जेएनयू अपने खास मॉडल की वजह से देश की विविधता का प्रतिनिधित्व कर रहा था। अनुसूचित जाति, अनसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को मिले संविधान प्रदत्त आरक्षण के अलावा क्षेत्रीय, आर्थिक और लैंगिक पिछड़ेपन के आधार पर छात्रों को अधिक अंक (deprivation points) दिए जा रहे थे।

1966 में संसद में जेएनयू अधिनियम पर चर्चा के दौरान सांसद एम सी चागला ने जैसा कहा था जेएनयू ने खुद को सिर्फ “अमीरों के बच्चों का विश्वविद्यालय” बनने नहीं दिया, बल्कि देश के कोने-कोने से आने वाले “प्रतिभाशाली लड़के-लड़कियों का संस्थान बनाया चाहे वे कितने भी गरीब क्यों न हों”। वास्तव में शिक्षकों की नियुक्ति के मामले में भी जेएनयू ने इस उद्देश्य का ध्यान रखा। उस उद्देश्य को आगे बढ़ाने की अपनी कोशिश में ही इसने यह सिखाया कि जब भी यह अपने उद्देश्यों से भटके इसकी आलोचना करने से मत डरें। इस आत्मलोचन प्रक्रिया में न सिर्फ इसने ऊपर लिखे उद्देश्यों में सुधार किया, बल्कि बड़ी संख्या में चेतनासंपन्न लोगों को पैदा किया। उन्हें ही हम जेएनयू समुदाय कहते हैं और जो किसी न किसी रूप में देश के लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करने में अपना योगदान दे रहे हैं।

पिछले 21 महीनों में यानी प्रोजगदेशकुमार जब से कुलपति बने हैं यह महसूस किया गया है कि जेएनयू और उसकेनैतिक-कानूनीसमझ के लिए उनके मन में कोई सम्मान नहीं है। उन्होंने जानबूझकरकार्यकारिणी औरअकादमिक परिषद् जैसी संवैधानिक संस्थाओं द्वारा फैसला लेने कीप्रक्रिया को कमजोरकरते हुए व्यापक अकादमिक और गैर-अकादमिक मामलों में योजना बनानेऔर उसे लागू करने की सारी शक्तियां अपने हाथ में ले लीं।

जेएनयू इन उद्देश्यों को इसलिए प्राप्त कर पाया क्योंकि इसने हमेशा एक समुदाय की तरह काम किया। जन सुनवाई के पहले दिन ज्यूरी के एक सदस्य ने कहा कि इसे सिर्फ एक संकुचित कानूनी दायरे में नहीं, बल्कि एक “नैतिक-कानूनी” समझ के साथ बनाया गया था जो सही मायनों में सभी विश्वविद्यालयों में लागू होना चाहिए। विश्वविद्यालय एक उच्च नैतिक जगह है और इस नैतिकता का पालन तभी हो सकता है जब एक नैतिक-कानूनी समझ में सबका भरोसा हो, जो संवैधानिक नियमों के अलावा कई मान्यताओं से भी बना है। नैतिक-कानूनी समझ और यह मान्यताएं विश्वविद्यालय के अकादमिक मामलों के लिए बहुत जरूरी तो हैं ही, समुदाय की रोजमर्रा की जिंदगी के लिए इनका काफी महत्व है।

पिछले 21 महीनों में यानी प्रो जगदेश कुमार जब से कुलपति बने हैं यह महसूस किया गया है कि जेएनयू और उसके नैतिक-कानूनी समझ के लिए उनके मन में कोई सम्मान नहीं है। उन्होंने जानबूझकर कार्यकारिणी और अकादमिक परिषद् जैसी संवैधानिक संस्थाओं द्वारा फैसला लेने की प्रक्रिया को कमजोर करते हुए व्यापक अकादमिक और गैर-अकादमिक मामलों में योजना बनाने और उसे पालन करने की सारी शक्तियां अपने हाथ में ले लीं। उनकी कोशिश है कि विश्वविद्यालय को ज्ञान मीमांसा करने और उसे फैलाने के मकसद से भटका दिया जाए।

विश्वविद्यालय की स्वायत्त संस्था यौन शोषण विरोधी लैंगिक संवेदन समिति (GSCASH) को सभी समितियों और आयोगों द्वारा प्रशंसित किया गया है जो भारतीय समाज में लैंगिक न्याय की स्थापना में लगी हैं। उस GSCASH को हटाकर कुलपति ने एक ऐसी समिति बना दी है जो कुलपति और उनके खास लोगों की इच्छा और इशारों पर काम करेगी। जो भी शिक्षक और छात्र इन कदमों का विरोध कर रहे हैं उन्हें लगातार मानसिक कष्ट और दंड दिया जा रहा है। जिन्होंने नजीब अहमद को मारा था उन्हें बिना किसी दंड के छोड़ दिया गया। नजीब एमएससी बॉयोटेक्नोलॉजी का छात्र था और 15 अक्टूबर 2016 से लापता है। ऐसा जेएनयू के इतिहास में पहली बार हुआ कि जेएनयू कैम्पस के भीतर के हॉस्टल से एक छात्र लापता हुआ हो। लेकिन कुलपति ने इस मामले की निष्पक्ष जांच करने में कोई गंभीरता नहीं दिखाई और न ही उन लोगों को सुरक्षा प्रदान करने की कोशिश की जो कैम्पस के भीतर भीड़ की हिंसा के खतरे से डरे हुए थे। लोकतांत्रिक ढांचे के सभी नियम और मान्यताएं अतीत की चीज हो गई हैं।

इसी संदर्भ में शिक्षक संघ ने कुलपति के खिलाफ जन सुनवाई करने की पहल की और अपना विरोध जताया। करदाताओं के पैसे से चलने वाली सार्वजनिक संस्था को कुलपति के नेतृत्व में पहुंचाए गए नुकसान की एक मुकम्मल तस्वीर भी इसके जरिये सामने आई। यह एक स्वागतयोग्य कदम है और देश के जिन विश्वविद्यालयों में भी इस तरह का अलोकतांत्रिक व्यवहार हो रहा है, आजाद बहसों और युवाओं के बीच विचारों के आदान-प्रदान को दबाया जा रहा है, वहां भी ऐसी जन सुनवाई का आयोजन होना चाहिए।

(लेखक जेएनयू में प्राध्यापक हैं)

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Published: 27 Oct 2017, 2:53 PM
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