बिहार चुनावः इस बार कमजोर विकेट पर हैं नीतीश, 15 साल सत्ता में रहे ‘सुशासन बाबू’ के पास कोई बहाना नहीं

नीतीश इस बात का दावा कर सकते हैं कि उन्होंने समावेशी राजनीति की और वह एक ध्रुवीय राजनीति में विश्वास नहीं करते। लेकिन लोग इसी वजह से उन्हें पलटू राम भी कहते रहे हैं। चुनाव के बीच भी यह चर्चा आम है कि मुख्यमंत्री-पद का अड़ंगा फंसा, तो फिर वह पाला बदल लेंगे।

फोटोः सोशल मीडिया
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अब्दुल कादिर

बिहार विधानसभा के चुनाव ट्विटर पर हो रहे होते, तो परिणाम तो निर्णायक होते ही, अब तक आ भी चुके होते। राष्ट्रीय जनता दल नेता तेजस्वी यादव के 20 लाख 60 हजार फॉलोअर हैं, जबकि सीएम नीतीश कुमार के 60 लाख। फिर भी, अक्तूबर के दूसरे हफ्ते में सिर्फ दो दिनों में तेजस्वी ने नीतीश को कोसों पीछे छोड़ दिया। नीतीश ने 14 अक्तूबर को चार रैलिया कीं और सबके वीडियो ट्विटर पर पोस्ट किए। उनके एक हजार से भी कम फॉलोअर ने उन्हें लाइक किया, जबकि रीट्वीट भी एक से दो सौ ही हुए। लेकिन तेजस्वी के ट्वीट को चार से छह हजार लाइक मिले- एक को तो 51 हजार भी मिले, जबकि रीट्वीट भी हजारों में किए गए।

लेकिन सब जानते हैं कि ट्विटर की फॉलोइंग वोट में तब्दील नहीं होती। वैसे, जनता दल (यूनाइटेड)-भारतीय जनता पार्टी को इस बात से फिलवक्त सतोष जरूर मिल सकता है कि ओपिनियन पोल्स में उन्हें बहुमत मिल रहा बताया जा रहा है। लेकिन हम-आप ठीक से जानते हैं और हमें इसका अनुभव है कि ये पोल भी कितने सटीक होते हैं! पर हां, इन पोल की कुछ बातें नीतीश-नरेंद्र मोदी के माथे पर पसीने की बूदें लाने वाली जरूर हैं, जैसेः 84 प्रतिशत लोग नीतीश और राज्य सरकार से नाराज हैं; 54 प्रतिशत लोग बदलाव चाहते हैं; 80 फीसद लोग मानते हैं कि रोजगार का सवाल उनके लिए पहली प्राथमिकता है।

वैसे, राज्य में उद्योग न लग पाने और इस वजह से रोजगार की कमी पर नीतीश का तर्क सुनकर आपको भले ही हंसी आ जाए, जेडीयू-बीजेपी के लोग गदगद हैं। इंजीनियरिंग छोड़कर राजनीति में आए नीतीश का कहना है कि चूंकि बिहार चारों ओर से दूसरे राज्यों से घिरा है और यहां से समुद्र की दूरी ज्यादा है इसलिए लोग यहां उद्योग नहीं लगाना चाहते।

यह बात तो तय है कि इस बार के चुनाव में बीजेपी-जेडीयू के नेता परेशान हैं। इस बार प्रचार से केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पूरी तरह गायब हैं। हालांकि, उनकी कमी उनके नीचे के- केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानद राय पूरी करते दिख रहे हैं। शाह ने पिछले विधानसभा चुनाव के वक्त प्रचार में कहा था कि बीजेपी हारी, तो पाकिस्तान में जश्न मनेगा। उनकी इच्छा पूरी नहीं हो पाई।

लेकिन इस बार मोर्चा संभाल रहे नित्यानंद के उद्गार हैं कि ‘गलती से भी’ महागठबंधन की जीत हुई, तो बिहार कश्मीरी आतंकियों की शरणस्थली बन जाएगा। अब यह मत कहिएगा कि केंद्र सरकार तो दावा कर चुकी है कि उसने कश्मीर में आतंकियों की कमर तोड़ दी है और क्या ये आतंकी बीजेपी-शासित हिमाचल, हरियाणा, यूपी पारकर बिहार आएंगे!

सत्तारूढ़ गठबंधन की चिंता की वजह भी है। बिहार में जीतने वाली किसी भी पार्टी या गठबंधन को कभी भी 45 प्रतिशत से अधिक वोट नहीं मिले हैं। यहां इस बार महिलाओं और युवा वर्ग पर जीत-हार का दारोमदार है। 7.29 करोड़ वोटर में 47 प्रतिशत महिलाएं हैं, जबकि 18 से 29 वर्ष आयु वर्ग के 24 प्रतिशत वोटर हैं। हर साल लाखों लोगों को रोजगार की तलाश में बिहार से बाहर जाना पड़ता है। कोरोना के कारण लाखों लोग लौटे, पर उन्हें कोई पूछने वाला नहीं था। ऐसे में, महिलाओं और युवा वर्ग के वोट क्या ‘खेल’ करेंगे, कहना मुश्किल है।

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इसीलिए माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस दफा कमजोर विकेट पर हैं। वह पिछले करीब 15 साल से मुख्यमंत्री हैं। फिर भी, उन्हें अपने कामों पर शायद भरोसा नहीं है, तब ही वह लालू प्रसाद यादव-राबड़ी देवी के शासनकाल की खामियों को गिनाकर वोट माग रहे हैं। यह कमोबेश नरेंद्र मोदी-अमित शाह स्टाइल की राजनीति है। ये दोनों भी अपने कामों के बारे में बताने की जगह पिछली सरकारों की कथित गलतियां ही गिनाते रहते हैं। सभवतः इस वजह से भी एंटी इनकम्बेंसी के काम करने की उम्मीद विपक्ष को है।

गोपालगंज जिले के शिक्षक ज्योति भूषण सिंह की बातों से इस गुत्थी को थोड़ा सुलझाया जा सकता है। उन्होंने कहाः “कौन आएगा, यह हम नहीं जानते, पर हमारी यह ख्वाहिश जरूर है कि नीतीश की विदाई हो। शिक्षक समाज को उन्होंने सब दिन लॉलीपॉप ही थमाया।” बैकुंठपुर विधानसभा क्षेत्र में कारोबारी राजेश्वर प्रसाद ने कहा कि “जिन कामों के चलते कभी नीतीश की तारीफ हो रही थी, वे सब धीरे-धीरे लुप्त हो गए। अपराधी सक्रिय हो गए हैं, शराबबंदी फेल हो गई है और अधिकारियों के स्तर पर घूसखोरी बढ़ गई है।” भागलपुर के व्यवसायी मनीष कुमार भी कहते हैं कि कभी सरकार ने सड़कों पर बहुत काम किया था जिससे यातायात में बहुत सुधार हुआ था। लेकिन आज भागलपुर के आसपास सड़कों की हालत जर्जर है। नीतीश का समय खत्म हो गया है।

वैसे काफी लोग इसी मूड के लगते हैं। इस बार एनडीए भी ढीला-ढाला है और इस वजह से यह नीतीश बनाम सब जैसा चुनाव हो गया है। बीजेपी नेतृत्व जेडीयू के साथ है लेकिन भीतर ही भीतर वह लोक जनशक्ति पार्टी को जिस तरह कंधा दे रहा है, उससे संदेह तो हो ही रहा है। उधर, महागठबंधन में इस दफा वाम दलों के शामिल रहने से बीजेपी-जेडीयू को परेशानी होगी ही।

यह भी ध्यान में रखने की बात है कि नीतीश ने अपना कोई वोट बैंक तैयार नहीं किया है- उनकी अपनी जाति कुर्मी की आबादी बमुश्किल 2 प्रतिशत है; जीतनराम मांझी और महादलितों के वोट की वह उम्मीद कर सकते हैं, जबकि सवर्णों के वोट के लिए वह बीजेपी पर निर्भर हैं। वह भले ही दावा करें कि चूंकि उन्होंने बीजेपी को फलने-फूलने नहीं दिया, इसलिए उन्हें मुसलमानों के वोट भी मिलेंगे, लेकिन महागठबंधन जैसे-जैसे मजबूत दिखेगा, उनकी उम्मीद धूमिल होती जाएगी। यह जरूर है कि सिखों और बौद्धों के समर्थन के प्रति वह थोड़े आश्वस्त हो सकते हैं। सिखों के आयोजन में उन्होंने बढ़-चढ़कर भागीदारी की, जबकि बुद्ध तीर्थस्थान कानून में उन्होंने संशोधन कराए। लेकिन, इन दोनों वर्गों के वोटरों की संख्या ज्यादा नहीं है।

नीतीश इस बात का दावा कर सकते हैं कि उन्होंने समावेशी राजनीति की है और वह एक ध्रुवीय राजनीति में विश्वास नहीं करते। लेकिन लोग इस वजह से ही उन्हें पलटू राम भी कहते रहे हैं। चुनाव के बीच भी यह चर्चा आम है कि मुख्यमंत्री-पद का अड़ंगा फंसा, तो फिर वह पाला बदल लेंगे। उनके वे वीडियो सोशल मीडिया में जब-तब वायरल हो जाते हैं कि भले ही जान दे दूंगा, पर बीजेपी के साथ दोबारा नहीं जाऊंगा। यह उन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव के बाद आरजेडी के साथ रहते हुए कहा था। पर सबको मालूम है कि कैसे उन्होंने अपना रग बदला।

साथ में शैलेश कुमार सिंह

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