उत्तराखंड में धामी भी नहीं तोड़ पाए मुख्यमंत्रियों के हारने का मिथक, BJP में सीएम को लेकर उत्पन्न हुई अनिश्चितता

बीजेपी ने प्रदेश में 2022 का चुनाव मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में लड़ने के ऐलान के साथ ही उन्हें अगला मुख्यमंत्री भी घोषित किया था। लेकिन अब धामी के चुनाव हार जाने के बाद उनके मुख्यमंत्री बने रहने पर संशय के बादल मंडराने लगे हैं।

फाइल फोटोः सोशल मीडिया
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जयसिंह रावत

उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने दुबारा भारी बहुमत से चुनाव जीत कर भले ही एंटी इन्कम्बेंसी के कारण सत्ताधारी दल की हार और बारी-बारी सरकार बनाने का मिथक तोड़ दिया हो मगर कुछ मिथक इस चुनाव में फिर भी नहीं टूट पाए हैं। जैसे कि उत्तरकाशी की गंगोत्री सीट से जीतने वाले दल की ही राज्य में सरकार बनने का मिथक। सबसे बड़ा मिथक मुख्यमंत्रियों का चुनाव हारने वाला था जो कि इस बार भी नहीं टूट पाया। और इस मिथक के न टूट पाने से भावी मुख्यमंत्री को लेकर अनिश्चितता उत्पन्न हो गयी है। जबकि भाजपा ने चुनाव जीतने के बाद पुष्कर सिंह धामी को ही मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा की थी।

इस बार के उत्तराखंड चुनाव में मुख्यमंत्री पद के तीनों दलों के दावेदार चुनाव हार गए हैं। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी खटीमा सीट से 5180 मतों से हार गए हैं। इसी प्रकार कांग्रेस की ओर से दावेदार और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत अल्मोड़ा जिले की लालकुंआ सीट से लगभग 14 हजार मतों से चुनाव हार गए। जबकि आम आदमी पार्टी की ओर से भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश किये गए कर्नल अजय कोठियाल उत्तरकाशी की गंगोत्री सीट से जमानत तक नहीं बचा पाए। गंगोत्री से बीजेपी के सुरेश चौहान, कांग्रेस के विजयपाल सिंह चौहान से 7735 मतों से चुनाव जीते हैं।

प्रदेश में 2022 का चुनाव बीजेपी ने मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में लड़ने के ऐलान के साथ ही उन्हें अगला मुख्यमंत्री भी घोषित किया था। लेकिन अब धामी के चुनाव हार जाने के बाद उनके मुख्यमंत्री बने रहने पर संशय के बादल मंडराने लगे हैं। हालांकि पश्चिम बंगाल के चुनाव में भी ममता बनर्जी चुनाव हार गई थीं, फिर भी मुख्यमंत्री बन गई थीं। लेकिन जानकारों के अनुसार पश्चिम बंगाल और उत्तराखंड की स्थिति भिन्न है। ममता बनर्जी के अपनी पार्टी का सर्वेसर्वा होने के साथ ही वहां चुनाव उन्हीं के नाम पर जीते गए थे। लेकिन उत्तराखंड में मोदी और हिन्दुत्व के नाम पर चुनाव जीते गए। इसलिए जरूरी नहीं कि धामी को पुनः अवसर दिया जाएगा।


धामी की हार के बाद सतपाल महाराज जैसे हैवीवेट चुनाव जीत गए हैं। महाराज लम्बे समय से मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे हैं। कांग्रेस में मुख्यमंत्री बनने की संभावनाएं क्षीण होने के बाद ही वह भाजपा में शामिल हुए थे और मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल होने के लिए ही वह 2017 में चौबटाखाल से चुनाव लड़े थे। लेकिन जब मुख्यमंत्री बनने की बारी आई तो त्रिवेन्द्र रावत बाजी मार गए। त्रिवेन्द्र को जब हटाया गया तो महाराज पुनः प्रमुख दावेदारों में शामिल थे। लेकिन इस बार मुख्यमंत्री की कुर्सी सांसद तीरथ सिंह रावत के हाथ लग गई।

तीरथ सिंह की उपचुनाव लड़ने की संभावना समाप्त होने पर संवैधानिक संकट टालने के लिए तीरथ सिंह को हटाया गया तो महाराज एक बार फिर चूक गए और कुर्सी पुष्कर सिंह धामी के हाथ लग गई। इसलिए अगर धामी को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया तो इस बार सतपाल महाराज पुनः इस पद के प्रमुख दावेदरों में से एक माने जा सकते हैं। महाराज के लिए उपचुनाव की भी आवश्यकता नहीं है। महाराज केन्द्र में मंत्री भी रह चुके हैं और दो बार सांसद भी रहे हैं। उनके शिष्य सारे देश में फैले हैं जिसका लाभ भाजपा उठा सकती है।

इस चुनाव में कांग्रेस से कांटे की टक्कर की स्थिति मानी जा रही थी। ऐसी स्थिति में त्रिशंकु विधानसभा के बारे में भी आशंकाएं प्रकट की जा रही थी। इस स्थिति से निपटने के लिए भाजपा में प्लान बी पर भी काम किया जा रहा था। प्लान के अनुसार कम सीटें मिलने पर बसपा और निर्दलियों को पटाने की भी योजना थी और इस कार्य के लिये पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केन्द्रीय शिक्षा मंत्री के साथ बीजेपी के रणनीतिकार विजयवर्गीय की मुलाकातें काफी चर्चा में रही थीं। यही नहीं निशंक को दिल्ली भी तलब किया गया था। इसलिए अगर धामी की बारी नहीं आती है तो निशंक को भी अगले मुख्यमंत्री के लिए प्रबल दावेदार माना जा सकता है। यह भी चर्चा है कि भाजपा इस बार कच्चे खिलाड़ियों को मुख्यमंत्री पद की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नहीं सौंपेगी।

भाजपा प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक हरिद्वार से कड़े मुकाबले में जीत तो गए हैं, मगर उनकी संभावनाएं ज्यादा नहीं हैं। कौशिक पर वैसे ही पार्टी के अधिकृत उम्मीदवारों के खिलाफ भीतरघात करने का आरोप है। इसलिए उनका प्रदेश अध्यक्ष पर भी सलामत रहता है तो वही गनीमत है। चूंकि यह चुनाव मोदी और पार्टी के नाम पर जीता गया है। इसलिए भाजपा नेतृत्व को मुख्यमंत्री के चयन में काफी लिबर्टी हासिल है। अगर पार्टी नेतृत्व इस मामले में फिर कोई चौंकाने वाला निर्णय लेता है तो अचरज न होगा।

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