डॉक्युमेंट्री फिल्म ‘अहिंसा- गांधी: द पावर ऑफ द पावरलेस’ : अहिंसा के सिद्धांत को रेखाकिंत करने वाली कहानी

फिल्मकार रमेश शर्मा की डॉक्युमेंट्री फिल्म ‘अहिंसा- गांधी: द पावर ऑफ द पावरलेस’ मोहनदास करमचंद गांधी के अहिंसा के संदेश को रेखाकिंत करने वाले शब्दों से शुरू होती है।

फोटो: सोशल मीडिया
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नम्रता जोशी

फिल्मकार रमेश शर्मा की डॉक्युमेंट्री फिल्म ‘अहिंसा- गांधी: द पावर ऑफ द पावरलेस’ मोहनदास करमचंद गांधी के अहिंसा के संदेश को रेखाकिंत करने वाले शब्दों से शुरू होती है, “इसने अरबों लोगों को प्ररेित किया और कट्टरता, अत्याचार तथा असहिष्तुणा से जूझ रही मानवता के लिए प्ररेणा का काम किया।” आगे कहा गया है, “यह आज पहले से भी कहीं अधिक प्रासंगिक है।” यह फिल्म मार्टिन लूथर किंग जूनियर के कालातीत कथन के साथ समाप्त होती है, “आज चुनाव हिंसा और अहिंसा के बीच नहीं है। मुद्दा अहिंसा या गैरअस्तित्व में से एक का है।”

इसके ठीक विपरीत असम के दरांग से हाल ही में आए दृश्य हैं जिसमें हाथ में लाठी पकड़ा हुआ एक व्यक्ति सशस्त्र बलों की गोली से जमीन पर गिरा हुआ है और एक फोटोग्राफर विजयी मुद्रा में उसके बेजान शरीर पर कूद रहा है। लिंचिंग और अन्य अमानवीय अत्याचारों की छवियां नियमित रूप से लगातार विभिन्न सोशल मीडिया के मंचों पर प्रसारित होती रहती हैं। ऐसे समय में लगता है कि जैसे हम या तो क्रूताओं के अत्याचारी अपराधी बन गए हैं या फिर इसके असहाय प्राप्तकर्ता या फिर इसकी कई तस्वीरों के चालाक, आनंद लेने वाले और अभ्यस्त उपभोक्ता बन गए हैं। शर्मा की डॉक्युमेंट्री हमको चारों से घेरे हुए अमानवीयता और इसके सामान्यीकरण के खिलाफ एक प्रतिकार (एन्टिडोट) की तरह है, मानो यह कहते हुए कि महात्मा और उनके सिद्धांतों से हम जितना दूर जा रहे हैं, उतनी ही तत्परता के साथ उनके पास लौटने की बहुत अधिक आवश्यकता है।

यह फिल्म 2019 में महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर बनाई गई थी। लेकिन ‘न्यू देहली टाइम्स’ और ‘जर्नलिस्ट एंड द जिहादी– मर्डर ऑफ डेनियल पर्ल’-जैसी फिल्मों के जरिये अपने काम के लिए प्रसिद्ध रमेश शर्मा अपना कैमरा उस व्यक्ति के बजाय उसके उन सिद्धांतों पर फोकस करते हैं जिनके लिए वह डटा रहा। यह फिल्म अहिंसा के गांधीवादी सिद्धांतों की शक्ति के पनुर्निर्माण के बारे में है। शर्मा हमें बहुत ही मेहनत के साथ महात्मा गांधी के निजी और राजनीतिक इतिहास के बारीक विवरणों और उनके द्वारा जैन दर्शनशास्त्र पर आधारित अहिंसा के सिद्धांत को आलिंगनबद्ध करने की यात्रा पर ले जाते हैं। यूरोपीय उपनिवेशवाद की ढलान, दक्षिण अफ्रीका में नस्लवाद को लेकर गांधी जी के अनुभव और 1906 में सत्याग्रह शब्द को गढ़ने के साथ ही हमारा सफर गांधी जी के साथ वहां से शुरू होता है जहां वह इतिहास में एक बहुत ही महत्वपूर्ण मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे। फिल्म हमें महात्मा गांधी पर टॉलस्टॉय और थोरेयू के प्रभाव की एक झलक भी दिखाती है। फिर जलियांवाला बाग नरसंहार का गांधी के मन-मस्तिष्क पर पड़ने वाले असर, नमक सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा और भारत छोड़ो आंदोलन के बारे में बताती है। यह अहिंसा का निरीक्षण केवल निष्क्रिय कार्य या इसे कह देने भर के रूप में नहीं करती बल्कि प्रतिरोध के एक सक्रिय औजार के रूप में करती है। जैसा कि मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था, “इस तरीके में ताकत है।” लेकिन यह दमन का मकुाबला करने के लिए नफरत और हिंसा को त्यागना भर नहीं है बल्कि यह बिना हथियारों के नाइंसाफियों के खिलाफ संघर्ष के बारे में है। यह सविनय अवज्ञा और असहमति की रचनात्मक शक्तियों को दिशा देने के जरिये एक मजबूत संघर्ष के बारे में है।


इससे भी ज्यादा यह फिल्म इस बारे में है कि गांधी जी का संदेश पूरे विश्व में किस तरह से पहुंचा और नागरिक अधिकारों या रंगभेद विरोधी आंदोलनों, कम्युनिस्ट शासन के बाद लोकतंत्र के लिए पोलैंड में लेक वालेसा की सॉलिडैरिटी या चेकोस्लोवाकिया में वक्लाव हवेल का वेलवेट रिवॉल्यूशन के साथ अपनी प्रासंगिकता के कारण गुंजायमान हो उठा। यह ऐसा है जैसे हम एक समय-काल में हुए अत्याचारों को इतिहास के एक छाते के नीचे एकत्र कर दें और उन सबके लिए मात्र एक ही समाधान देखें तो वह है सर्वोच्च सत्य और अहिंसा का ज्ञान।

शर्मा ने अपने शोध कार्य में व्यापक काम किया है। उन्होंने अति दुर्लभ तस्वीरों (जिनमें महान मार्गरेट बोर्के व्हाइट की तस्वीर भी शामिल है), और नागरिक अधिकार कार्यकर्त्ता रेवरेंड जेम्स लॉसन, कांग्रेसमैन जॉन लुइस, लेखक और राजनीति विज्ञानी मैरी एलिथाबेथ किंग, रामचंद्र गुहा, डॉ. त्रिदीप सुहृद तथा राजमोहन गांधी सहित कई अन्य लोगों के साक्षात्कारों के अभिलेखीय फुटेज को एक साथ एक धागे में पिरोकर प्रस्तुत किया है।

लेकिन यह अहिंसा पर एक रूखा व्याख्यान नहीं है। शर्मा इस फिल्म को ऐसे आगे बढ़ाते हैं जो प्रतिरोध के किसी भी जैविक कार्य के मानदंड पर खरी उतरती हो। वह बहुत ही शानदार साउंडट्रैक का इस्तेमाल करते हैं जो दर्शकों को बहुत प्रभावित करता है, खासकर दीवारों को गिराने के बारे में प्ररेणादायक पोलिश गीत। जॉर्ज फ्लॉयड के ‘आई कान्ट ब्रीद’ को अनदेखा करना मुश्किल है। यह फिल्म के अंत में आता है। इस फिल्म को ब्लैक लाइव्स मैटर तक ले जाने के बाद यह हमें यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या अगर इसे भारत में वर्तमान में शातिं पूर्ण तरीके से चल रहे किसानों के धरने या फिर इससे पहले सीएए/ एनआरसी के विरोध में हुए प्रदर्शनों के संदर्भ में जोड़ दिया जाता तो क्या इसे अधिक तीक्ष्णता और तात्कालिकता नहीं मिलती।


फिल्म को देखने के कुछ दिनों बाद मुझे थोरेयू द्वारा कहे गए शब्द याद आ रहे थे, जब वह बताते हैं कि किस प्रकार लोगों को निरंकुश सरकारों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए या फिर किसी भी कारणवश अपने सोचने-समझने की शक्ति/विवेक को गिरने नहीं देना चाहिए। तथा खुद को किसी भी कारण से किसी भी प्रकार के अन्याय का वाहक नहीं बनने देना चाहिए। उनके द्वारा कहे गए यही वे शब्द थे जिन्होंने गांधी जी को प्ररेणा दी और उनके माध्यम से अहिंसा को दुनिया में फिर से स्थान दिलाया तथा सबके लिए गरिमा, न्याय और मूलभूत मानव अधिकारों को पुन: प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त किया। ‘अहिंसा– गांधी: द पावर ऑफ दे पावरलेस’ ने हमें दिखाया कि कैसे महात्मा गांधी और उनके अहिंसा के सिद्धांत युगों तक प्रासंगिक बने रहेंगे।

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